Saturday, 1 August 2015

मैथुन और गांधी


- चन्दन कुमार, एसआरएफ(यूजीसी)
पी -एच. डी. ,अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा.
मो.-09763710526 ; ई मेल:chandankumarjrf@gmail.com


        , दुनिया ईश्वर की लीलाभूमि है एवं उसकी महिमा का प्रतिबिंब है। इसलिए प्रजनन-कार्य को दुनिया की संवृद्धि के हित में नियंत्रित किया जाना आवश्यक है। जो व्यक्ति इस बात को समझता है, वह किसी भी कीमत पर अपनी कामुकता पर नियंत्रण रखता ही है, अपनी संतति के शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक कल्याण के लिए स्वयं को तैयार करता है और इस प्रकार अर्जित ज्ञान से संतति को लाभान्वित करता है। जननेन्द्रिय का एकमात्र और अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य संतानोत्पत्ति है और किसी अन्य प्रयोजन से सहवास करना वीर्य का आपराधिक अपव्यय है और उससे पुरुष और स्त्री को मिलने वाली उत्तेजना को ऊर्जा का वैसा ही आपराधिक अपव्यय[i] है। गांधीजी सहवास को भोग-विलास की वस्तु नहीं मानते हुए उसे सिर्फ संतानोत्पत्ति के लिए सहवास किया जाना मानते है। संतानोत्पत्ति की कामना न हो तो सहवास एक अपराध है।[ii]
 सोने और खाने की तरह ही मैथुन करना गांधीजी मूर्खता की चरम सीमा मानते है। दुनिया का अस्तित्व प्रजनन-कार्य पर निर्भर है
          गांधीजी का मानना है कि, मनुष्य ने विकास के आरंभिक चरण में ही यह जान लिया था कि उसे खाने की खातिर नहीं खाना चाहिए, जैसा कि हममें से कुछ लोग आज भी करते हैं, बल्कि जीवित रहने के लिए खाना चाहिए। आगे चलकर उसने यह जाना कि सिर्फ अपने ही लिए जीने में कोई खूबी या मजा नहीं है, बल्कि उसे अपने साथियों और उनके जरिए ईश्वर की सेवा के लिए जीना चाहिए। इसी प्रकार, जब उसने मैथुन से प्राप्त होने वाली आनंदानुभूति पर विचार किया तो उसने पाया कि अन्य इंद्रियों की भांति जननेन्द्रिय का भी उपयोग और दुरुपयोग है और उसने पाया कि इसका सच्चा कार्य अर्थात सही उपयोग इसे प्रजनन-क्रिया तक सीमित करने में है। उसे लगा कि इसका कोई अन्य उपयोग वीभत्स है जिससे  व्यक्ति तथा प्रजाति, दोनों के लिए बड़े गंभीर परिणाम हो सकते हैं।[iii] गांधीजी कामोत्तेजना को एक सुंदर और उदात चीज मानते है। इसमें लज्जा की कोई बात नहीं होनी चाहिए। इसका प्रयोजन केवल संतानोत्पत्ति ही होना चाहिए। कोई गलत मानसिकता ईश्वर तथा मानवता के विरुद्ध अपराध है।[iv]
          गांधीजी का मानना है कि जनसंख्या की वृद्धि कोई महासंकट नहीं है और न समझा जाना चाहिए। जन्म-दर का हौआ अक्सर खड़ा किया जाता रहा है। असली महासंकट तो कृत्रिम उपायों से उसका नियमन अथवा नियंत्रण है, हम इसे समझें या न समझें। अगर यह सर्वत्र लागू हो गया तो इससे निश्चित रूप से प्रजाति की गुणवत्ता घटेगी। लेकिन ईश्वर की कृपा से, यह कभी सर्वत्र लागू नहीं हो पाएगा। अनचाही संतानों के लिए उत्तरदाई घृणित काम लिप्सा का दंड हमें महामारियों, युद्ध और दुर्भिक्ष के रूप में भुगतना पड़ता है। यदि हम इन तीनों अभिशापों से बचना चाहते हैं तो हमें आत्मनियंत्रण की सर्वश्रेष्ठ विधि को अपनाकर स्वयं को अनचाही संतानों के अभिशाप से भी बचाना चाहिए।[v] गांधीजी आबादी की अधिकता को लेकर संतति-निग्रह के लिए सहमत नहीं है। गांधीजी की राय में उचित भूमि-व्यवस्था, बेहतर कृषि और पूरक उद्योगों के बल पर यह देश दूनी जनसंख्या का भरण-पोषण कर सकता है।[vi]
          गांधीजी को भय है कि, संतति-निग्रह के समर्थक यह मानकर चल रहे हैं कि कामवासना में लिप्त होना  जीवन के लिए आवश्यक है और यह स्वयं में एक वांछनीय चीज है। स्त्री जाति के प्रति जो सरोकार दिखाया जा रहा है, वह अत्यंत दयनीय है। गांधीजी कि राय में कृत्रिम उपायों से संतति-निग्रह के समर्थन में स्त्री जाती के पक्ष को उभारना उसका अपमान करना है। वस्तुस्थिति यह है कि मनुष्य ने अपनी कामलिप्सा के लिए स्त्री को पहले ही काफी नीचे गिरा दिया है, कृत्रिम उपाय उसका दर्जा और भी घाटा देंगे, भले ही इन उपायों के समर्थक की नियत कितनी ही साफ हो।[vii] गांधीजी कृत्रिम उपायों के समर्थकों से अनुरोधपूर्वक कहते हैं कि कृत्रिम उपायों का प्रयोग व्यापक पैमाने पर हुआ तो विवाह-बंधन का विघटन हो गाएगा और उसका स्थान स्वच्छंद प्रेम ले लेगा। अगर पुरुष कामवासना को ही लक्ष्य मानकर उसमें लिप्त रहने लगा तो वह उस समय क्या करेगा जब, मिसाल के तौर पर, उसे काफी दिनों के लिए घर से बाहर रहना हो अथवा लंबी लड़ाई में सिपाही के तौर पर भाग लेने के लिए जाना पड़े अथवा वह विधुर हो जाए अथवा उसकी पत्नी इतनी बीमार हो कि कृत्रिम उपाय का इस्तेमाल करने पर भी वह अपने स्वास्थ्य की हानि किए बगैर पति के साथ सहवास करने की स्थिति में न हो?[viii] गांधीजी को इसमें संदेह नहीं है कि गर्भ-निरोधकों के पक्ष में धुआंधार प्रचार करने वाले अनेक संतति-निग्रह-सुधारक उपकार की भावना से ही इस कार्य में लगे हैं। गांधीजी का अनुरोध है कि वे अपनी अनुचित उपकार-भावना के अनर्थकारी परिणामों पर विचार करें।[ix]
          संतति निग्रह की विधि आत्मनियंत्रण अर्थात ब्रह्मचर्य है। यह एक अचूक एवं सर्वश्रेष्ठ विधि है और उस पर आचरण करने वालों के लिए कल्याणकारी है। यदि चिकित्सा जगत के लिए संतति-निग्रह के कृत्रिम साधनों का आविष्कार करने के बजाए आत्मनियंत्रण के उपायों का पता लगा सकें तो वे मानवता का बड़ा उपकार करेंगे.... संतति-निग्रह के कृत्रिम साधन तो दुराचार को राह देने के समान हैं। इनसे स्त्री-पुरुषों में विवेकहीनता फैलती है। इनके औचित्य को जिस प्रकार रेखांकित किया जा रहा है, उससे उन संयमों का देखते-ही-देखते विघटन हो जाएगा जिन्हें मनुष्य जनमत का लिहाज करते हुए अपनाता है। कृत्रिम साधनों को अपनाने से निश्चय ही लोगों में मूढ़ता और स्नायविक दुर्बलता बढ़ेगी। इलाज बीमारी से भी ज्यादा हानिकारक सिद्ध होगा।[x]
          ईश्वर ने कृपा करके पुरुष को सर्वाधिक शक्तिशाली बीज दिया है और स्त्री को ऐसा उर्वर क्षेत्र दिया है जिसकी तुलना दुनिया के किसी क्षेत्र से नहीं की जा सकती। निश्चित रूप से यह पुरुष की घोर मूर्खता है यदि वह अपनी इस अमूल्य संपत्ति को व्यर्थ बहा दे। उसे अपने महंगे-से-महंगे मोतियों से भी ज्यादा सावधानी के साथ इसकी रक्षा करनी चाहिए। वह स्त्री घोर मूर्ख है जो अपने उर्वर क्षेत्र में पुरुष के बीज को यह जानते हुए भी ग्रहण करती है कि वह उसे व्यर्थ बह जाने देगी। पुरुष और स्त्री, दोनों ही प्रकृति से मिली अपनी क्षमताओं के दुरुपयोग के दोषी माने जाएंगे और प्रकृति उन्हें उनकी अमूल्य संपत्ति से वंचित कर देगी।[xi] अनचाही संतान पैदा करना पाप है, लेकिन गांधीजी इससे भी बड़ा पाप अपने किए के परिणामों से दूर भागने को बताते हुए मर्द को नामर्द बनाने वाली बात कहते है। यदि पुरुष स्त्री की भलाई चाहते हैं तो उन्हें अपने ऊपर नियंत्रण करना चाहिए। स्त्री पुरुष को नहीं लुभाती। वास्तव में, आक्रामक होने के कारण पुरुष ही सही अर्थों में दोषी है और लुभाता भी वही है।[xii] पुरुष को तब तक अपनी पत्नी का स्पर्श करने का अधिकार नहीं है जब तक कि वह संतान न चाहती हो और स्त्री के अंदर इतनी संकल्प-शक्ति होनी चाहिए कि वह अपने पति का भी प्रतिरोध कर सके।[xiii] स्त्री और पुरुष, दोनों को जानना चाहिए कि कामक्षुधा की तुष्टि को संयमित करने से कोई बीमारी नहीं लगती, बल्कि स्वास्थ्य और ओज में वृद्धि होती है बशर्ते कि मन भी शरीर के साथ सहयोग करे।[xiv] जिस प्रकार सत्य और अहिंसा केवल गिनेचुने लोगों के लिए नहीं है बल्कि समूची मानवता के दैनंदिन आचरण के लिए है, ठीक उसी प्रकार आत्मनियंत्रण केवल कुछ महात्माओं के लिए ही नहीं है बल्कि समूची मानवता के लिए है।[xv] गांधीजी वंध्याकरण को कानूनी रूप से थोपने को अमानवीय समझते है। जीर्ण रोगों से ग्रस्त व्यक्तियों के वंध्याकरण को वांछनीय समझते है। लेकिन वे राजी हो तब। वंध्यकरण एक गर्भ-निरोधक है। गांधीजी पुरुषों के वंध्याकरण का विरोध नहीं करते है क्योंकि वे मानते है कि पुरुष ही आक्रामक होता है।  इस तरह गांधीजी मैथुन को संयमित करते हुए मानव को पशुता की श्रेणी से ऊपर उठाकर आध्यात्मिकता की श्रेणी में लाना चाहते है।      





[i] हरिजन; 21-3-1936
[ii] यंग इंडिया; 12-3-1925
[iii] हरिजन; 4-4-1936
[iv] हरिजन; 28-3-1936 
[v] हरिजन; 31-3-1946
[vi] यंग इंडिया; 2-4-1925
[vii] यंग इंडिया; 2-4-1925
[viii] यंग इंडिया; 2-4-1925
[ix] हरिजन; 12-9-1936
[x] यंग इंडिया; 12-3-1925
[xi] हरिजन; 28-3-1936
[xii] यंग इंडिया; 2-4-1925
[xiii] हरिजन; 5-5-1946
[xiv] यंग इंडिया; 27-9-1925   
[xv] हरिजन; 30-5-1936 

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