- चन्दन कुमार, एस आर एफ (यूजीसी)
पी -एच. डी. ,अहिंसा
एवं शांति अध्ययन विभाग
महात्मा
गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा.
सुकरात का जन्म एथेंस में लगभग 470 ईसा पूर्व एवं मृत्यु 399 ईसा पूर्व माना जाता रहा है। वे सशस्त्र पैदल सेना के सिपाही थे एवं थ्रेस के युद्ध में एथेंस की ओर से भाग लिया था।
सुकरात शिल्पी का पुत्र होते
हुए सारा जीवन, जीवन-दर्शन को समझने
और बदलने में लगा दिया। सत्य की खोज या सत्य ज्ञान की खोज में अपना जीवन साधक के रूप में अर्पित
किया। उनपर कानून के विरुद्ध कार्य करने का अभियोग चलाकर प्राणदंड देने की सजा
मिली, लेकिन वे अपने दर्शन से विचलित नहीं हुए। उनके साथियों
ने कारागार से भाग जाने की सलाह भी दी लेकिन उन सलाह को नहीं मानते हुए यह कहकर
नाकार दिया कि, कानून और एथेंस दोनों को क्षति पहुंचेगी एवं यह
अपराध कहलाएगा।
सुकरात ने सत्य, ज्ञान, और न्याय को
एथेंस के नागरिकों में प्रचारित किया। उन्होंने तर्क की शक्ति विकसित की। सत्य के
अन्वेषन और अज्ञानता का पर्दाफाश करने के लिए संवाद-प्रणाली को अपनाया। वे किसी भी
व्यक्ति से न्याय, सदाचार, भक्ति, साहस आदि जैसे शब्दों के अर्थ से प्रश्नोत्तरों द्वारा व्यक्ति के
विचारों को जानते हुए असंगतियों को ढूंढते और ज्ञान की दिशा की ओर उसे ले जाते थे।
कई लोग संवाद में पराजित होकर अपमान महसूस करते थे। प्रश्नोत्तर और परिभाषाओं की
उनकी पद्धति ज्ञान अर्जित करने की व्यावहारिक और नूतन पद्धति माना जा सकता है।
उनके द्वारा इस तरह के कार्य का मुख्य उद्देश्य अज्ञानता का भंडाफोड़ कर सत्यता से
परिचय कराना मात्र था।
सुकरात का ज्ञान सिद्धान्त
ज्ञान-द्वय का सिद्धान्त कहलाता है। पहला बाह्य ज्ञान और दूसरा वास्तविक ज्ञान। पहला
बाह्य ज्ञान- बाह्य ज्ञान में उन्होंने इंद्रिय ज्ञान को रखा है, जिसको मनुष्य कानों से सुनकर, आँख से देखकर एवं नाक से सूंघकर आदि प्राप्त करता है। इस ज्ञान को
दिखावटी एवं लोक व्यवहार पर निर्भर मानते है। इसका कोई दृढ़ आधार नहीं होता है। इस
ज्ञान में परिवर्तन एवं अदल-बदल हो सकते है। दूसरा वास्तविक ज्ञान- सुकरात का
मानना है कि समस्त भौतिक पदार्थ के पीछे एक तत्व छिपा रहता है, सभी भौतिक वस्तुएँ किसी ऐसे विचार एवं सत्ता का प्रतिनिधि होते हैं, जो शाश्वत, अटल एवं अनश्वर है। इसी का साक्षात्कार
करना प्रत्येक मानव का लक्ष्य होना चाहिए। इसी को सुकरात ने वास्तविक एवं यथार्थ
ज्ञान कहा है। इस तरह के प्राप्त ज्ञान को अचल, अडिग एवं अटल
माना। इसमें परिवर्तन या संशोधन की जरा भी संभावना नहीं होती है। यह अमर सत्य होता
है। ज्ञान प्राप्ति की कसौटी में सुकरात ने 'क्या' एवं 'कैसे' को न मानकर क्यों
का उत्तर ढूँढना माना है। सुकरात मानते हैं कि ज्ञान ही धर्म है और अज्ञानता पाप, यदि ज्ञान हो जाए तो लोग पाप-कर्म नहीं करेंगे। सत्य बोलने का ज्ञान
प्राप्त हो और उसे आचरण में नहीं ला पाते तो हममें केवल भ्रांति है, वास्तविक ज्ञान नहीं है। सत्य ज्ञान वह है जिसके साथ आचरण है। आचरण के
बिना ज्ञान निर्थक और निष्फल होता है।
सुकरात राजनीति को कला मानते
है। जिसमें विशेष निपुणता की आवश्यकता होती है। प्रत्येक एवं साधारण व्यक्ति में
नहीं होता। इस कला को केवल ज्ञानी व्यक्ति ही सीख सकता एवं शासन कर सकता है, जिसे सभी व्यक्तियों के साथ संबंध रखना
पड़ता है। राजनीति एक कला है तो राजनीतिज्ञ कलाकार। राजनीति विशेषज्ञों का क्षेत्र
होता है, जिसका निर्णय बहुसंख्यकों द्वारा करना भयानक भूल
मानते है।
एथेंस की राजनीति व्यवस्था से
सुकरात क्षुब्ध थे। वहाँ चुनाव लॉटरी एवं पर्ची डाल कर होता था, जिसके कारण अयोग्य और साधारण व्यक्ति भी
उच्च पदों को प्राप्त कर लेता था। सुकरात ने इस प्रथा का विरोध किया और तर्क दिया
कि जब हम जूते की मरम्मत के लिए मोची को खोजते हैं और लकड़ी के समान की मरम्मत के
लिए बढ़ई को, तो राज्य संचालन के लिए प्रशासनिक कला में दक्ष
व्यक्ति को क्यों नहीं आमंत्रित कर सकते हैं। सुकरात राजनीतिज्ञों का गुण मानते है
जन हितैषी होना एवं बुद्धिमान होना। इस तरह सुकरात शासन व्यवस्था को केवल
बुद्धिमान व्यक्तियों का कार्य मानते हैं।
कानून को तोड़ना सुकरात राज्य
के विपरीत कार्य मानते हैं। सुकरात राज्य के कानून को ईश्वर का आदेश मानते है।
कानून को नागरिकों के कार्यों की सुविधा के लिए स्वीकृत समझौता मानते हैं, जिसके बाहर न तो वे कार्य कर सकते हैं और न
उसके विपरीत जाना पसंद करते है।
मानव प्रकृति के दो स्वरूप की
चर्चा करते है। जिसमें पहला कमजोर स्वरूप और दूसरा शक्तिशाली स्वरूप। कमजोर स्वरूप
में मानव को लोभी, स्वार्थी
एवं अकल्याणकारी माना है। उसे पशु की कोटी में मानते हैं। जिसमें मनुष्य वासनाओं के
वशीभूत होकर कार्य करते हैं। दूसरा शक्तिशाली स्वरूप में मनुष्य को कल्याणकारी बताया
है। जिसमें मनुष्य लोकहित के कार्य करते हैं।
सुकरात की मृत्यु के बाद उनकी
शिक्षाओं से प्रभावित होकर दो संप्रदाय का जन्म हुआ सिनिक्स तथा साइरेनेइक्स। सिनिक्स
संप्रदाय के जन्मदाता एटीस्थेनीज़ और साइरेनेइक्स के एरिस्तिप्पस थे। सिनिक शब्द का
अर्थ कुत्ता होता है। रूढ़ियों तथा नियमों की घोर उपेक्षा करने के कारण सिनिक्स कहा
गया। सभी समर्थक सामाजिक नियमों के विद्रोही एवं विरोधी थे। साइरेनेइक्स संप्रदाय के
जन्मदाता एरिस्तिप्पस अफ्रीका के उत्तरी समुद्र तट के पास स्थित साइरीनी नामक नगर के
रहने के कारण इस संप्रदाय को साइरेनेइक्स कहा गया। दोनों अनुयायी सुकरात के आत्मज्ञान
सिद्धान्त से प्रभावित थे। किसी भी सामाजिक संस्था को उपयोगी नहीं मानते थे। सारा विश्व
ही उनका राज्य था, वे अपने
को विश्व नागरिक मानते थे। राज्य सत्ता को स्वीकार नहीं करते थे और न ही अपने को राज्य
नागरिक मानते थे। इन्होंने विश्व नागरिकता का विचार दिया, समानता
और बंधुत्व में विश्वास प्रकट किया, प्राकृतिक जीवन की ओर लौटो
का सिद्धान्त दिया, बनावटी एवं कृत्रिमता का विरोध किया, व्यक्ति की उन्नति के लिए राज्य को अनावश्यक माना।
संपर्क: अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी
विश्वविद्यालय, पंचटीला
वर्धा, महाराष्ट्र (442005), मो. 9763710526, ई-मेल chandankumarjrf@gmail.com
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