Saturday, 29 August 2015

अरस्तू एक अध्ययन

अरस्तू एक अध्ययन
       - चन्दन कुमार, एस आर एफ (यूजीसी)
पी -एच. डी. ,अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा.
अरस्तू को राजनीति शास्त्र का जनक से जानते है, लेकिन अरस्तू दास प्रथा के उत्प्रेरक है। अरस्तू प्लेटो के शिष्य थे, 20 वर्षों तक शिक्षा पायी थी। अरस्तू का जन्म मेसीडोनिया सागर के किनारे स्थित स्टेगिरा नामक ग्रीक उपनिवेश में 384 ईस्वी पूर्व में हुआ था। अरस्तू की महानता हमें उनके जीवन में नहीं देखने को मिलती है, उनकी लेखन कृतियों में देखने को मिलती है। अरस्तू का मानना है कि, जो समाज में नहीं रहता वह देवता है अथवा दानव।
अरस्तू ने राज्य की उत्पत्ति के तीन चरण बताए हैं। पहला, परिवार एवं राज्य की उत्पत्ति, जिसमें उनका मानना है कि, राज्य के अस्तित्व में आने की प्रक्रिया में परिवार पहली इकाई है। दूसरा, गाँव एवं राज्य की उत्पत्ति, जिसमें उनका मानना है कि, राज्य की उत्पत्ति में गाँव दूसरा स्तर है। तीसरा, राज्य, जिसमें उनका मानना है कि, विकास की इस प्रक्रिया में तीसरा चरण राज्य का होता है। जब कई गाँव इकट्ठे होते हैं, तब राज्य का निर्माण होता है। राज्य के स्वरूप के बारे में अरस्तू का मानना है कि, राज्य एक स्वाभाविक संस्था है, राज्य का स्थान परिवार से पहले है, राज्य एक सर्वोच्च व आत्मनिर्भर समुदाय है, राज्य का स्वरूप जैविक है। राज्य के उद्देश्य के बारे में अरस्तू का मानना है कि, राज्य का अस्तित्व केवल जीवन के लिए नहीं, वरन अच्छे जीवन के लिए है। कई विद्वानों ने अरस्तू के राज्य विषयक मूल्यांकन किया है, जिसमें मानना है कि, परिवार को मानव संगठन की पहली इकाए मानना त्रुटिपूर्ण है। परिवार का उद्भव बाद में हुआ जब लोगों में सार्वजनिक नैतिकता की भावना पैदा हुई और उन्होंने उस प्रारंभिक जीवन के ढंग को त्याग दिया, जिसमें स्त्री व पुरुष पशुओं की तरह परस्पर मिलते थे। आकस्मिक व अस्थायी संसर्ग करके यह जाने बिना अलग हो जाते थे और बाद में इसका कोई पता नहीं रहता था कि उससे संसर्ग से होने वाली संतान के माता-पिता कौन थे। राज्य को मानव शरीर ही मान लेना अनुचित है। राज्य की वेदी पर व्यक्ति का बलिदान करना अरस्तू की भूल है। राज्य के उद्देश्य व कार्य संबंधी विचार अस्पष्ट हैं।
दासता संबंधी अरस्तू के विचार अमानुषिक एवं प्रतिक्रियावादी हैं। अरस्तू मानते है कि, प्रकृति द्वारा कोई भी बेमतलब काम नहीं किया जाता है। प्रकृति लोगों को शासक और शासित की श्रेणी में बांटती है। ये क्षमता सबमें नहीं बल्कि कुछ ही लोगों में पाई जाती हैं। इनके बीच की यह असमानता न्यायपूर्ण है। अरस्तू का यह मानना है कि, दासों और सेवकों का होना उसी प्रकार स्वभाविक व आवश्यक है जिसप्रकार संतान उत्पादन के लिए स्त्री का होना। दास का यंत्र से तुलना अरस्तू करते है। दास का गुण सिर्फ आज्ञा पालन का होना चाहिए। दासता का औचित्य इसलिए मानते है कि प्रकृति में जन्मजात असमानता है। यह प्राकृतिक वास्तविकता है, स्वामी वर्ग की आवश्यकता के लिए दास वर्ग का होना जरूरी है।
अरस्तू के शिक्षा विचार में शिक्षा का अर्थ नागरिकों को संविधान के अनुसार जीवन व्यतीत करने की शिक्षा देने से है। अरस्तू स्त्रियों की शिक्षा की बात करते है, लेकिन पुरुषों जैसी शिक्षा देने की बात नहीं करते है, क्योंकि दोनों के कार्य क्षेत्र अलग-अलग है। स्त्रियों द्वारा राजनीति में भाग लेने का समर्थन करते है। शिक्षा को तीन क्रम में बांटते हुए पहला क्रम में 1 से 6 वर्ष के बच्चे को रखा है जिसमें भोजन व्यवस्था तथा शारीरिक विकास की बात करते है। द्वितीय क्रम में 7 से 14 वर्ष के बच्चों को रखा है, जिसमें बच्चे लिखना-पढ़ना, चित्रकला, संगीत जैसे विषय सीखें। तृतीय क्रम में 14 से 21 वर्ष के बच्चों को रखा है, जिसमें बच्चों का चारित्रिक और मानसिक विकास हो।
शासनों का वर्गिकरण अरस्तू ने इस प्रकार किया है। जब शासन एक व्यक्ति, कुछ व्यक्तियों अथवा बहुसंख्यक व्यक्तियों द्वारा सामान्य हित साधना की दृष्टि से किया जाता है, तो वह शासन का शुद्ध रूप होता है, पर जब शासन चाहे वह व्यक्ति का हो, या कुछ व्यक्तियों का हो अथवा बहुसंख्यक व्यक्तियों का हो, सार्वजनिक हित की साधना की दृष्टि से नहीं किया जाता है, तो उसका रूप विकृत शासन का होता है। राज्य व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के तीन सिद्धान्त दिए है। पहला, जब एक व्यक्ति के हाथ में सत्ता होती है उसे राजतंत्र कहा है जो राज्य का विशुद्ध रूप है। जब यह विकृत हो जाता है तब अत्याचारी शासन में तब्दील हो जाता। दूसरा, कुछ व्यक्तियों द्वारा जब सत्ता धारण किया जाता है तो राज्य का विशुद्ध रूप कुलीन तंत्र कहलाता है। जब यह विकृत हो जाता है तब यह वर्ग तंत्र या गुट तंत्र का रूप ग्रहण कर लेता है। तीसरा, जब समस्त या अधिकांश व्यक्ति के हाथ में सत्ता आती है, तो राज्य का शुद्ध रूप वैधानिक राजतंत्र का होता है, लेकिन जब यह विकृत हो जाता है तो वह भिड़तन्त्र में तब्दील हो जाता है। इस तरह अरस्तू का मानना है कि शासन का कोई भी रूप स्थायी नहीं है परिवर्तन का स्वरूप चक्रिय होता है। शासन के तीनों रूपों में से अरस्तू ने राजतंत्र को शासन का आदर्श रूप माना है। जो व्यक्ति सर्वगुण संपन्न हो और जो राज्य की सब प्रजा के विविध रूपों से ज्ञात हो ऐसे व्यक्ति को सच्चे रूप से मनुष्यों में ईश्वर माना जा सकता है। निर्धनता को क्रांति एवं अपराध की जननी मानते है। निर्धनों की संख्या अधिक होने पर राज्य का अंत शीघ्र हो जाता है।
संपत्ति संबंधी विचार में अरस्तू का मानना है कि, संपत्ति व धन को घर एवं राज्य के लिए उपयोगी है। संपत्ति गृहस्थी का भाग होता है इसलिए संपत्ति गृहस्थों के लिए अर्थशास्त्र है। अच्छा जीवन जीने के लिए संपत्ति का होना आवश्यक है। अरस्तू संपत्ति कि अत्यधिक असमानता को उचित नहीं मानते है, इसे वर्ग-विद्वेष फैलाने वाला भी मानते है।

इस तरह अरस्तू के विचार अपने है जो समाज को समझते हुए उन्होंने दिए हैं। 

संपर्क: संस्कृति विद्यापीठ, अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र. (442005) मो.- 09763710526;ईमेल:chandankumarjrf@gmail.com

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