Thursday, 30 July 2015

गांधी का ब्रह्मचर्य दर्शन

                                                                                                                                                              - चन्दन कुमार, एसआरएफ(यूजीसी)
पी -एच. डी. ,अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा.
मो.-09763710526 ; ई मेल:chandankumarjrf@gmail


        
  गांधीजी प्रयोग धर्मी थे। उनका सत्य ही ईश्वर था। सत्य की प्राप्ति के लिए उनका प्रयोग उनके अंतिम दिनों तक चलता रहा। सत्य की प्राप्ति के लिए गांधीजी का प्रयोग ऐसा प्रयोग था जिसमें जितना वे उतरते गए उनके लिए उतना ही कम प्रतीत होता चला गया। इसलिए वे दुनिया को संदेश के तौर पर कहते है कि, मेरा जीवन ही मेरा संदेश है। गांधीजी द्वारा दिया गया ब्रह्मचर्य सिद्धान्त सत्य की प्राप्ति का साधन है। सत्य की प्राप्ति के लिए हमेशा प्रयोगरत रहे। वे कहते है कि, जब मैं सत्य को खोजता हूँ तो अहिंसा कहती है कि मेरे द्वारा खोजो और जब मैं अहिंसा को खोजता हूँ तो सत्य कहता है कि मेरे द्वारा खोजो। इस तरह गांधी सत्य और अहिंसा कि तुलना ऐसे चकती से करते है जहां यह पता लगाना मुश्किल है कि कौन सा भाग सत्य है और कौन सा भाग अहिंसा। अपनी परिभाषा के अनुसार कभी दावा नहीं किए कि पूर्ण ब्रह्मचर्य की प्राप्ति हुई। वे अग्रसर रहे, अपने विचारों पर उतना नियंत्रण प्राप्त नहीं कर पाए जितना अहिंसा से संबंधित उनके अनुसंधान के लिए आवश्यक था। वे कहते है कि, मेरी अहिंसा को संसर्गज और संक्रामक बनाना है तो मुझे अपने विचारों पर अपेक्षाकृत अधिक नियंत्रण प्राप्त करना होगा।[1] अहिंसा पर पूरा-पूरा अमल करना ब्रह्मचर्य के बिना नामुमकिन है। अहिंसा यानि सब जगह फैला हुआ, सर्वव्यापी प्रेम। जहां पुरुष ने एक स्त्री को या स्त्री ने एक पुरुष को अपना प्रेम दे दिया, वहां उसके पास दूसरे के लिए रहा ही क्या? उसका मतलब यही हुआ कि हम दो पहले, दूसरे सब बाद में। पतिव्रता स्त्री पुरुष के लिए और पत्नीव्रती पुरुष स्त्री के लिए सब-कुछ कुरबान करने को तैयार होगा, इसलिए यह तो साफ है कि उसके द्वारा सर्वव्यापी प्रेम का पालन कभी नहीं हो सकता। वह सारी दुनिया को अपना कुटुंब नहीं ही बना सकेगा, क्योंकि उसका अपना माना हुआ एक कुटुंब मौजूद है या बन रहा है। वह कुटुंब जितना बढ़ता है उतना ही सर्वव्यापी प्रेम में, विश्वप्रेम में खलल पहुंचाता है। सारी दुनिया में ऐसा होता हुआ हम देख रहे हैं। इसलिए अहिंसा-व्रत का पालन करने वाला आदमी ब्याह नहीं कर सकता; तब फिर ब्याह से बाहर के विकारों का तो पुछना ही क्या?[2] पूर्ण त्याग अर्थात पूर्ण ब्रह्मचर्य एक आदर्श स्थिति है। गांधीजी कहते है कि, यदि आपमें ब्रह्मचर्य हासिल कर सकने का साहस नहीं है तो विवाह अवश्य कीजिए, पर कम-से-कम आत्मनियंत्रण से तो रहिए।[3] पूर्ण ब्रह्मचर्य अथवा विवाहित ब्रह्मचर्य उनके लिए है जो आध्यात्मिक अर्थात उच्चतर जीवन जीने के आकांक्षी हों।[4] गांधी जी ने सत्य और अहिंसा व्रत के पालन के लिए  ब्रह्मचर्य व्रत को साधन माना। इसके बिना सत्य की प्राप्ति असंभव है।  
          गांधी जी का ब्रह्मचर्य किताबों से लिया गया नहीं है। गांधीजी अपने और आग्रह पर, इस प्रयोग में सम्मिलित होने वाले अपने साथियों के लिए मार्गदर्शक नियम स्वयं बनाए। न सिर्फ यह कि उन्होंने पूर्वनिर्धारित नियमों को नहीं माना, बल्कि उन्होंने इस कथन को भी नकार दिया कि स्त्री सभी बुराइयों और प्रलोभनों की जड़ है। उनके अंदर जो भी अच्छाई है, उसका श्रेय वे अपनी मां को ही देते है। उन्होंने स्त्री को कभी वासना की तृप्ति का साधन नहीं माना, बल्कि अपनी मां के समान ही पूज्य माना है। वे कहते है कि, पुरुष ही प्रलोभन देता है, पुरुष ही आक्रामक है। स्त्री का स्पर्श पुरुष को भ्रष्ट नहीं करता, पुरुष प्राय: स्वयं ही इतना अपवित्र होता है कि स्त्री का स्पर्श करने योग्य नहीं रह जाता।[5] 
          गांधीजी का मानना है कि, जिस दिन से मैंने ब्रह्मचर्य की शुरुआत की, हम स्वतंत्र होने लगे। मेरी पत्नी एक स्वतंत्र स्त्री बन गई, उसके स्वामी के रूप में मैं उस पर जो अधिकार चलाता था उससे वह मुक्त हो गई और मैं अपनी उस भूख की गुलामी से छुटकारा पा गया जिसकी तृप्ति का साधन वह थी। किसी अन्य स्त्री के प्रति मेरे मन में उस तरह का आकर्षण नहीं था जैसा कि अपनी पत्नी के प्रति था। मैं अपनी पत्नी के प्रति इतना नैष्ठिक था और अपनी मां के सामने किए गए प्रण से इतना बंधा था कि, मैं किसी अन्य स्त्री का दास नहीं बन सकता था। लेकिन मेरा ब्रह्मचर्य जिस रूप में मुझे मिला, उससे मैं स्त्री को मनुष्य की मां समझते हुए उसकी ओर अस्वस्त होकर खींचता चला गया। वह मेरे लिए इतनी पवित्र हो गई कि भोग की वस्तु कदापि नहीं बन सकती थी और इस प्रकार हर स्त्री तत्काल मेरे लिए मेरी बहिन अथवा बेटी बन गई।[6]
          ब्रह्मचर्य का मूल अर्थ बताते हुए लिखते है कि ब्रह्मचर्य यानि ब्रह्म की सत्य की – खोज में चर्या यानि उसके मुताल्लिक आचार-बरताव।[7] ब्रह्मचर्य मन, वचन, और तन से बरतने का होता है।[8] भोग विलास से किसी ने सत्य को पाया हो आज तक एक भी मिसाल हमारे सामने नहीं है।[9] जिस मनुष्य ने सत्य को पसंद किया है, जो उसी की उपासना (भक्ति) करता है, वह अगर उसे छोडकर किसी और चीज की आराधना करता है, तो व्यभिचारी साबित होता है। तब फिर विकार की आराधना तो हो ही कैसे सकती है? जिसकी सारी प्रवृत्ति, सारा काम सत्य के दर्शन के लिए है, वह बच्चे पैदा करने के या घर-संसार, कुटुंब-कबीला चलाने के काम में कैसे पड़ सकता है?[10] भोग-विलास के लिए वीर्य को गंवाना और शरीर को निचोड़ना यह कितनी बेवकूफी है? वीर्य का उपयोग दोनों की शरीर और मन की शक्ति को बढ़ाने के लिए है। विषय-भोग में उसका उपयोग करना उसका बहुत बड़ा दुरुपयोग है, इसलिए वह बहुत सी बीमारियों का मूल हो जाता है।[11] जो शरीर को काबू में रखता है, लेकिन मन से विकार को पोसता रहता है, वह मूढ़ और मिथ्याचारी है।[12] ईश्वर ने मनुष्य को यह बुद्धि दी है कि वह अपनी मां, अपनी बेटी और अपनी पत्नी के बीच भेद कर सके।[13] ब्रह्मचर्य का पूरी तरह पालन करने वाले स्त्री-पुरुष मनोवेगों से पूर्णतया मुक्त होते हैं। ऐसे व्यक्ति ईश्वर के सान्निध्य में निवास करते हैं, वे ईश-तुल्य होते हैं।[14]
          मन को विकारवाला रहने देना और शरीर को दबाने की कोशिश करना इसमें नुकसान ही है। जहां मन है वहां शरीर आखिर घसीटे बिना रहेगा ही नहीं। यहां एक भेद समझ लेना जरूरी है। मन को विकारवाश होने देना एक बात है; मन अपने-आप, बगैर इच्छा के, जबरन विकारवाला हो जाए या हुआ करे यह दूसरी बात है। उस विकार में हम मददगार न हों, तो आखिर हमारी जीत है ही। गांधीजी क्षण-क्षण अनुभव करते हैं कि शरीर काबू में रहता है, लेकिन मन नहीं रहता। इसलिए शरीर को तुरंत बस में करके हम मन को बस में करने की हमेशा कोशिश करते रहें, तो हम (अपना) फर्ज अदा कर चुके। मन के बस में हम हुए कि शरीर और मन का झगड़ा शुरू हुआ, मिथ्याचार का आरंभ हुआ। जब तक मन के विकार को हम दबाते रहेंगे, तब तक दोनों साथ-साथ जाएँगे ऐसा कह सकते हैं।[15] प्राय: जनन-इंद्रियों (लिंग, योनि) पर काबू पा लेना ही ब्रह्मचर्य माना जाता है। गांधीजी कहते है कि यह तंग और संकुचित व्याख्या है। तमाम विषयों पर रोक, काबू ही ब्रह्मचर्य है। जो दूसरी इंद्रियों को हवासों को जहां तहां भटकने देता है और एक ही इंद्रियों को रोकने की कोशिश करता है, वह निकम्मी कोशिश करता है।[16] कानों से विकार की बातें सुने, आंखों से विकार पैदा करने वाली चींजे देखे, जीभ से विकारों को तेज करने वाली चींजे स्वाद से खाए, हाथ से विकारों को तेज करने वाली वस्तुओं को छूए और फिर भी जनन-इंद्रियों को रोकने का इरादा कोई रखे, तो यह आग में हाथ डाल कर न जलने की कोशिश करने जैसा होगा। इसलिए जो जनन-इंद्रियों को रोकने की ठान ले, उसको तमाम इंद्रियों को विकारों से रोकने की ठान ही लेना चाहिए।[17]
          गांधीजी को ब्रह्मचर्य के बिना जीवन फीका और पशुवत प्रतीत होता है। पशु स्वभाव से ही आत्मसंयम नहीं जानता। मनुष्य इसीलिए मनुष्य है कि वह जितना चाहे उतना आत्मसंयम बरतने में समर्थ है।[18] आध्यात्मिक पूर्णता की प्राप्ति के लिए जीवन में मनसा, वाचा, कर्मणा पूर्ण आत्मनिग्रह का होना आवश्यक है। गांधीजी कहते है कि, जिस राष्ट्र में ऐसे लोग नहीं हैं, वह इस अभाव की वजह से दरिद्रतर राष्ट्र है।[19]
          गांधीजी का कहना है कि, सब इंद्रियों को एक साथ बस में लाने की आदत डालें, तो जनन-इंद्रियों को बस में लाने की कोशिश तुरंत सफल होगी। इसमें मुख्य चीज स्वाद की इंद्रिय है।[20] अस्वाद व्रत का ब्रह्मचर्य व्रत से नजदीकी संबंध है। ब्रह्मचर्य व्रत के लिए यह आवश्यक है कि भोजन पर उचित ध्यान दिया जाना चाहिए।
           गांधीजी उसके बारे में भी ब्रह्मचर्य पालन कि बात करते हैं जिसने शादी कर ली है। गांधी कहते हैं कि जो लोग ब्याह कर बैठे हैं उनका क्या? क्या वे कभी सत्य को नहीं पाएंगे? क्या वे कभी भी सर्वार्पण- सब कुछ न्योच्छावर नहीं कर सकेंगे? उनका उत्तर देते हुए कहते है कि शादीशुदा-विवाहित लोग अविवाहित जैसे बन जाएँ। इस दिशा में इससे बढ़ाकर और कुछ मेरे अनुभव में नहीं आया है। इस हालत का रस जिसने चखा है वह गवाही दे सकेगा। आज तो इस प्रयोग की सफलता साबित हो चुकी है, ऐसा कह सकते हैं। विवाहित स्त्री-पुरुष एक-दूसरे को भाई-बहन समझने लगें, तो सारे जंजाल से छूट जाते हैं। दुनिया की तमाम औरतें बहनें हैं, माताएँ हैं, बेटियां हैं, यह ख्याल ही आदमी को एकदम ऊंचा ले जानेवाला है, बंधन से मुक्ति देने वाला हो जाता है। इसमें पति-पत्नी कुछ भी खोते नहीं हैं, बल्कि अपनी पूंजी को बढ़ाते हैं, कुटुंब को बढ़ाते हैं और विकार रूपी मैल को निकाल डालने से प्रेम को भी बढ़ाते हैं। विकार के न रहने से एक-दूसरे की सेवा बेहतर हो सकती है, आपस के झगड़े के मौके कम होते हैं। जहां स्वार्थी, एकांगी प्रेम होता है, वहाँ झगड़े के लिए ज्यादा स्थान रहता है।[21]  गांधीजी विवाह को एक ऐसा संस्कार मानते है जहां पति-पत्नी को अनुशासित करता है, उन्हें केवल आपस में ही शरीर-संबंध रखने के लिए प्रतिबाधित करता है और वह भी केवल संतानोत्पत्ति के लिए और तब जबकि पति-पत्नी दोनों उसके लिए इच्छुक और तैयार हों।[22] तथापि स्त्री-पुरुषों के परस्पर संबंधों को स्वस्थ और शुद्ध दृष्टि से देखने लग जाएँ और स्वयं को भावी पीढ़ियों के नैतिक कल्याण का न्यासी समझने लगें तो आज के अनेख दुखों को दूर किया जा सकता है।[23] मन की कलुषित भटकनों के साथ असहयोग करने लगें तो अंत में हम विजयी होंगे।[24] ब्रह्मचर्य को गांधीजी मानसिक दशा बताते हुए कहते है कि, मनुष्य का बाह्य आचरण उसकी आंतरिक दशा का तत्काल पता और प्रमाण देता है। जिसने अपनी कामवासना को मार दिया है, वह किसी भी रूप में कभी उसका दोषी नहीं पाया जा सकता। कितनी भी सुंदर स्त्री हो, पर वह उस व्यक्ति को आकर्षित नहीं कर पाएगी जिसमें कामवासना है ही नहीं। यह बात स्त्री पर भी लागू होती है।[25] गांधीजी यह भी मानते है कि, जो व्यक्ति स्त्री के अपरिहार्य संपर्क से भी दूर भागता है, वह ब्रह्मचर्य के संपूर्ण अर्थ को नहीं समझता।[26] सच्चा ब्रह्मचारी वह है जो झूठे निग्रहों से दूर रहेगा। उसे अपनी सीमाओं को ध्यान में रखते हुए बचाव की विधियां स्वयं ही निर्धारित करनी होंगी और जैसे-जैसे वे अनावश्यक लगती जाएँ, उन्हें छोड़ते जाना होगा। पहली चीज तो यह है कि आदमी यह जाने कि सच्चा ब्रह्मचर्य क्या है, फिर उसका मूल्य पहचाने और अंत में, इस अमूल्य गुण को विकसित करने का प्रयास करे। गांधीजी कि धारणा है कि इस देश की सच्ची सेवा करने के लिए ब्रह्मचर्य का पालन आवश्यक है।[27] स्थितप्रज्ञ वह है जो अपनी इंद्रियों को इंद्रियों के विषयों से समेटकर उन्हें उसी प्रकार अपनी आत्मा की ढाल के पीछे कर लेता है जिस प्रकार कछुआ अपने अंगों को अपने अंदर समेत लेता है।[28] अपने को पूरी तरह ईश्वरार्पण किए बिना विचारों पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त करना गांधीजी को असंभव प्रतीत होता है है। प्रत्येक महान धर्मग्रंथ का यही उपदेश है और पूर्ण ब्रह्मचर्य के लिए प्रयास करते हुए गांधीजी प्रतिक्षण इसकी सत्यता का अनुभव करते है।
          गांधीजी कहते है कि, मेरे ब्रह्मचारी का जीवन जीने का निर्णय लेने के बाद पत्नी के प्रति मेरे आचरण को छोडकर, मेरे बाह्य आचरण में शायद ही कोई अंतर आया हो।[29] गांधीजी यह भी मानते है कि  स्त्रियों के प्रति यौनाकर्षण का अनुभव करता तो मुझमें इतना साहस था की, इस उम्र में भी, बहुविवाह करने से नहीं चुकता। मुझे स्वच्छंद प्रेम-वह प्रकट हो अथवा गुप्त- में विश्वास नहीं है। स्व्च्छंद और प्रकट प्रेम को गांधीजी कुत्तों की वासना का दर्जा देते है और गुप्त भोग तो, उसके अलावा, कायरतापूर्ण भी है।[30] विवाह का आदर्श है शारीरिक सम्मिलन के माध्यम से आध्यात्मिक सम्मिलन की प्राप्ति। विवाह के फलस्वरूप जिस मानव प्रेम की अवतारणा होती है, वह दिव्य अथवा सार्वभौम प्रेम तक पहुँचने की एक सीठी है।[31]
          विवाह जीवन की एक स्वाभाविक चीज है और इसे किसी भी अर्थ में अपकर्षणकारी समझना बिलकुल गलत है...आदर्श स्थिति यह है कि विवाह को एक पवित्र संबंध माना जाए और विवाहित अवस्था में आत्मसंयम के साथ जीवन व्यतीत किया जाए।[32] कामवासना की तुष्टि के लिए किया गया विवाह, विवाह नहीं है। वह व्यभिचार है।[33] कामवासना की तुष्टि के लिए किया गया संभोग पशुत्व की ओर प्रत्यावर्तन है, अत: मनुष्य को इससे ऊपर उठने का प्रयास करना चाहिए।....दुनिया में करोड़ों लोग अपनी रसना की तुष्टि के लिए खाते हैं; इसी प्रकार करोड़ों पति-पत्नी अपनी वासना की तुष्टि के लिए संभोग करते हैं और करते रहेंगे जिसके लिए वे असंख्य विपत्तियों के रूप में कठोर दंड के भागी होते रहेंगे जो प्रकृति अपनी व्यवस्था का किसी भी प्रकार से उल्लंघन करने वालों को देती है।[34] पति-पत्नी के बीच का निष्कलंक प्रेम मनुष्य को जिस प्रकार ईश्वर के निकट ले जाता है, उस प्रकार कोई और प्रेम नहीं ले जा सकता। जब इस निष्कलंक प्रेम में कामासक्ति आ मिलती है तो यह हमें अपने ईश्वर से दूर ले जाती है।[35] जो विवाह संयुक्त रूप से सेवा करने के लिए किए जाते हैं, उनकी अपनी अच्छाइयां हैं। जो विवाह आत्मतुष्टि के लिए किए जाते हैं, वे बिलकुल व्यर्थ हैं।[36] गांधीजी यह बताते है कि मैंने और मेरी पत्नी ने विवाहित जीवन की सच्ची खुशी का स्वाद तभी चखा जब यौन संबंधों का त्याग कर दिया और वह भी भरी जवानी में। तभी जाकर हमारी सहचारिता के फूल खिले और हम दोनों भारत तथा व्यापक मानवता की सच्ची सेवा करने योग्य वन सके...सच पूछा जाए तो हममें आत्मत्याग की यह भावना सेवा करने की हमारी उत्कट इच्छा के कारण ही उत्पन्न हुई थी।[37] उन्हीं लोगों का विवाह सच्चा है जो विवाह बंधन की शुद्धता और पवित्रता का अनुभव करने और उसमें निहित देवत्व की प्राप्ति के लिए विवाह करते हैं।[38] गांधीजी का ब्रह्मचर्य दर्शन सारी मानव जाति के लिए एक दिव्य संदेश था। सिर्फ परिवार तक ही प्रेम को सीमित मत किया जाना चाहिए पूरा संसार मानव का परिवार है। इस बात का अनुभव तभी संभव है जब ब्रह्मचर्य जैसे व्रत पर अग्रसर लोग होंगे। इसीलिए गांधी सबों के लिए ब्रहचर्य व्रत पालन की भी बात करते है। चाहे वह शादीशुदा ही क्यों न हो।   






[1] हरिजन; 23-7-1938
[2] गांधीजी; मंगल-प्रभात, नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद, ग्यारहवाँ, पुनर्मुद्रण, अक्तूबर, 2000, पृ. 16
[3] हरिजन; 7-9-1935  
[4] हरिजन; 5-6-1937  
[5] प्रभु, आर. के. एवं राव, यू. आर.; महात्मा गांधी के विचार, संकलन एवं संपादन, नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, आठवीं आवृत्ती, 2011, पृ. 266
[6] हरिजन; 4-11-1939
[7] गांधीजी; मंगल-प्रभात, पूर्वोक्त, पृ. 20
[8] वही, पृ. 18
[9] वही, पृ. 15 
[10] वही  
[11] वही, पृ. 17
[12] वही , पृ. 18  
[13] प्रभु, आर. के. एवं राव, यू. आर.;पूर्वोक्त, पृ. 261
[14] यंग इंडिया; 5-6-1924
[15] गांधीजी; मंगल-प्रभात, पूर्वोक्त, पृ. 18
[16] वही, पृ. 19
[17] वही
[18] प्रभु, आर. के. एवं राव, यू. आर.; पूर्वोक्त, पृ. 261
[19] यंग इंडिया; 13-10-1920
[20] गांधीजी; मंगल-प्रभात, पूर्वोक्त, पृ. 19
[21] वही, पृ. 16-17
[22] यंग इंडिया; 16-9-1926
[23] यंग इंडिया; 27-9-1928
[24] प्रभु, आर. के. एवं राव, यू. आर.; पूर्वोक्त, पृ. 264
[25] वही
[26] वही
[27] हरिजन; 15-6-1947
[28] हरिजन; 28-4-1946
[29] प्रभु, आर. के. एवं राव, यू. आर.; पूर्वोक्त, पृ. 266
[30] हरिजन; 4-11-1939
[31] यंग इंडिया; 21-5-1931
[32] हरिजन; 22-3-1942
[33] हरिजन; 24-4-1937
[34] हरिजन; 5-6-1937   
[35] हरिजन; 19-19-1947
[36] हरिजन; 19-5-1946
[37] प्रभु, आर. के. एवं राव, यू. आर.; पूर्वोक्त, पृ. 268
[38] हरिजन; 7-7-1946 

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