- चन्दन कुमार, एस आर एफ(यूजीसी)
पी -एच. डी. ,अहिंसा
एवं शांति अध्ययन विभाग
महात्मा
गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा.
सत्याग्रह
का प्रयोग न केवल अत्याचारी अथवा अन्यायी सरकार अथवा उसके काले क़ानूनों के विरुद्ध
किया जा सकता है, बल्कि सामाजिक व्यवस्थाओं, परिस्थितियों व
परिपाटियों के विरुद्ध भी किया जा सकता है, क्योंकि वो भी
काले क़ानूनों की तरह दोषपूर्ण अथवा अन्याय पर आधारित हो सकते हैं।[2]
गांधीजी के सत्याग्रह का प्रयोग केवल उन मामलों में किया जा सकता है जो निजी न
होकर, सामुदायिक, सामूहिक अथवा
सार्वजनिक हित के हों, क्योंकि सत्याग्रह में स्वार्थ का कोई
स्थान नहीं है। सत्याग्रह केवल समान हितों की प्राप्ति के लिए किया जा सकता है।
सत्याग्रह का प्रयोग केवल उन हालातों में किया जा सकता है जहां किसी से कोई ऐसा
काम करने को कहा जाए जो अनैतिक अथवा अन्यायपूर्ण हो और जो किसी के विवेक अथवा
आत्मा को स्वीकार्य न हो। साइमन पैंटरब्रिक के अनुसार,
“गांधी ने स्वयं सत्याग्रह का प्रयोग उन हालात में किया जिनमें सरकार ने ऐसे कानून
अथवा आदेश जारी किए जो लोगों को अनुचित, अनैतिक अथवा
अन्यायपूर्ण कार्य करने को उकसाते थे”[3]
फिर भी जब-जब सरकार ने लोगों को भड़काने वाले आदेश या काला कानून बनाए या उन पर
अनुचित प्रतिबंध लगाए तो ऐसे मौकों पर गांधीजी ने सत्याग्रह आंदोलन का श्री गणेश
किया।
सत्याग्रह के प्रतिनिधि की योग्यतायें
सत्याग्रह
आंदोलन शुरू करने से पहले रणनीति का होना आवश्यक होता है उसी रणनीति की कड़ी में
सत्याग्रह संचालक का होना आवश्यक होता है जिससे सत्याग्रह आंदोलन को मूर्तरूप देने
में आसानी होती है। गांधीजी मानते थे कि अपने विवेक और आत्मा का अनुसरण करने वाला
कोई भी व्यक्ति सत्याग्रह आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग ले सकता है, लेकिन जहां तक सत्याग्रह
आंदोलन के संचालक का प्रश्न है, उसमें कार्य सुयोग्य, सुशिक्षित तथा प्रशिक्षित व्यक्ति के हाथ में होना चाहिए। ऐसे व्यक्ति के
हाथ में जिसकी सत्याग्रह के आधारभूत सिद्धांतों में आस्था हो, जिसने सत्याग्रह साधनों का प्रशिक्षण प्राप्त किया हो तथा जिसे सत्याग्रह
का प्रत्यक्ष अनुभव हो। गांधीजी ने अपने स्वयं के अनुभव एवं ज्ञान के आधार पर
सत्याग्रही की योग्यताओं तथा गुणों को रेखाकित किया है जिनमें सर्वप्रमुख हैं[4]-
क.
वह या तो स्वयं भुक्तभोगी हो अथवा भुक्तभोगियों का आमंत्रित तथा अधिकृत
प्रतिनिधि हो।
ख.
सत्य एवं अहिंसा में मन, वचन और कर्म से आस्था हो।
ग.
वह गीता में वर्णित स्थितप्रज्ञ सा हो अथवा सुख-दुख, हार-जीत जैसी परिस्थितियों में
विचलित होने वाला न हो।
घ.
वह सामान्यत: कानूनों का पालन करने वाला नागरिक हो।
ङ.
वह जागरूक, अनुशासनशील तथा सत्याग्रह के सिद्धांतों तथा रणनीति में पूर्णत:
प्रशिक्षित हो।
च.
वह दयाभाव, परमार्थ तथा आंतरिक एवं बाह्य भद्रता से ओत-प्रोत हो तथा लोभ, मोह, क्रोध, लालच, कामुकता, घमंड तथा असत्य से परे हो।
छ.
वह विवेक, आत्मा, वाद-विवाद, आत्मपीड़न व
आत्मबलिदान के मार्ग पर चलकर एक ऐसे विकल्प की खोज में हो जो अंतत: सभी को
स्वीकार्य हो।
ज.
वह अपने तथा अपने प्रतिपक्षी के परस्पर पक्षों के गुण व दोषों का सामूहिक
रूप से विश्लेषण करे। किसी से कुछ छिपाए नहीं और जैसे ही उसे अपनी गलती का अहसास
हो जाए, उसे दूर करने व सुधार करने के
लिए तत्पर रहें।
झ.
वह अपने प्रतिपक्षी की कमजोरी या मजबूरी का अनुचित फायदा उठाने की कोशिश न
करे। तथा
ञ.
वह ऐसा कोई कदम न उठाए जो सत्याग्रह के मौलिक सिद्धांतों के विपरीत हो।
गांधीजी
प्रत्येक सत्याग्रही में ये सारे लक्षण मौजूद देखना चाहते थे, फिर भी यदि संभव ना हो सके तो
सत्याग्रह आंदोलन के नेता में ये सारे लक्षण का मौजूद रहना आवश्यक है। तभी सही
अर्थों में सत्याग्रह हो सकेगा। इस तरह सत्याग्रही विभिन्न नियम के तहत बंधा रहता
है।
संपर्क: अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र, 442005, मो. नं. 9763710526,
ई-मेल chandankumarjrf@gmail.com
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