- चन्दन कुमार, एसआरएफ(यूजीसी)
पी -एच. डी. ,अहिंसा
एवं शांति अध्ययन विभाग
महात्मा
गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा.
मो.-09763710526 ; ई मेल:chandankumarjrf@gmail.com
सर्वोदय मानव जाति का साध्य एवं साधन है
रस्किन की पुस्तक ‘अंटू दिस लास्ट’ 1904
में पोलक ने जोहान्सबर्ग से डरबन की रेल यात्रा में गांधीजी को जाने से पहले पढ़ने
को दी थी। आत्मकथा में गांधीजी ने लिखा है कि इस पुस्तक को हाथ में लेने के बाद
मैं छोड़ ही न सका। इसने मुझे जकड़ लिया। ट्रेन शाम को डरबन पहुंची। सारी रात मुझे
नींद नहीं आई। इसी क्रम में आगे इस पुस्तक के बारे में कहते है कि, पहली बात मैं जानता था, दूसरी बात धुंधली रूप में
मेरे सामने थी, पर तीसरी बात का तो मैंने विचार ही नहीं किया
था। ‘अनटू दिस लास्ट’ पुस्तक ने सूर्य
के प्रकाश की भांति गांधीजी के समक्ष यह बात स्पष्ट कर दी कि पहली बात में ही
दूसरी और तीसरी बातें भी समायी हुई हैं। गांधीजी ने 1908 में इस पुस्तक का गुजराती
में अनुवाद कर सर्वोदय नामक पुस्तक लिखी।
सर्वोदय का दर्शन धर्म
ग्रन्थों के उद्गारों में भी देखने को मिलता है। वेद सभी प्राणियों के उदय की बात
करता है। ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:, सर्वे संतु निरामया:, सर्वे भद्राणि पश्यंतु, मा कश्चित दु:ख भाग भवेत’ में सर्वोदय का ही भाव
छिपा है। इशावास्योपनिषद के प्रथम श्लोक ‘ईशावास्यमिदम सर्वं
यत किंचित जगत्यांजगत। तेन त्यक्तेन भुंजीथा: मा ग्रीध: कश्यश्चिदधनम’ तथा गीता के ‘आत्मवत सर्वभूतेषु’ और ‘सर्वभूत हितो रता:’ में
सर्वोदय का ही भाव है। स्पष्ट रूप से सर्वोदय का प्रयोग सर्वप्रथम जैनाचार्य समंत
भद्र ने ‘सर्वोदय-तीर्थ के रूप में किया था।[3] सचमुच में सर्वोदय का विचार नया
नहीं लेकिन आधुनिक युग में सर्वोदय शब्द का व्यापक प्रयोग एवं सर्वोदय का कार्य
गांधीजी द्वारा प्रारंभ किया गया। गांधीजी ने सर्वोदय को तीन वाक्यों में
सूत्रबद्ध करने का प्रयास किया है-
क. सबों की भलाई में ही अपनी भलाई है।
ख. नाई और वकील के काम का समान मूल्य है। क्योंकि प्रत्येक
व्यक्ति को व्यवसाय द्वारा आजीविका चलाने का समान अधिकार है।
ग. किसान, कारीगर
और मजदूर का जीवन ही सच्चा जीवन है।
गांधीजी इन सिद्धांतों पर अमल
करते हुए कार्य करते रहे। गांधीजी का कहना है कि मैं अनटू दिस लास्ट वाक्यांश के
निहितार्थ का समर्थक हूँ। इस पुस्तक ने मेरे जीवन की दिशा ही बदल दी। हमें दुनिया
से जो कुछ चाहिए, वह पहले
हम खुद दुनिया के दिनतम व्यक्ति को उपलब्ध कराएं। सभी व्यक्तियों को समान अवसर
मिलना चाहिए। अवसर मिले तो प्रत्येक व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास की एक जैसी
संभावना है।[4] जबकि आज के संदर्भ में देखे तो
कुछ ही लोग सारी वर्चस्व का एकाधिकारी है। सर्वोदय का दर्शन समग्र जीवन के लिए
निरपेक्ष और सार्वभौम होता है।
सर्वोदय की दृष्टि से जीवन
विज्ञान भी है, कला भी। जीवमात्र के
लिए, प्राणिमात्र के लिए समादर,
प्रत्येक के प्रति सहानुभूति ही सर्वोदय का मार्ग है। जीवमात्र के लिए सहानुभूति
का यह अमृत जब जीवन में प्रवाहित होता है, तो सर्वोदय की लता
में सुरभिपूर्ण सुमन खिल उठते हैं।[5] सर्वोदय कहता है कि तुम दूसरों
को जिलाने के लिए जियो। मैं तुम्हें जिलाने के लिए जीऊँ। तभी और केवल तभी सबका
जीवन सम्पन्न होगा, दूसरों को अपना बनाने के लिए प्रेम का
विस्तार करना पड़ता है, इसके लिए अहिंसा का विकास करना पड़ता
है। सामाजिक मूल्यों में परिवर्तन करना पड़ता है। सर्वोदय जीवन के शाश्वत और व्यापक
मूल्यों की स्थापना चाहता है और बाधक मूल्यों का निराकरण। सर्वोदय वर्ग-विहीन, जाति-विहीन और शोषण-विहीन समाज की स्थापना का ब्रह्मास्त्र है। जिसके
द्वारा प्रत्येक व्यक्ति और समूह के सर्वांगीण विकास का मार्ग प्रसस्त करता है।
सर्वोदय कहता है- ‘जो तोकूँ कांटा बुवै,
ताहि बोउ तू फूल’ पत्थर का जवाब पत्थर से देने में, अत्याचार का प्रतीकार अत्याचार से करने में, खून के
बदले खून बहाने में कौन-सी क्रान्ति है? क्रान्ति तो है दुश्मन
को गले लगाने में, क्रान्ति तो है अत्याचारी को क्षमा करने में, क्रान्ति तो है गिरे हुए को ऊपर उठाने में और इस क्रान्ति का साधन है- ह्रदय-परिवर्तन, जीवन-शुद्धि, साधन-शुद्धि और प्रेम का अधिकतम विस्तार।[6] ‘ईशावास्यमिदं
सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत’ में लोगों का विश्वास बढ़ने लगेगा
तो हमलोगों की दृष्टि में बदलाव निश्चित है। फिर न तो किसी से द्वेष करने का प्रसंग
उठेगा, न किसी से मत्सर। किसी को सताने, किसी का शोषण करने, किसी के प्रति अन्याय करने का प्रश्न
ही नहीं उठेगा। ‘जो तू है, वही मैं हूँ!’ यह भाव आते ही सारे भेदभाव दूर खड़े झख मारेंगे। घर में, परिवार में हम जैसे प्रेम से रहते हैं, हँसते-हँसते
जैसे दूसरों के लिए कष्ट उठाते हैं, हर व्यक्ति की सुख-सुविधा
का जैसे ध्यान रखते हैं, वैसे ही हम सारे विश्व का, मानवमात्र का, प्राणिमात्र का ध्यान रखेंगे। ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की भावना हमारी रग-रग में भीद जाएगी।[7] सर्वोदय मानवीय विभूति के विज्ञान
में विश्वास करता है। मानव भी उसके लिए विभूति है, सृष्टि भी, देश-काल भी। वह मानता है- फलनिरपेक्ष कर्तव्य हमारा धर्म है। उसकी मान्यता
है- मेहनत इंसान की, दौलत भगवान की। मेहनत करना हमारा कर्तव्य
है, फल समाज का। ‘समाजाय इदं न मम’ और ‘तेन त्यक्तेन भून्जीथा:’ उसका
आदर्श है। वह पड़ोसी के लिए जीने की, पड़ोसी के लिए उत्पादन करने
की और पड़ोसी का सुख-दु:ख बांटने की कला सिखाता है। वह यह मानता है कि हर बुरे आदमी
में अच्छाई होती है। वह हर व्यक्ति के दैवी तत्त्वों के विकास में विश्वास करता है।
उसकी मान्यता है कि पाप से घृणा करनी चाहिए, पापी से नहीं। उसकी
दृष्टि में कोई छोटा नहीं, कोई बड़ा नहीं, कोई ऊंचा नहीं, कोई नीचा नहीं। सबका सर्वांगीण विकास
उसका लक्ष्य है और प्राणिमात्र से तादात्म्य उसका साधन।[8]
लोकतंत्र, शस्त्र-सत्ता और धन-सत्ता सारी मानव जाति के
कल्याण में असफल होता जा रहा है। यंत्र और विज्ञान ने घुटने टेक दिए है उन परिस्थिति
में सर्वोदय दर्शन ही एक मात्र उपाय है। मानव जिन प्रक्रियाओं का, जिन पद्धतियों का प्रयोग कर चुका है, उनके आगे का कदम
सर्वोदय है। सृष्टि जिस रूप से हमारे सामने रही, उसको समझने का
काम लगातार वैज्ञानिकों एवं दार्शनिकों ने साक्षात्कार एवं शोध के माध्यम से किया है।
परंतु विश्व को परिवर्तित करने का कार्य न तो दार्शनिक ने किया और न वैज्ञानिक ने।
अर्थशास्त्री ने भी वह कार्य नहीं किया। वह किया राज्यनेता ने- जो न तो दार्शनिक ही
था, न वैज्ञानिक। जो लोग दर्शनमूढ़ थे, विज्ञानमूढ़
थे, उन्होंने ही समाज और सृष्टि को बदलने का काम अपने हाथों में
लिया। परिणाम यही है कि, आज दार्शनिक अलग है, वैज्ञानिक अलग है, वैनागरिक अलग है। परंतु ऐसा विभाजन-भेद
गलत है, कृत्रिम है, अवैज्ञानिक है, अप्राकृतिक है। इस द्वैत में से अद्वैत का, इस भेद में
से अभेद का निर्माण हो नहीं सकता। जब तक अद्वैत और अभेद की स्थापना नहीं होती, समग्रता की दृष्टि से मानव के व्यक्तित्व के विकास की चेष्टा नहीं की जाति, तब तक न तो ये भेद मिटनेवाले हैं और न सच्ची लोकसत्ता का निर्माण होने वाला
है।[9] सर्वोदय का विचार सबों को समाहित
कर चलता है।
सर्वोदय की पृष्ठभूमि आध्यात्मिक
है। विज्ञान में एसी बात नहीं। विज्ञान अपने आविष्कारों से जनता को अनेक सुविधाएं प्रदान
कर सकता है। वह भौतिक सुखों की व्यवस्था कर सकता है;...पर हर स्त्री को हर पुरुष की बहन बना देने की क्षमता उसमें नहीं।
विज्ञान जीवन का बाहरी नकशा बदल सकता है, पर भीतरी नकशा बदलना
उसके वश की बात नहीं।[10]
सर्वोदय एसी राजनीति का कायल नहीं
है जिसमे लोभ, मोह, शोषण इत्यादि अवगुण समाहित रहे। वह लोकनीति का पक्षपाती है। राजनीति में जहां
शासन मुख्य है, वहाँ लोकनीति में अनुशासन। राजनीति में जहां सत्ता
मुख्य है, वहाँ लोकनीति में स्वतन्त्रता। राजनीति में जहां नियंत्रण
मुख्य है, वहाँ लोकनीति में संयम। राजनीति में जहां सत्ता की
स्पर्धा, अधिकारों की स्पर्धा मुख्य है, वहाँ लोकनीति में कर्तव्यों का आचरण। सर्वोदय का क्रम यही है कि हम शासन से
अनुशासन की ओर, सत्ता से स्वतन्त्रता की ओर, नियंत्रण से संयम की ओर और अधिकारों की स्पर्धा से कर्तव्यों के आचरण की ओर
बढ़ें।[11] राज्य-सत्ता पुलिस और सेना के
सहारे- शस्त्र-सत्ता के सहारे जीती है, कानून की छत्रछाया में
बढ़ती है, धन-सत्ता के भरोसे पलती-पनपती है और विज्ञान के जरिये
विकसित होती है। परंतु इतने साधनों से सज्जित रहने पर भी वह शत प्रतिशत जनता को सुखी
करने में अपने को असमर्थ पाती है। वह एक ओर अल्पसंख्यकों के प्रति अन्याय न होने देने
का दावा करती है, दूसरी ओर बहुसंख्यकों के हितों की रक्षा का
ढिंढोरा पीटती है। पर अल्पसंख्यक भी उसकी शिकायत करते हैं, बहुसंख्यक
भी। कारण, उसका आदर्श रहता है- अधिक-से-अधिक लोगों का अधिक-से-अधिक
सुख। उसने यह मान लिया है कि सबको तो हम अधिकतम सुख दे नहीं सकते, इसलिए अधिकतम लोगों को यदि हम अधिकतम सुख दे लें। तो हमारा कर्तव्य पूरा हो
गया! हमारी आज की राजनीति इन्हीं आदर्शों पर चल रही है। पर इससे मानव जाति का कल्याण
संभव नहीं[12]
है।
धन की सत्ता ने आज पूरे विश्व
को मोहपास में बांध दिया है। आज पैसे से अस्मत लूट ली जाती है, पैसे पर न्याय बिक रहा है। विश्व का कौन सा
अनर्थ है जो पैसे के बल पर या पैसे के लिए नहीं किया जा रहा है। अन्याय, घोटाला, बईमानी, हिंसा, भ्रष्टाचार, चोरी, डकैती इत्यादि
सबकी जड़ में पैसा है। कंचन की इस माया में पड़कर मनुष्य अपना कर्तव्य भूल गया है, अपना दायित्व भूल गया है, अपना लक्ष्य भूल गया है। पैसे
के कारण श्रम की प्रतिष्ठा मानव-जीवन से जाती रही है। मनुष्य येन-केन प्रकारेण सोने
की हवेली खड़ी करने को आकुल है। पर वह यह बात भूल गया है कि सोने की लंका भस्म होकर
ही रहती है। रावण का गगनचुंबी प्रासाद मिट्टी में ही मिलकर रहता है। अन्याय, शोषण, बेईमानी द्वारा इकट्ठी की गई संपत्ति द्वारा भौतिक
सुख भले ही बटोर लिए जाएँ, उनसे आत्मिक सुख की उपलब्धि हो ही
नहीं सकती। पैसा विश्व के अन्य सुख भले ही जूटा दे, परंतु उससे
आत्मा की प्रसन्नता प्राप्त नहीं की जा सकती[13] है।
सर्वोदय की ओर अग्रसर होने के
लिए सत्य और अहिंसा का मार्ग अपनाना पड़ता है जिसमें गांधीजी के एकादश व्रत अपने-आप
जुड़कर सर्वोदय का मार्ग आसान कर देता है। इसमें दृढ़ इच्छाशक्ति की आवश्यकता होती है।
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