Tuesday, 28 July 2015

बुनियादी शिक्षा की मौलिकता


                        - चन्दन कुमार, एसआरएफ(यूजीसी)
पी -एच. डी. ,अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा.
मो.-09763710526 ; ई मेल:chandankumarjrf@gmail.com 
शिक्षा के गलत अभारतीयकरण से करोड़ों छात्रों को प्रत्येक वर्ष अधिकाधिक हानि हो रही है। आदमी साक्षरता अथवा विद्वत्ता से आदमी नहीं बनता, बल्कि सच्चे जीवन के लिए ली गई शिक्षा से बनता है।[i] एलेक्जेंडर पोप ने कहा है कि, वृक्ष का अंकुर जिस तरफ झुक जाता है, वृक्ष भी उसी ओर झुक जाता है। ठीक उसी प्रकार शिक्षा जिस प्रकार मानव मन को मोड़ती है, मानव उधर ही मुड़ जाता है। जिस गांधी विचार ने दुनिया को नयी दिशा दिखाने का काम किया उसे तेजी से भूलकर लोग उस सभ्यता को अपना रहे है, जिसे गांधीजी ने 1909 में शैतानी सभ्यता कहा था। कोई भी मौलिक विचार एक दृष्टि होता है और वह दृष्टि ज्ञान की कुंजी बन निरंतर किसी भी सभ्यता व संस्कृति को दिशा देने का काम करती है। अगर हम अपनी दृष्टि बदल लेते है अर्थात उन विचारों को ग्रहण करते है, जो हमारे प्रकृति के अनुरूप है ही नहीं तो, हमारी संस्कृति विकृत हो जाती है। केवल शब्द ज्ञान या केवल ज्ञान की गठरी सिर पर लाद लेने से न तो सच्चा ज्ञान मिल सकता है और न सदाचरण ही। शिक्षा को साक्षरता का पर्याय मान लेना भी भयंकर भूल है। सचमुच अपने आप में साक्षरता तो शिक्षा है भी नहीं, क्योंकि यह न तो शिक्षा का आरंभ है और न अंत ही। साक्षरता तो बौद्धिक ज्ञान प्राप्ति का एक साधन है।”[ii] हिन्द स्वराज में गांधीजी ने लिखा है कि “तालीम का अर्थ क्या है? अगर उसका अर्थ सिर्फ अक्षर ज्ञान ही हो, तो वह तो एक साधन जैसी ही हुई। उसका अच्छा उपयोग भी हो सकता है और बुरा उपयोग भी हो सकता है। एक शस्त्र से चीर-फाड़ करके बीमार को अच्छा किया जा सकता है और वही शस्त्र किसी की जान लेने के काम में लाया जा सकता है। अक्षर-ज्ञान भी ऐसा ही है। बहुत से लोग उसका बुरा उपयोग करते हैं, यह तो हम देखते ही हैं। उसका अच्छा उपयोग प्रमाण में कम ही लोग करते हैं। यह बात अगर ठीक है तो इससे यह साबित होता है कि अक्षर-ज्ञान से दुनिया को फायदे के बदले नुकसान ही हुआ है।”[iii] गांधी तालीम की मंशा बच्चों को सुधार- सँवार कर आदर्श बाशिंदा बनाना है। गांधीजी का मानना है कि “हमारे यहाँ जिसे प्राथमिक शिक्षा कहा जाता है वह तो एक मज़ाक है, उसमें गांवों में बसने वाले हिंदुस्तान की जरूरतों और मांगों का जरा भी विचार नहीं किया गया है और वैसे देखा जाय तो उसमें शहरों का भी कोई विचार नहीं हुआ है।”[iv] बुनियादी शिक्षा हिंदुस्तान के तमाम बच्चों को हिंदुस्तान की सभ्यता और संस्कृति के अनुरूप बनाता है। “यह तालीम बालक के मन और शरीर दोनों का विकास करती है। बालक को अपने वतन के साथ जोड़े रखती है। उसे अपने और देश के भविष्य का गौरवपूर्ण चित्र दिखाती है और उस चित्र में देखे हुए भविष्य के हिंदुस्तान का निर्माण करने में बालक या बालिका अपने स्कूल जाने के दिन से ही हाथ बटाने लगे इसका इंतजाम करती है।”[v] गांधीजी समर्थक है अनिवार्य और नि:शुल्क प्राथमिक शिक्षा के। यह तभी संभव हो सकेगा जब बच्चे एक उपयोगी व्यवसाय सिखे और उसका उपयोग  शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक क्षमताओं को विकसित करने में करे, यानि एक बच्चे के शारीरिक अंगों का बेहतर इस्तेमाल ही मस्तिष्क के विकास की सही कुंजी है।
           प्रकृति सम्मत शिक्षा तभी संभव है, जब एक साथ शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक शक्तियों का सर्वांगीण विकास हो। इसके लिए गांधीजी ने 3H फार्मूला के आधार पर बुनियादी शिक्षा का ईजाद किए जो हृदय, हाथ और मस्तिष्क तीनों की बात होती है। जिसके तहत मनुष्य हाथ, हृदय और मस्तिक तीनों का विकास कर प्रकृति और संस्कृति दोनों का समन्वय स्थापित कर देश की सभ्यता के अनुरूप आगे बढ़ता रहे। मनुष्य न केवल बुद्धि है, न निपट पाशविक शरीर और न केवल हृदय अथवा आत्मा। समग्र मानव इन तीनों के उचित और सामंजस्यपूर्ण योग से ही बनता है और शिक्षा की सच्ची योजना में इसी का समावेश होना चाहिए। जिसे आज हमलोग बेरोजगारी कहते हैं वह अयातित है और भारत के लिए और भी। उस बेरोजगारी का निदान बुनियादी शिक्षा है। गांधीजी के शिक्षा का उद्देश्य जीविकोपार्जन, चारित्रिक विकास, सांस्कृतिक विकास, व्यक्ति और समाज का विकास, सामाजिक पुनर्निर्माण, सदाचार और नैतिकता, राष्ट्रीय एकता, आत्मानुभूति एवं ईश्वर प्राप्ति तथा व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास है।
          गांधीजी शिक्षा से यह अर्थ लेते है कि, शिक्षा बच्चे और मनुष्य की काया, बुद्धि और आत्मा में जो कुछ श्रेष्ठ है, उसे समग्र रूप से उभार दे वही शिक्षा है। बुद्धि की सच्ची शिक्षा केवल हाथ, पैर, नेत्र, कान, नाक आदि शारीरिक अंगों के उचित व्यायाम एवं प्रशिक्षण से ही प्राप्त की जा सकती है। बच्चे को उसकी शारीरिक अंगों के बुद्धिमत्तापूर्ण उपयोग की शिक्षा देना ही उसकी बुद्धि का सर्वोत्तम और शीघ्रतम विकास करने की विधि है। जब तक बुद्धि और शरीर के विकास के साथ-साथ, उसी गति से, आत्मा की जागृति का काम भी नहीं चलता तब तक विकास एकांगी ही सिद्ध होता है। आध्यात्मिक प्रशिक्षण से आशय है हृदय की शिक्षा। बुद्धि का उचित और समग्र विकास तभी संभव है, जब बच्चे की शारीरिक एवं आध्यात्मिक क्षमताओं की शिक्षा के समरूप प्रगति हो।  पुस्तकीय शिक्षा हाथ की शिक्षा के बाद आरंभ होना चाहिए, हाथ मनुष्य को प्रकृति की ऐसी देन में से है जो मनुष्य को पशु से अलग करता है।
          गांधीजी की शिक्षा पद्धति विदेशों से आयातित नहीं, यह भारत के पर्यावरण के अनुकूल एवं ग्राम-प्रधान है। यह शरीर, बुद्धि और आत्मा जिनसे मिलकर मनुष्य बना है, उसके बीच संतुलन स्थापित करने पर विश्वास करती है। यह शिक्षा पाश्चात शिक्षा जैसी नहीं है जो प्रधानतया सैन्यवादी और कलर्कवादी है, जिसमें मुख्य रूप से शरीर और बुद्धि की ओर ध्यान दिया गया है और आत्मा को गौन रखा गया है। गांधीजी देश के युवक एवं युवतियों को स्वावलंबी बनाना चाहते थे, गांधीजी नहीं चाहते थे कि, भारत की वर्तमान पीढ़ी शिक्षा समाप्त कर डिग्रियों के पुलिंदे लिए बेरोजगारों की कतार में या दिशाविहीन बनकर देश का अहित करें।
          इसलिए देश के नव निर्माण के लिए व्यक्तित्व का निर्माण और व्यक्ति को स्वावलंबी बनाना  आवश्यक है, जिसमें शिक्षा का सबसे बड़ा दायित्व बनता है। जो गांधी की शिक्षा पद्धति से ही संभव है। अतएव विकास के वर्तमान विषमतामूलक-प्रकृतिविरोधी दौर में समतामूलक समाज की लकीर खींचने के लिए जरुरी है कि गांधी जी के शिक्षा सिद्धान्त पर अमल किया जाना चाहिए।




[i] हरिजन, 2-2-1974, पृ. 3
[ii] सिंह, प्रताप; गांधीजी का दर्शन, सं., जी. पी. नेमा, रिसर्च पब्लिकेशन्स, जयपुर, पृ. 232 
[iii] गांधीजी; हिन्द स्वराज, नवजीवन प्रकाशन मन्दिर, अहमदाबाद, पृ. 69
[iv] गांधीजी; रचनात्मक कार्यक्रम उसका रहस्य और स्थान, नवजीवन प्रकाशन मन्दिर अहमदाबाद, तीसरी, 1951, पृ. 25
[v] वही, पृ. 25-26

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