- चन्दन कुमार, एसआरएफ(यूजीसी)
पी -एच. डी. ,अहिंसा
एवं शांति अध्ययन विभाग
महात्मा
गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा.
गांधीजी को
सत्य एवं अहिंसा में आस्था रहने के कारण ही सत्याग्रह में भी साध्य और साधन की
एकरूपता है। साध्य उतना ही पुनीत होगा जितना उसे प्राप्त करने के लिए अपनाए गए
साधन, गांधीजी के अनुसार साध्य को
साधनों से अलग नहीं किया जा सकता है। साध्य अथवा लक्ष्य उतना ही औचित्यपूर्ण होगा, जीतने औचित्यपूर्ण उसकी प्राप्ति के लिए अपनाए गए साधन। इस प्रकार
गांधीजी साधनों को साध्य से अलग नहीं करते हैं क्योंकि साध्य, साधनों की अंतिम कड़ी है अथवा अंतिम सीढ़ी है।
सत्याग्रह अन्याय के विरुद्ध एक ऐसा अहिंसक
संघर्ष है जिसमें मन, वचन तथा कर्म से हिंसा का त्याग करके, अहिंसा को एक
सिद्धान्त के रूप में स्वीकार किया जाता है। इसमें ऐसे साधनों को अपनाया जाता है
जो नैतिक, उचित तथा साध्य के अनुरूप हों, और जिनमें संघर्ष का टार्गेट अथवा निशाना अन्याय होता है, अन्याय करने वाला नहीं।[2]
गांधीजी के अनुसार, सत्याग्रह असत्य व अन्याय के विरुद्ध एक
ऐसा अहिंसक संघर्ष है जो नैतिक रूप से सक्षम व सतर्क हो। सत्याग्रह कमजोर, कायर अथवा असहाय का साधन नहीं है। जिस व्यक्ति की सत्य व न्याय में आस्था
ही नहीं होगी, वह भले-बुरे, सत्य-असत्य, न्याय-अन्याय के भेद को कैसे जानेगा और जिसे अपने साध्य व साधनों का
समुचित शिक्षण-प्रशिक्षण नहीं होगा, वह संघर्ष कैसे करेगा।
इस प्रकार, गांधी के अनुसार, सत्याग्रह
नैतिक रूप से सक्षम, सक्रिय व सतर्क लोगों के द्वारा किया
जाने वाला संघर्ष है, न कि असहाय, कायर
अथवा डरपोक लोगों का। गांधी के सत्याग्रह का आधार सत्याग्रह की नैतिक शक्ति है।
उसकी नैतिकता के मूल्यों के प्रति जागरूकता तथा उनमें आस्था वैसी ही होनी चाहिए, जैसी पारंपरिक हिंसक युद्ध में योद्धा की शारीरिक शक्ति तथा
अस्त्र-शस्त्र की शक्ति के प्रति होती है। नैतिक शक्ति शारीरिक शक्ति से श्रेष्ठ
होती है। सत्याग्रह संघर्ष में, हिंसक युद्ध की तुलना में
अधिक बहादुरी की आवश्यकता होती है। इस प्रकार सत्याग्रह बहादुरों एवं वीरों का
संघर्ष है, न कि कायरों का।[3]
कायर तो टिक ही नहीं सकता।
गांधीजी ने आत्मपीड़न, आत्मत्याग अथवा आत्मबलिदान को
सत्याग्रह की आत्मा का नाम दिया है। गांधीजी की मान्यता थी कि सत्याग्रही जिस बात
को सत्य व न्यायोचित मानता है, उसे उसके लिए अपने आप को
पीड़ित करना चाहिए, अपने तन को कष्ट देना चाहिए, न कि अपने सत्य को मनवाने के लिए अपने विरोधी को सताना, पीड़ित करना या मार डालना चाहिए। .....सत्य पर अडिग रहने के लिए अपना
बलिदान देना तो न्यायोचित है, पर अपने विरोधी का बलिदान लेना
सर्वथा अनुचित है, क्योंकि सत्याग्रही का प्रतिपक्षी तो
सत्याग्रही के कथित सत्य को सत्य मानता ही नहीं। इसके विपरीत यदि सत्याग्रही असत्य
के विरुद्ध अपने संघर्ष में आत्म-बलिदान के रास्ते पर चलेगा और यदि सत्य व न्याय
वास्तव में उसके साथ होगा, तो उसका बलिदान किसी नेक साध्य की
प्राप्ति के लिए नेक साधन के रूप में स्वीकार किया जाएगा। दूसरी ओर यदि वह असत्य व
अन्याय को सत्य व न्याय मानने का हठधर्म कर रहा होगा, तो
उसका बलिदान उसके अपने हठधर्म का उचित दंड होगा। नैतिक नियम भी यही है कि हम अपनी
गलतियों के लिए अपने आप को दंडित करें, न कि अपने विरोधियों
को।[4]
विरोधियों को गलती का अहसास कराना सत्याग्रह द्वारा संभव है।
गांधीजी ने
संघर्ष का लक्ष्य सदा बुराई को बनाया है, न कि बुरे अथवा बुराई करने वालों को। उनकी मान्यता थी कि
यदि हम उस व्यक्ति के जो, किसी कारणवश,
हमारा विरोधी हो गया है, विरोध का कारण जान लें और उसे दूर
कर दें, तो हमारा विरोध अथवा विपक्षी हमारा दुश्मन न रहकर, संभवत: हमारा दोस्त बन जाएगा। गांधीजी टालस्टाय के इस कथन से सहमत थे कि
यदि घृणा करनी ही हो तो पाप से करनी चाहिए, न कि पापी से।
यदि पापी का पाप समाप्त हो जाएगा, यदि पापी पाप का साथ छोड़
देगा तो वह पापी न रहेगा, वह सुधार जाएगा, पुण्यात्मा हो जाएगा। दूसरी ओर, यदि पापी की पाप से
मुक्ति कराने के बजाए उसे यातना दी जाए, अथवा उसकी हत्या कर
दी जाए, तो उससे उसका पाप समाप्त नहीं होगा, उसका रुख और कड़ा हो जाएगा, वह निष्ठुर हो जाएगा।
इसलिए विपक्षी को सताने, पीड़ित करने या उसकी हत्या करने के
बजाय, उसकी पाप से मुक्ति करानी चाहिए,
जिससे उसका पाप समाप्त हो जाए, उसकी सोच बादल जाए, वह अपने विवेक व आत्मा की आवाज के अनुसार चलने लग जाए, अपने पाप को पहचान ले और उसका साथ छोड़ कर, अपनी
दैविक, तार्किक व सामाजिक प्रकृति का अनुसरण करके, एक नेक इंसान की तरह जीवनयापन करने लग जाये। ऐसा करने से उसका हृदय
परिवर्तन हो जाएगा। वह अपराधी अथवा पापात्मा से पुण्यात्मा हो जाएगा, प्रतिपक्षी से सहपक्षी और फिर मित्र हो जाएगा।[5]
सत्याग्रह किसी नीति, कानून, व्यवस्था
अथवा व्यवहार विशेष के विरुद्ध संघर्ष तक ही सीमित नहीं है। अपने व्यापक रूप में, सत्याग्रह सोचने और जीने का एक ऐसा मार्ग है जो हमें आत्म-त्याग व
अनेकानेक न्यायोचित तथा अहिंसक साधनों के द्वारा तथा न्याय के रास्ते पर प्रशस्त
करता है, असत्य, अन्याय व बुराई पर वार
करता है तथा विरोध अथवा तथाकथित शत्रु का हृदय परिवर्तन करके उसे पहले सहपक्षी तथा
अंत में मित्र बना देता है। जेम्स लूथर एडम्स ने गांधी के सत्याग्रह को एक ऐसा
सिद्धान्त व साधन माना है, जिसमें निम्नलिखित विशेषताएं हैं[6]-
क.
अहिंसा पर आधारित
ख.
गोपनीयता का अभाव
ग.
अन्याय पर आधारित कानून में संशोधन अथवा उसकी समाप्ती के लिए किया जाए तथा
घ.
जिसमें सत्याग्रही कानून की अवहेलना के लिए प्रस्तावित दंड को सहर्ष
स्वीकार करने के लिए तत्पर हो।
इस
तरह जेम्स लूथर एडम्स ने सत्याग्रही को सत्याग्रह करने से पहले की चिंतन से अवगत
कराया है।
जॉन
बान्डयूरैन्ट ने गांधीजी के सत्याग्रह व दुराग्रह में मौलिक विभेद को स्वीकार किया
है। उनके अनुसार दुराग्रही सत्य, न्याय व सदाचार पर अपना एकाधिकार साबित करने का प्रयत्न करता है। वह यह
समझता है कि वह सही है, गलत हो ही नहीं सकता है और दूसरी ओर
उसका विरोध करना गलत है, सही हो ही नहीं सकता है। वह अपने
विरोधी अथवा विपक्षी को स्पष्टीकरण का अवसर दिए बिना ही उसकी बात अथवा व्यवहार को
अपने पूर्व-निर्णय के आधार पर पहले ही गलत अथवा अनुचित मान लेता है और उस पर
आक्रमण कर देता है। सत्याग्रही के मुक़ाबले में दुराग्रही के सोचने तथा संघर्ष करने
का तरीका तर्क पर आधारित न होकर, पूर्व-निर्णय के सिद्धान्त
पर आधारित होता है।[7]
दूसरी ओर दुराग्रही के मन में (गलत होने पर भी) एक प्रकार का डर भी सताता है उसको
लगता है कि यदि सत्याग्रही की बातों को मान लेते है तो समाज में मेरी इज्जत न होकर
सत्याग्रही की इज्जत करने लगेंगे मेरी प्रतिष्ठा धूमिल हो जाएगी। इसीलिए दुराग्रही
अपने विपक्षी को अपना शत्रु मान लेता है, बुराई का पुतला मान
लेता है तथा बुराई पर हमला करने के बजाय, बुरे पर हमला करता
है। वह उसको सताता है, ब्लैकमेल करता है, उसे नीचा दिखाने और उसे अंतत: हराने के लिए हर संभव प्रयत्न करता है तथा
उसे अपनी बात समझाने व कहने का अवसर भी नहीं देता है।[8]
दूसरी और सत्याग्रही ये मान कर चलता है कि उसका विरोधी सही हो सकता है ओर वह स्वयं
गलत हो सकता है। यही मान कर वह अपने विरोधी को न केवल अपना पक्ष समझाता है, बल्कि उसका पक्ष भी सुनने, समझने तथा जहां तक संभव
हो स्वीकार करने के लिए तत्पर रहता है। वह अपने विपक्षी को उसके पक्ष की संभावित
विकल्प प्रस्तुत करता है जो उसे स्वीकार करने का अवसर देता है और उसके सामने ऐसे
सत्याग्रही अपने तथाकथित शत्रु को मित्र बनाने का भरसक प्रयत्न करता है, जिससे दोनों मिलकर बुराई व अन्याय का मुक़ाबला कर सकें।[9]
इस तरह सत्याग्रह सत्य की राह है जिसपर चलकर अन्याय का प्रतीकार किया जाता है।
संपर्क:
अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र, 442005, मो. नं. 9763710526, ई-मेल chandankumarjrf@gmail.com
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