Saturday, 5 September 2015

लोकतंत्र, सत्याग्रह और गांधी


- चन्दन कुमार, एस आर एफ (यूजीसी)
पी -एच. डी. ,अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा.
लोकतंत्र के लिए सत्याग्रह जीवन अमृत है, अच्छी शासन व्यवस्था को कायम रखने के लिए। लोकतंत्र शासन की एक प्रणाली है और शासन कि किसी भी अन्य प्रणाली की तरह उसके भी अपने गुण-दोष होते है। लोकतांत्रिक सरकार स्वेच्छाचारी, भ्रष्ट और केंद्रित व्यवस्था का समर्थक होने पर जनता की स्वतंत्रता और गरिमा खतरे में पड़ जाती है, जिसके फलस्वरूप गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई, भूखमरी, भ्रष्टाचार, घूसख़ोरी, कालाधन, अमीर-गरीब के बीच की चौड़ी खाई जैसी समस्या समाज में व्याप्त होने लगती है। इन समस्याओं से लोकतांत्रिक सरकार को रूबरू कराने या व्यवस्था परिवर्तन के लिए सत्याग्रह की आवश्यकता अनिवार्य हो जाती है क्योंकि लोकतंत्र में सत्याग्रह के सिवाय कोई दूसरा अहिंसक रास्ता अभी तक नहीं है। सत्याग्रह न तो लोकतंत्र का प्रतिवाद है और न उसके प्रतिवाद के रूप में इसके प्रयोग की समाज से सहयोग मिलता है। लोकतंत्र में सत्याग्रह की आवश्यकता तब नहीं हो सकती जब इसमें भ्रष्टाचार और व्यक्ति को पीड़ित करने या कराने की न कोई जगह बचता हो, जो वास्तव में असंभव जान प्रतीत होता है। गांधी जी का कहना है कि “मैं प्रत्येक नागरिक को यह बात मालूम कर दूँ कि सविनय प्रतिकार उनका जन्मसिद्ध अधिकार है। इसको खोना मानो मानत्व को खोना है।” जब लोकतंत्रिय व्यवस्था भ्रष्ट और कानूनहीन होने लगता है तो सत्याग्रह जनता का पवित्र कर्त्तव्य बन जाता है।
गांधीजी का मानना है कि लोकतन्त्र का अर्थ सभी की आम भलाई के लिए लोगों के सभी वर्गों के समस्त भौतिक, आर्थिक और आध्यात्मिक संसाधनों के जुटाव की कला तथा विज्ञान से है। गांधीजी लोकतंत्र में प्रचलित संसदीय प्रणाली में अविश्वास व्यक्त 1909 में ही हिन्द स्वराज नामक पुस्तक में व्यक्त किया था। गांधीजी ने संसदों की जननी ब्रिटिश संसद की कटु आलोचना करते हुए बांझ और बेसवा कहा है। बांझ इसलिए की उसने कभी कोई अच्छा काम अपने आप नहीं किया। अगर उस पर ज़ोर दबाव डालने वाला कोई न हो तो वह कुछ भी न करे, ऐसी उसकी कुदरती हालत है और वह बेसवा इसलिए की जो मंत्री-मंडल उसे रखे उसके पास वह रहती है। संसद पर दबाव डालकर अच्छा काम सत्याग्रह द्वारा ही किया जा सकता है। गांधीजी का मानना है कि यदि मतदाता समझदार हैं और अच्छे-से-अच्छे सदस्य चुनकर संसद में भेजते हैं तो ऐसी संसद को प्रार्थना-पत्रों अथवा दबाव की जरूरत नहीं होनी चाहिए। ऐसी संसद का काम तो इतना अच्छा होना चाहिए कि दिन-प्रतिदिन उसका तेज बढ़ता नजर आए और लोगों पर उसका असर पड़ता जाये, लेकिन इसके विपरित संसद के सदस्य दिखावटी और स्वार्थी होते हैं। अपना मतलब साधने की सोचते हैं। संसद में बहुत अधिक अस्थिरता पाई जाती है और यही कारण है कि उसके फैसलों में पक्कापन नहीं होता। आज का फैसला कर रद्द कर दिया जाता है और सभ्भवत: अभी तक एक बार भी ऐसा नहीं हुआ कि संसद ने कोई काम करके उसे अंत तक पहुंचाया हो। जो आज के समय में भी देखने को मिलता है। गांधीजी ने प्रधानमंत्री के नेतृत्व पर संदेह व्यक्त करते हुए हिन्द स्वराज नामक पुस्तक में लिखा है कि प्रधानमंत्री को पार्लियामेंट की थोड़े ही परवाह रहती है। वह तो अपनी सत्ता के मद में मस्त रहता है। अपना दल कैसे जीते इसी की लगन उसे लगी रहती है। पार्लियामेंट सही काम कैसे करे, इसका वह बहुत कम विचार करता है। जिसे हम घूस कहते हैं वह घूस वे खुल्लमखुल्ला नहीं लेते-देते। वे दूसरों से काम निकालने के लिए उपाधि बैगरा की घूस बहुत देते हैं। उनमें शुद्ध भावना और सच्ची ईमानदारी नहीं होती।जिसके कारण सरकारी व्यवस्था ऊपर से लेकर नीचे तक भ्रष्टाचार में अकंट डूब जाता है।
            इस तरह जब लोकतन्त्र में सारी प्रक्रिया जनता के शोषण पर आधारित हो जाती है। तब लोकतन्त्र में सत्याग्रह अनिवार्य हो जाता है।




 संपर्क: अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, पंचटीला वर्धा, महाराष्ट्र (442005), मो. 9763710526, ई-मेल chandankumarjrf@gmail.com    

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