Thursday, 6 August 2015

स्वदेशी और गांधी


- चन्दन कुमार, एस आर एफ(यूजीसी)
पी -एच. डी. ,अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा.
मो.-09763710526 ; ई मेल:chandankumarjrf@gmail.com 
         
गांधीजी स्वदेशी को व्रत के रूप में स्वीकार करते है। व्रत का अर्थ होता है अडिग निश्चय। अड़चनों को पार करने के लिए ही व्रत की आवश्यकता होती है। अड़चन बरदाश्त करते हुए भी जो टूटता नहीं, वही अडिग निश्चय माना जाता है। ऐसे निश्चय के बगैर मनुष्य लगातार ऊपर चढ़ ही नहीं सकता[1] है। गांधीजी भारतीय अर्थव्यवस्था में हो रहे बदलाव से वाकिफ थे। लघु एवं कुटीर उद्योगों का ह्रास बड़े पैमाने पर हो रहा था। सभी व्यक्तियों को रोजगार कैसे मिले इसके लिए स्वदेशी को व्रत के रूप में अपनाने कि वकालत गांधीजी की रही। भारत अपने ताकत के बल पर उन्नत कैसे बना रहे इसकी चिंता को दूर करने के लिए स्वदेशी जैसे विचार पर बल देना गांधीजी के लिए आवश्यक प्रतीत हुआ। गांधीजी सब का उदय और सबों के द्वारा उदय की कामना स्वदेशी विचार से संभव बनाने के लिए स्वदेशी को व्रत रूप में अपनाना चाहते थे। गांधीजी का स्वदेशी विचार राष्ट्र और गांव को उन्नत बनाने का रहा है। स्वदेशी का पालन करते हुए मौत हो जाए तो भी अच्छा है, पर परदेशी तो खतरनाक ही है। स्वधर्म यानि स्वदेशी।[2] स्वदेश में निर्मित वस्तु का उपयोग यानि पड़ोसी से प्रेम का दर्शन है। स्वदेशी-व्रत का पालन करने वाला हमेशा अपने आस-पास निरीक्षण करता है और जहां-जहां पड़ोसियों की सेवा की जा सकती है। यानी जहां उनके हाथ का तैयार किया हुआ जरूरत का माल होगा वहाँ दूसरा माल छोड़कर उसे लेगा। फिर भले ही स्वदेशी चीज पहले-पहल महंगी और घटिया दर्जे की हो। व्रतधारी उसे सुधारने की कोशिश करेगा; स्वदेशी चीज खराब है इसलिए कायर बनकर परदेशी का इस्तेमाल करने नहीं लग जाएगा।[3] स्वदेश भावना वह भावना है जो हमें दूर-दराज के इलाकों को छोड़कर अपने समीपस्थ क्षेत्रों का उपयोग करने और उनकी सेवा करने तक सीमित करती है।[4] गांधीजी आम आदमी की घोर निर्धनता का सबसे बड़ा कारण आर्थिक और औद्योगिक क्षेत्र में स्वदेशी का त्याग मानते है। यदि एक भी चीज भारत के बाहर से न खरीदी जाती तो इस देश में घी-दूध की नदियां बह रही होती[5] अर्थात गांधीजी देश का पैसा देश में ही स्वदेश विचार के द्वारा रखने की बात करते है।
          स्वदेशी व्रत जानने वालों को कुएं में डूब मरने की बात गांधीजी नहीं करते है। जो चीज स्वदेश में नहीं बनती या बड़ी तकलीफ से बन सकती हो, उसे परदेश के द्वेष (डाह) के कारण वह अपने देश में बनाने लग जाए, तो उसको गांधीजी स्वदेशी-धर्म नहीं मानते है। स्वदेशी धर्म का पालन करने वाला परदेशी का द्वेष कभी नहीं करता है। इसलिए पूर्ण स्वदेशी में किसी का द्वेष नहीं है। वह संकुचित धर्म नहीं है। वह प्रेम से- अहिंसा से- निकाला हुआ सुंदर धर्म है।[6] गांधीजी कहते है कि मैं भारत के जरूरतमन्द करोड़ों निर्धनों द्वारा काते और बुने गए कपड़े को खरीदने से इंकार करना और विदेशी कपड़े को खरीदना पाप समझता हूँ, भले ही वह भारत के हाथ से कते कपड़े की तुलना में कितने ही बढ़िया किस्म का हो।[7] स्वदेशी के सिद्धान्त का पालन करने पर यह कर्त्तव्य हो जाता है कि ऐसे पड़ोसियों की खोज होनी चाहिए जो हमारी आवश्यकता की वस्तुएं हमें दे सकें और यदि वे किन्हीं वस्तुओं का उत्पादन करने में असमर्थ हों तो उन्हें उपेक्षित प्रशिक्षण दें।...यदि ऐसा होगा तो भारत का प्रत्येक गांव लगभग स्वावलंबी और स्वत:पूर्ण हो जाएगा और वह दूसरे गांवों के साथ उन्हीं आवश्यक वस्तुओं की अदला-बदली करेगा जिनका उत्पादन संभव नहीं है।[8] शिक्षा के मामले में भी स्वदेशी की भावना के घातक त्याग से देश को बहुत अधिक हानि पहुंची है। हमारे शिक्षित वर्ग की शिक्षा विदेशी भाषा के माध्यम से हुई है। इसका परिणाम यह हुआ है कि वे आम जनता के साथ तादात्म्य नहीं कर पाए। वे आम-जनता का प्रतिनिधित्व करना चाहते हैं, लेकिन उसमें सफल नहीं हो पाते। आम लोग उसे उसी अपरिचय की दृष्टि से देखते हैं जिस दृष्टि से वे अंग्रेज़ अधिकारियों को देखते थे। दिल से जुड़ाव तो स्वदेश में स्वदेशी भाषा से ली गई शिक्षा में है।
          गांधीजी का मानना है कि स्वदेशी को न समझने से गड़बड़ी पैदा होती है। कुटुंब पर मोह रखकर उससे झूठा लाड़-प्यार करना, उसके खातिर धन चुराना, दूसरी चालें चलना, यह स्वदेशी नहीं है। स्वदेशी का पालन करते हुए कुटुंब की क़ुरबानी भी करनी पड़ती है। लेकिन ऐसा करना पड़े तो उसमें भी कुटुंब की सेवा होनी चाहिए। उदाहरण स्वरूप गांधीजी समझाते हुए कहते है कि मान लीजिए कि मेरे गांव में महामारी फैली है। उस बीमारी में फंसे हुए लोगों की सेवा में मैं अपने को, अपनी पत्नी को, पुत्रों को और पौत्रियों को अगर लगाऊँ और उस बीमारी में फँसकर सब मौत की शरण चले जाए, तो मैंने कुटुंब का नाश नहीं किया, मैंने उसकी सेवा ही की है। स्वदेशी में कोई स्वार्थ नहीं है; अगर है तो वह शुद्ध स्वार्थ है। शुद्ध स्वार्थ यानि परमार्थ; शुद्ध स्वदेशी यानि परमार्थ की आखिरी हद।[9] जो व्यक्ति दूरस्थ दृश्य के आकर्षणों में फँसकर दुनिया के दूसरे कोने तक सेवा करने के लिए भागता है, वह न केवल अपनी आकांक्षा की पूर्ति में असफल होता है बल्कि अपने पड़ोसियों के प्रति अपने कर्तव्य से भी विमुख होता है।[10] गांधीजी का मानना है कि व्यक्ति एक ही साथ अपने पड़ौसियों और मानवता की सेवा कर सकता है; शर्त यही है कि पड़ौसियों की सेवा के पीछे स्वार्थ या अनन्यता का भाव न हो, अर्थात उसमें अन्य व्यक्तियों का शोषण निहित न हो। तब पड़ौसी भी उस भावना को समझ सकेंगे जिस भावना से आप उनकी सेवा करना चाहते हैं। वे यह भी जान जाएंगे कि बदले में उन्हें भी अपने पड़ौसियों की सेवा करनी है। इस प्रकार इस सेवाभाव की गुणोत्तर वृद्धि होती जाएगी और यह समूची दुनिया को समाविष्ट कर लेगी। इसका तात्पर्य यह हुआ कि स्वदेशी वह भावना है जो आपको अन्य लोगों की चिंता किए बिना अपने निकटस्थ पड़ौसी की सेवा के लिए प्रेरित करती है। शर्त यह यह कि, पड़ौसी भी, बदले में, अपने पड़ौसी की सेवा करे। इस अर्थ में, स्वदेशी में अनन्यता का कोई भाव नहीं है। इसमें केवल इस वैज्ञानिक मर्यादा को स्वीकार किया गया है कि मनुष्य की सेवा करने की सामर्थ्य की भी एक सीमा है।[11] स्वदेशी के लिए जीवन की इस योजना के तहत गांधीजी दूसरे सभी देशों को छोड़कर केवल भारत की सेवा कर किसी अन्य देश कोई क्षति नहीं पहुंचाना चाहते है। गांधीजी का राष्ट्रप्रेम व्यावर्तक भी है और समावेशी भी। व्यावर्तक इस अर्थ में है कि गांधीजी पूरी विनम्रता के साथ अपना ध्यान अपनी जन्मभूमि तक सीमित रखते है और समावेशी इस अर्थ में है कि सेवा का स्वरूप स्पर्धात्मक या विरोधात्मक बिलकुल नहीं है। विदेश में निर्मित हर चीज को त्याज्य समझना स्वदेशी के अर्थ में गांधीजी की मंशा नहीं है। स्वदेशी की मोटी परिभाषा यह है कि देशी उद्योगों को संरक्षण प्रदान करने के लिए विदेशी वस्तुओं का त्याग करके देशी वस्तुओं का इस्तेमाल करना चाहिए। यह बात उन उद्योगों पर खास तौर से लागू होती है जिनके नष्ट होने पर भारत कंगाल हो जाएगा। स्वदेशी का अभिप्राय घृणा फैलाने का अभियान नहीं है। यह निस्वार्थ सेवा का सिद्धान्त है जिसकी जड़ में विशुद्ध अहिंसा अर्थात प्रेम है।[12] जो सबों को आपस में एकता के सूत्र में पिरोये रखता है।
          इस तरह गांधीजी का स्वदेशी विचार पड़ोसी से प्रेम एवं आत्म निर्भर बनाने के साथ-ही-साथ देश को उन्नत बनाने का रहा है। यदि सभी पड़ोसी एक दूसरे की सेवा स्वदेशी विचार से करने लगे तो भारत को आत्मनिर्भर देश बनने में समय नहीं लगेगा।  
  




[1] गांधीजी; मंगल-प्रभात, नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद, ग्यारहवाँ, पुनर्मुद्रण, 1958, पृ. 59
[2] वही; पृ. 55 
[3] वही; पृ. 57-58  
[4] प्रभु, आर. के. एवं राव, यू. आर.; महात्मा गांधी के विचार, संकलन एवं संपादन, नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, आठवीं आवृत्ती, 2011, पृ. 394-395
[5] वही; पृ. 396
[6] गांधीजी; मंगल-प्रभात, पूर्वोक्त, पृ. 58
[7] यंग इंडिया; 12-3-1925
[8] प्रभु, आर. के. एवं राव, यू. आर.; पूर्वोक्त, पृ. 396
[9] गांधीजी; मंगल-प्रभात, पूर्वोक्त, 1958, पृ. 56 
[10] प्रभु, आर. के. एवं राव, यू. आर.; पूर्वोक्त, पृ. 399
[11] हरिजन; 23-7-1947
[12] प्रभु, आर. के. एवं राव, यू. आर.; पूर्वोक्त, पृ. 400 

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