गांधीजी
का ब्रह्मचर्य दर्शन एवं उनके ब्रह्मचर्य प्रयोग पर उठे विवाद
- चन्दन कुमार, एस आर एफ (यूजीसी)
पी -एच. डी. ,अहिंसा
एवं शांति अध्ययन विभाग
महात्मा
गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा.
गांधी जी का ब्रह्मचर्य किताबों से लिया
गया नहीं है। गांधीजी अपने और इस प्रयोग में सम्मिलित होने वाले अपने साथियों के
लिए मार्गदर्शक नियम स्वयं बनाए। न सिर्फ यह कि उन्होंने पूर्वनिर्धारित नियमों को
नहीं माना, बल्कि उन्होंने इस
कथन को भी नकार दिया कि स्त्री सभी बुराइयों और प्रलोभनों की जड़ है। उनके अंदर जो
भी अच्छाई है, उसका श्रेय वे अपनी मां को ही देते है। गांधीजी
स्त्री को कभी वासना की तृप्ति का साधन नहीं मानते, बल्कि
अपनी मां के समान ही पूज्य मानते है। वे कहते है कि, पुरुष
ही प्रलोभन देता है, पुरुष ही आक्रामक है। स्त्री का स्पर्श
पुरुष को भ्रष्ट नहीं करता, पुरुष प्राय: स्वयं ही इतना
अपवित्र होता है कि स्त्री का स्पर्श करने योग्य नहीं रह जाता।[v] परूष को यह समझना जरूरी है।
गांधीजी का मानना है कि, जिस दिन से मैंने ब्रह्मचर्य की शुरुआत की, हम स्वतंत्र होने लगे। मेरी पत्नी एक स्वतंत्र स्त्री बन गई, उसके स्वामी के रूप में मैं उस पर जो अधिकार चलाता था उससे वह मुक्त हो
गई और मैं अपनी उस भूख की गुलामी से छुटकारा पा गया जिसकी तृप्ति का साधन वह थी। किसी
अन्य स्त्री के प्रति मेरे मन में उस तरह का आकर्षण नहीं था जैसा कि अपनी पत्नी के
प्रति था। मैं अपनी पत्नी के प्रति इतना नैष्ठिक था और अपनी मां के सामने किए गए
प्रण से इतना बंधा था कि, मैं किसी अन्य स्त्री का दास नहीं
बन सकता था। लेकिन मेरा ब्रह्मचर्य जिस रूप में मुझे मिला,
उससे मैं स्त्री को मनुष्य की मां समझते हुए उसकी ओर अस्वस्त होकर खींचता चला गया।
वह मेरे लिए इतनी पवित्र हो गई कि भोग की वस्तु कदापि नहीं बन सकती थी और इस
प्रकार हर स्त्री तत्काल मेरे लिए मेरी बहिन अथवा बेटी बन गई।[vi] मां,
बेटी और बहन को प्रत्येक स्त्री में देखना ब्रह्मचर्य के लिए दृढ़ता प्रदान करता
है।
ब्रह्मचर्य का मूल अर्थ बताते हुए गांधीजी
ने लिखा है कि, ब्रह्मचर्य यानि
ब्रह्म की – सत्य की – खोज में चर्या यानि उसके मुताल्लिक
आचार-बरताव।[vii] ब्रह्मचर्य मन, वचन, और तन से बरतने का होता है।[viii] भोग विलास से किसी ने सत्य
को पाया हो आज तक एक भी मिसाल हमारे सामने नहीं है।[ix] जिस मनुष्य ने सत्य को पसंद
किया है, जो उसी की उपासना (भक्ति) करता है, वह अगर उसे छोडकर किसी और चीज की आराधना करता है,
तो व्यभिचारी साबित होता है। तब फिर विकार की आराधना तो हो ही कैसे सकती है? जिसकी सारी प्रवृत्ति, सारा काम सत्य के दर्शन के
लिए है, वह बच्चे पैदा करने के या घर-संसार, कुटुंब-कबीला चलाने के काम में कैसे पड़ सकता है?[x] भोग-विलास के
लिए वीर्य को गंवाना और शरीर को निचोड़ना यह कितनी बेवकूफी है? वीर्य का उपयोग दोनों की शरीर और मन की शक्ति को बढ़ाने के लिए है।
विषय-भोग में उसका उपयोग करना उसका बहुत बड़ा दुरुपयोग है,
इसलिए वह बहुत सी बीमारियों का मूल हो जाता है।[xi] जो शरीर को काबू में रखता है, लेकिन मन से विकार को पोसता रहता है, वह मूढ़ और
मिथ्याचारी है।[xii]
ईश्वर ने मनुष्य को यह बुद्धि दी है कि वह अपनी मां, अपनी
बेटी और अपनी पत्नी के बीच भेद कर सके।[xiii] ब्रह्मचर्य का पूरी तरह
पालन करने वाले स्त्री-पुरुष मनोवेगों से पूर्णतया मुक्त होते हैं। ऐसे व्यक्ति
ईश्वर के सान्निध्य में निवास करते हैं, वे ईश-तुल्य होते हैं।[xiv] और मुक्ति को प्राप्त करते
है।
मन को विकारवाला रहने देना और शरीर को
दबाने की कोशिश करना इसमें नुकसान ही है। जहां मन है वहां शरीर आखिर घसीटे बिना
रहेगा ही नहीं। यहां एक भेद समझ लेना जरूरी है। मन को विकारबस होने देना एक बात है; मन अपने-आप, बगैर
इच्छा के, जबरन विकारवाला हो जाए या हुआ करे यह दूसरी बात
है। उस विकार में हम मददगार न हों, तो आखिर हमारी जीत है ही।
गांधीजी क्षण-क्षण अनुभव करते हैं कि शरीर काबू में रहता है,
लेकिन मन नहीं रहता। इसलिए शरीर को तुरंत बस में करके हम मन को बस में करने की
हमेशा कोशिश करते रहें, तो हम (अपना) फर्ज अदा कर चुके। मन
के बस में हम हुए कि शरीर और मन का झगड़ा शुरू हुआ, मिथ्याचार
का आरंभ हुआ। जब तक मन के विकार को हम दबाते रहेंगे, तब तक
दोनों साथ-साथ जाएंगे ऐसा कह सकते हैं।[xv] प्राय: जनन-इंद्रियों (लिंग, योनि) पर काबू पा लेना ही ब्रह्मचर्य माना जाता है। गांधीजी कहते है कि
यह तंग और संकुचित व्याख्या है। तमाम विषयों पर रोक, काबू ही
ब्रह्मचर्य है। जो दूसरी इंद्रियों को हवासों को जहां तहां भटकने देता है और एक ही
इंद्रियों को रोकने की कोशिश करता है, वह निकम्मी कोशिश करता
है।[xvi] कानों से विकार की बातें
सुने, आंखों से विकार पैदा करने वाली चींजे देखे, जीभ से विकारों को तेज करने वाली चींजे स्वाद से खाए, हाथ से विकारों को तेज करने वाली वस्तुओं को छूए और फिर भी जनन-इंद्रियों
को रोकने का इरादा कोई रखे, तो यह आग में हाथ डाल कर न जलने
की कोशिश करने जैसा होगा। इसलिए जो जनन-इंद्रियों को रोकने की ठान ले, उसको तमाम इंद्रियों को विकारों से रोकने की ठान ही लेना चाहिए।[xvii]
गांधीजी को ब्रह्मचर्य के बिना जीवन
फीका और पशुवत प्रतीत होता है। पशु स्वभाव से ही आत्मसंयम नहीं जानता। मनुष्य
इसीलिए मनुष्य है कि वह जितना चाहे उतना आत्मसंयम बरतने में समर्थ है।[xviii] आध्यात्मिक पूर्णता की
प्राप्ति के लिए जीवन में मनसा,
वाचा, कर्मणा पूर्ण आत्मनिग्रह का होना आवश्यक है। गांधीजी
कहते है कि, जिस राष्ट्र में ऐसे लोग नहीं हैं, वह इस अभाव की वजह से दरिद्रतर राष्ट्र है।[xix] गांधीजी का कहना है कि, सब इंद्रियों को एक साथ बस में लाने की आदत डालें,
तो जनन-इंद्रियों को बस में लाने की कोशिश तुरंत सफल होगी। इसमें मुख्य चीज स्वाद
की इंद्रिय है।[xx]
अस्वाद व्रत का ब्रह्मचर्य व्रत से नजदीकी संबंध है। ब्रह्मचर्य व्रत के लिए यह
आवश्यक है कि भोजन पर उचित ध्यान दिया जाना चाहिए। जिसपर गांधीजी अग्रसर थे।
गांधीजी के ब्रह्मचर्य प्रयोगों पर
विद्वान लेखकों-मनोविश्लेसकों द्वारा गांधी के ब्रह्मचर्य प्रयोगों पर आरोप लगाए
जाते है एवं गांधी को कामुक व्यक्ति के तौर पर पेश करने की होती है। गांधीजी ने
ब्रह्मचर्य का व्रत 1906 में लिया था। व्रत का अर्थ
गांधीजी ने अडिग निश्चय से लिया है, जिसे कोई उसे उस निश्चय से हटा नहीं सकता है।
मनु के साथ सहशयन एवं नग्न होने का हवाला दिया
जाता है। 12 वर्ष की उम्र
में ही मनु को जन्म देने वाली माता का निधन हो जाता है। कस्तूरबा ने मां के रूप
में उसका पालन-पोषण किया और कस्तूरबा के निधन के बाद उसकी सारी ज़िम्मेदारी गांधीजी
ने अपने हाथों में ले लिया। गांधी और मनु का रिश्ता एक ही साथ बाप-बेटी और
मां-बेटी का था। जिसे मनु ने स्वीकार भी किया है और जैसा कहा जाता है कि, गांधीजी के मृत्यु के बाद मनु ने आजीवन
शादी नहीं की।
पुलित्जर पुरस्कार से सम्मानित पत्रकार एवं
लेखक जोसेफ लेलीवेल्ड ने गांधीजी को समलैंगिक बताया है। गांधी की कालेनबाख से मुलाक़ात 1904 में हुई थी। टालस्टाय फार्म स्थापित करने के लिए कालेनबाख ने 1100 एकड़
जमीन उपलब्ध कराया था। अपनी 1909 में रचित पुस्तक हिन्द स्वराज का अंग्रेजी
रूपान्तरण गांधीजी ने कालेनबाख के लिए ही किया था। जबकि कस्तूरबा उस समय जीवित एवं
जवान थी, यदि गांधी कामुक ही होते तो समलैंगिक होने
का प्रश्न ही नहीं उठता है।
गांधीजी के सार्वजनिक जीवन के ऐसे प्रसंग एवं
तथ्य समाजहित एवं समाज दर्शन से जुड़े हुए है। जिसको लागू करना-करवाना एवं अमल करना
एक बड़ी चुनौती पूंजीवादी दर्शन को रही है। इतिहास गवाह रहा है कि, जो दर्शन पूंजीवाद के विरुद्ध रहे है उसे तोड़ा-मरोड़ा जाए, जिससे से आने वाली पीढ़ी का उस दिशा कि ओर बढ़ने से पहले ही उनके मन-मस्तिष्क को विचलित कर दिया जाए। पूरे संदर्भ से काटकर मनमाने ढंग से रखना
और उसके माध्यम से सनसनी पैदा करना बहुत आसान काम पूंजीवादी दर्शन का रहा है। यह
नहीं भूला जा सकता है कि, गांधीजी ने भोगवाद की बुनियाद पर खड़ी पश्चिमी सभ्यता को हिन्द स्वराज नमक
पुस्तक में ‘शैतानी
सभ्यता’ कहा है। गांधीजी में पूंजीवादी साम्राज्यवाद को नकारने की
हिम्मत दिखती है। पूंजीवाद के छिपित हिमायती गांधी की इस हिम्मत से भली-भांति
वाकिफ एवं डरे हुए है। इसलिए उनके लिए यह जरूरी है कि वे गांधी के ऐसे पहलुओं और
तथ्यों को मनमाने ढंग से सामने लायें जिससे नई पीढ़ी गांधीजी के संपूर्ण दर्शन से
घृणा करने लगे। नई पीढ़ी को गांधी का परिचय इस तरह कराया जाय मानो गांधी काम-वासना
में लिप्त दुनिया का सबसे कामुक व्यक्ति था। इतिहास इस बात का गवाह है कि पूंजीवादी-साम्राज्यवादी
ताकतों ने अपने खिलाफ उठ खड़ी होने वाली शक्तियों की जड़ों को काटने का कोई अवसर
अपने हाथ से जाने नहीं दिया है। जिन विचारधाराओं से पूंजीवाद को चुनौती मिलती है
चाहे अतीत, वर्तमान या भविष्य
हो, वे
उसको बदनाम करने,
दागदार बनाने या साफ करने की हर संभव कोशिश में लगी रहती है।
संपर्क: अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी
विश्वविद्यालय, पंचटीला
वर्धा,
संदर्भ-सूची
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