Wednesday, 23 September 2015

सत्याग्रह की परिसीमा एवं प्रतिनिधि की योग्यतायें

- चन्दन कुमार, एस आर एफ(यूजीसी)
पी -एच. डी. ,अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा.
    
   गांधीजी का सत्याग्रह आंदोलन सर्वव्यापी तथा संपूर्ण है। सत्याग्रह का प्रयोग कोई भी स्त्री या पुरुष किसी भी प्रतिपक्षी के प्रति कर सकता है। यह व्यक्तिक रूप से एवं सामूहिक रूप से भी संभव है। अल्पमत बहुमत के विरुद्ध एवं बहुमत अल्पमत के प्रति सत्याग्रह कर सकता है। यह एक ऐसी सामूहिक क्रिया है जिसका प्रयोग समाज का कोई भी सताया हुआ वर्ग कर सकता है। गांधीजी द्वारा संचालित सत्याग्रह-आंदोलनों में से अधिकतर सामूहिक आंदोलन थे। दूसरी ओर उनका 1940 का व्यक्तिक सत्याग्रह तथा उनके सत्रह उपवास व्यक्तिक सत्याग्रह के उदाहरण हैं।[1] इस तरह सत्याग्रह व्यक्तिगत एवं सामूहिक किया जा सकता है। 
     सत्याग्रह का प्रयोग न केवल अत्याचारी अथवा अन्यायी सरकार अथवा उसके काले क़ानूनों के विरुद्ध किया जा सकता है, बल्कि सामाजिक व्यवस्थाओं, परिस्थितियों व परिपाटियों के विरुद्ध भी किया जा सकता है, क्योंकि वो भी काले क़ानूनों की तरह दोषपूर्ण अथवा अन्याय पर आधारित हो सकते हैं।[2] गांधीजी के सत्याग्रह का प्रयोग केवल उन मामलों में किया जा सकता है जो निजी न होकर, सामुदायिक, सामूहिक अथवा सार्वजनिक हित के हों, क्योंकि सत्याग्रह में स्वार्थ का कोई स्थान नहीं है। सत्याग्रह केवल समान हितों की प्राप्ति के लिए किया जा सकता है। सत्याग्रह का प्रयोग केवल उन हालातों में किया जा सकता है जहां किसी से कोई ऐसा काम करने को कहा जाए जो अनैतिक अथवा अन्यायपूर्ण हो और जो किसी के विवेक अथवा आत्मा को स्वीकार्य न हो। साइमन पैंटरब्रिक के अनुसार, “गांधी ने स्वयं सत्याग्रह का प्रयोग उन हालात में किया जिनमें सरकार ने ऐसे कानून अथवा आदेश जारी किए जो लोगों को अनुचित, अनैतिक अथवा अन्यायपूर्ण कार्य करने को उकसाते थे”[3] फिर भी जब-जब सरकार ने लोगों को भड़काने वाले आदेश या काला कानून बनाए या उन पर अनुचित प्रतिबंध लगाए तो ऐसे मौकों पर गांधीजी ने सत्याग्रह आंदोलन का श्री गणेश किया।
सत्याग्रह के प्रतिनिधि की योग्यतायें
      सत्याग्रह आंदोलन शुरू करने से पहले रणनीति का होना आवश्यक होता है उसी रणनीति की कड़ी में सत्याग्रह संचालक का होना आवश्यक होता है जिससे सत्याग्रह आंदोलन को मूर्तरूप देने में आसानी होती है। गांधीजी मानते थे कि अपने विवेक और आत्मा का अनुसरण करने वाला कोई भी व्यक्ति सत्याग्रह आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग ले सकता है, लेकिन जहां तक सत्याग्रह आंदोलन के संचालक का प्रश्न है, उसमें कार्य सुयोग्य, सुशिक्षित तथा प्रशिक्षित व्यक्ति के हाथ में होना चाहिए। ऐसे व्यक्ति के हाथ में जिसकी सत्याग्रह के आधारभूत सिद्धांतों में आस्था हो, जिसने सत्याग्रह साधनों का प्रशिक्षण प्राप्त किया हो तथा जिसे सत्याग्रह का प्रत्यक्ष अनुभव हो। गांधीजी ने अपने स्वयं के अनुभव एवं ज्ञान के आधार पर सत्याग्रही की योग्यताओं तथा गुणों को रेखाकित किया है जिनमें सर्वप्रमुख हैं[4]-
क.   वह या तो स्वयं भुक्तभोगी हो अथवा भुक्तभोगियों का आमंत्रित तथा अधिकृत प्रतिनिधि हो।
ख.   सत्य एवं अहिंसा में मन, वचन और कर्म से आस्था हो।
ग.     वह गीता में वर्णित स्थितप्रज्ञ सा हो अथवा सुख-दुख, हार-जीत जैसी परिस्थितियों में विचलित होने वाला न हो।
घ.    वह सामान्यत: कानूनों का पालन करने वाला नागरिक हो।
ङ.    वह जागरूक, अनुशासनशील तथा सत्याग्रह के सिद्धांतों तथा रणनीति में पूर्णत: प्रशिक्षित हो।
च.    वह दयाभाव, परमार्थ तथा आंतरिक एवं बाह्य भद्रता से ओत-प्रोत हो तथा लोभ, मोह, क्रोध, लालच, कामुकता, घमंड तथा असत्य से परे हो।
छ.    वह विवेक, आत्मा, वाद-विवाद, आत्मपीड़न व आत्मबलिदान के मार्ग पर चलकर एक ऐसे विकल्प की खोज में हो जो अंतत: सभी को स्वीकार्य हो।
ज.    वह अपने तथा अपने प्रतिपक्षी के परस्पर पक्षों के गुण व दोषों का सामूहिक रूप से विश्लेषण करे। किसी से कुछ छिपाए नहीं और जैसे ही उसे अपनी गलती का अहसास हो जाए, उसे दूर करने व सुधार करने के लिए तत्पर रहें।
झ.    वह अपने प्रतिपक्षी की कमजोरी या मजबूरी का अनुचित फायदा उठाने की कोशिश न करे। तथा
ञ.    वह ऐसा कोई कदम न उठाए जो सत्याग्रह के मौलिक सिद्धांतों के विपरीत हो।
          गांधीजी प्रत्येक सत्याग्रही में ये सारे लक्षण मौजूद देखना चाहते थे, फिर भी यदि संभव ना हो सके तो सत्याग्रह आंदोलन के नेता में ये सारे लक्षण का मौजूद रहना आवश्यक है। तभी सही अर्थों में सत्याग्रह हो सकेगा। इस तरह सत्याग्रही विभिन्न नियम के तहत बंधा रहता है।  

    संपर्क: अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र, 442005, मो. नं. 9763710526,  ई-मेल chandankumarjrf@gmail.com 
       
 संदर्भ सूची: 


[1] रतन, राम एवं शोभिका, शारदा; महात्मा गांधी की राजनैतिक अवधारणायें, कालिंगा पब्लिकेशन्स, दिल्ली, 1992, पृ. 103
[2] वही,  
[3] वही, पृ. 103-4
[4] वही, पृ. 104-5 

सत्याग्रह का उद्देश्य

                                                                                                    - चन्दन कुमार, एस आर एफ(यूजीसी)
पी -एच. डी. ,अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा.
सत्याग्रह किसी भी नैतिक रूप से वांछनीय उद्देश्य की प्राप्ति के लिए किया जा सकता है। गांधीजी ने जिन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए सत्याग्रह किए, उनसे ऐसे अनेक उद्देश्यों के उदाहरण मिलते हैं, जिनकी प्राप्ति के लिए सत्याग्रह का सहारा लिया गया ओर लिया जा सकता है। अपने नकारात्मक रूप में, सत्याग्रह अन्याय के विरुद्ध अहिंसक संघर्ष है और सकारात्मक दृष्टि से यह जन-कल्याण की दिशा में रचनात्मक कार्यक्रम का एक मार्ग है। वास्तव में सत्याग्रह उन नैतिक अधिकारों, स्वतंत्रताओं व अवसरों को प्राप्त करने का एक ऐसा साधन है, जो राज्य के हर व्यक्ति को सत्याग्रह के हर विधा की जानकारी होनी चाहिए। यह एक ऐसा रास्ता है जिसके द्वारा लोग अपनी शिकायतों की सुनवाई करावा सकते है और उन्हें दूर करवा सकते हैं। यह विवादों व समस्याओं के अहिंसक तथा स्थायी समाधान का एक अचूक साधन है। यह उन व्यवस्थाओं, नीतियों, क़ानूनों व आदेशों के उल्लंघन का एक विधि-सम्मत रास्ता है, जिन्हें व्यक्ति की आत्मा व विवेक स्वीकार न कर सकें।[1] सत्याग्रह कानून की अवहेलना करने के लिए नहीं किया जाता है बल्कि सत्याग्रही कानून की अवहेलना करने के बजाय, उसके उन प्रावधानों की अवहेलना करता है, जो अनैतिक अथवा अनुचित हों। यदि उनके स्थान पर नैतिक तथा औचित्यपूर्ण प्रावधान बना दिये जाएँ तो न केवल स्वयं कानून की गुणवत्ता बदेगी, बल्कि लोग भी उन्हें बिना किसी दबाब, डर, लोभ तथा लालच के सहर्ष को स्वीकार कर लेगा। इस प्रकार एक सत्याग्रही जो सामान्यत: कानूनों का पालन करता है, वह सत्याग्रह के माध्यम से क़ानूनों में ऐसे संशोधन की मांग करता है जिन से वो अधिक औचित्यपूर्ण तथा स्वीकार्य बन जाएँ। इस प्रकार वह तो राज्य का मित्र होता है, शत्रु नहीं।[2] गांधीजी के विभिन्न सत्याग्रहों के अध्ययन से ऐसा लगता है कि इसका प्रयोग किसी भी ऐसे उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए किया जा सकता है, जो स्वार्थपूर्ण न होकर समाज के कल्याण के लिए हो। यह सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक परिवर्तन का एक सकारात्मक तथा सबल साधन[3] एवं अहिंसक है।  

     सत्याग्रह कर्म और कर्ता में विभेद करता है और बुराई या गलती करने वाले पर आक्रमण करने के बजाय, उसके कुकर्म पर आक्रमण करता है। ऐसा करके वह अपने तथाकथित शत्रु को बुराई अथवा अन्याय का मुक़ाबला करने की दिशा में अपना सहयोगी बना लेता है। अपने विपक्षी अथवा शत्रु को सहपक्षी, सहयोगी तथा अंत में मित्र बना लेता है और यह सब वो अपने प्रतिपक्षी को सता कर, ब्लैकमेल करके या उसकी कमजोरी का फायदा उठाकर नहीं करता है, बल्कि उसकी बात सुन, समझ व मान कर और अपनी बात सुनवा, समझा व मनवा कर करता है। वह अपने प्रतिद्वंदी अथवा प्रतिपक्षी से तर्क करता है, उससे वाद-विवाद करता है, उसकी आत्मा को झकझोरता है, जितनी बात उसकी सही लगे उसे स्वीकार करता है और यदि इस सब से सफलता न मिले, तो अपने विपक्षी को पीड़ित करने के बजाय आत्मपीड़न तथा आत्म-बलिदान तक के लिए तैयार करता है।[4] रिचर्ड ग्रैग के अनुसार, सत्याग्रह एक ऐसा त्रिपक्षीय दर्पण है, जिसमें एक और सत्याग्रही अपने आपको विपक्षी की दृष्टि से देखता है, दूसरी ओर विपक्षी अपने आप को सत्याग्रही की दृष्टि से देखता है तथा तीसरी ओर दर्शक सत्याग्रही व उसके विपक्षी दोनों का परस्पर रूप देखते हैं और निर्णय करते हैं कि कौन कितना सही है और कितना गलत। इस प्रकार सत्याग्रह हृदय-परिवर्तन तथा जनजागरण का एक सबल साधन है। इसके द्वारा सत्याग्रही अपने विपक्षी को सत्य और न्याय का रास्ता चुनने और असत्य व अन्याय का मार्ग त्यागने के लिए प्रेरित करता है। वह अपने विपक्षी को यह भी समझाने का प्रयत्न करता है कि सताए जाने वाले के प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष, सक्रिय अथवा निष्क्रिय सहयोग के बिना सताने वाला अपने उद्देश्य में सफल हो ही नहीं सकता।[5] जिस तरह सत्याग्रही अन्याय करने वाले का अन्याय से पीछा छुड़ा कर उसे न्याय के रास्ते पर लाने का प्रयत्न करता है उसी तरह सत्याग्रही में भी परिवर्तन होता है तथा उसे महान बना देता है। गांधीजी ने सत्याग्रह के द्वारा न केवल अपने शत्रुओं को अपना सहपक्षी, सहयोगी तथा मित्र बना लिया, बल्कि वे स्वयं भी एक मामूली वकील से महात्मा बन[6] सत्य का मार्ग अपनाया।  
     सत्याग्रह दर्शकों अथवा सामान्य लोगों के जीवन की गुणवत्ता का भी विकास करता है। अपने समय की समस्याओं व विवादों के प्रति उनमें जागरूकता पैदा करता है जिससे वे उनके परस्पर गुण-अवगुणों को ध्यान में रखते हुए यह निश्चित कर सकें कि कौन कितना सही है व कौन कितना गलत। इस प्रक्रिया से आम लोग भी भले-बुरे, सही-गलत अथवा न्याय-अन्याय के बीच विभेद करना सीख जाते हैं और उनमें असीम सामाजिक व राजनैतिक जागरूकता आ जाती है, भले ही वो अशिक्षित क्यों न हो। इस प्रकार सत्याग्रह अत्याचारी, सत्याग्रही तथा सामान्य दर्शकों सभी का समान रूप से उद्धार करता है, उन्हें जागरूक व शिक्षित बनाता है और उनके जीवन की गुणवत्ता को बढ़ाता है। इन सभी के लिए सत्याग्रह एक ऐसा माहौल पैदा करता है, जिसमें हर व्यक्ति अपने विवेक तथा आत्मा की आवाज को सुनकर, सभी समस्याओं व विवादों का अहिंसक तथा स्थायी समाधान निकाल सकता है और एक ऐसे विकल्प पर पहुँच जा सकता है जो अंतत: सबको स्वीकार्य[7] एवं सामाजिक न्याय के अनुकूल हो। 
   
संपर्क: अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालयवर्धामहाराष्ट्र, 442005, मो. नं. 9763710526,  ई-मेल chandankumarjrf@gmail.com 



संदर्भ सूची 

  1. [1] रतन, राम एवं शोभिका, शारदा; महात्मा गांधी की राजनैतिक अवधारणायें, कालिंगा पब्लिकेशन्स, दिल्ली, 1992, पृ. 101  
  2. [2] वही,    
  3. [3] वही,  
  4. [4] वही, पृ. 101-2
  5. [5] वही, पृ. 102
  6. [6] वही,
  7. [7] रतन, राम एवं शोभिका, शारदा; महात्मा गांधी की राजनैतिक अवधारणायें, कालिंगा पब्लिकेशन्स, दिल्ली, 1992, पृ. 102

सत्याग्रह

- चन्दन कुमार, एसआरएफ(यूजीसी)
पी -एच. डी. ,अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा.
         
गांधीजी की मान्यता थी कि दुनियाँ में कहीं भी, कभी भी हिंसा अथवा युद्ध से किसी भी समस्या या विवाद का स्थायी समाधान नहीं हुआ है। युद्ध से समस्या कुछ समय के लिए टल तो जाती है। बलवान (हथियार से सम्पन्न) कमजोर को हरा कर, उस से तात्कालिक रूप से जबरदस्ती अपनी बात मनवा तो लेता है, लेकिन हिंसा या युद्ध से कोई ऐसा समाधान नहीं निकलता जो पक्ष तथा विपक्ष दोनों को स्वेच्छा से स्वीकार्य हो। हिंसा का जबाब जब हिंसा से दिया जाता है, तो उससे हिंसा ही बढ़ती है, किसी समष्या का समाधान नहीं होता है। इसके विपरीत, गांधी की मान्यता थी की असली संघर्ष समरूप शक्तियों के बीच न होकर, परस्पर विरोधी ताकतों के बीच होता है। हिंसा के विरुद्ध संघर्ष, हिंसा की विपरीत ताकत, अहिंसा के द्वारा होना चाहिए। अहिंसा ही हिंसा का अंत कर सकती है, उसे कम कर सकती है। हिंसा का जबाब यदि हिंसा से दिया जाएगा तो उससे हिंसा बढ़ेगी ही, कम नहीं होगी। गांधीजी के सत्याग्रह दर्शन को ध्यान में रखते हुए जॉन बान्डयूरैन्ट इस निष्कर्ष पर पहुंची कि गांधीजी संघर्ष को स्वीकार करते हैं, पर हिंसा को नहीं। इसी आधार पर, के. एल. श्रीधारानी ने गांधीजी के सत्याग्रह को “हिंसा विहीन युद्ध” की संज्ञा दी[1] है।
          गांधीजी को सत्य एवं अहिंसा में आस्था रहने के कारण ही सत्याग्रह में भी साध्य और साधन की एकरूपता है। साध्य उतना ही पुनीत होगा जितना उसे प्राप्त करने के लिए अपनाए गए साधन, गांधीजी के अनुसार साध्य को साधनों से अलग नहीं किया जा सकता है। साध्य अथवा लक्ष्य उतना ही औचित्यपूर्ण होगा, जीतने औचित्यपूर्ण उसकी प्राप्ति के लिए अपनाए गए साधन। इस प्रकार गांधीजी साधनों को साध्य से अलग नहीं करते हैं क्योंकि साध्य, साधनों की अंतिम कड़ी है अथवा अंतिम सीढ़ी है।
सत्याग्रह अन्याय के विरुद्ध एक ऐसा अहिंसक संघर्ष है जिसमें मन, वचन तथा कर्म से हिंसा का त्याग करके, अहिंसा को एक सिद्धान्त के रूप में स्वीकार किया जाता है। इसमें ऐसे साधनों को अपनाया जाता है जो नैतिक, उचित तथा साध्य के अनुरूप हों, और जिनमें संघर्ष का टार्गेट अथवा निशाना अन्याय होता है, अन्याय करने वाला नहीं।[2] गांधीजी के अनुसार, सत्याग्रह असत्य व अन्याय के विरुद्ध एक ऐसा अहिंसक संघर्ष है जो नैतिक रूप से सक्षम व सतर्क हो। सत्याग्रह कमजोर, कायर अथवा असहाय का साधन नहीं है। जिस व्यक्ति की सत्य व न्याय में आस्था ही नहीं होगी, वह भले-बुरे, सत्य-असत्य, न्याय-अन्याय के भेद को कैसे जानेगा और जिसे अपने साध्य व साधनों का समुचित शिक्षण-प्रशिक्षण नहीं होगा, वह संघर्ष कैसे करेगा। इस प्रकार, गांधी के अनुसार, सत्याग्रह नैतिक रूप से सक्षम, सक्रिय व सतर्क लोगों के द्वारा किया जाने वाला संघर्ष है, न कि असहाय, कायर अथवा डरपोक लोगों का। गांधी के सत्याग्रह का आधार सत्याग्रह की नैतिक शक्ति है। उसकी नैतिकता के मूल्यों के प्रति जागरूकता तथा उनमें आस्था वैसी ही होनी चाहिए, जैसी पारंपरिक हिंसक युद्ध में योद्धा की शारीरिक शक्ति तथा अस्त्र-शस्त्र की शक्ति के प्रति होती है। नैतिक शक्ति शारीरिक शक्ति से श्रेष्ठ होती है। सत्याग्रह संघर्ष में, हिंसक युद्ध की तुलना में अधिक बहादुरी की आवश्यकता होती है। इस प्रकार सत्याग्रह बहादुरों एवं वीरों का संघर्ष है, न कि कायरों का।[3] कायर तो टिक ही नहीं सकता।
गांधीजी ने आत्मपीड़न, आत्मत्याग अथवा आत्मबलिदान को सत्याग्रह की आत्मा का नाम दिया है। गांधीजी की मान्यता थी कि सत्याग्रही जिस बात को सत्य व न्यायोचित मानता है, उसे उसके लिए अपने आप को पीड़ित करना चाहिए, अपने तन को कष्ट देना चाहिए, न कि अपने सत्य को मनवाने के लिए अपने विरोधी को सताना, पीड़ित करना या मार डालना चाहिए। .....सत्य पर अडिग रहने के लिए अपना बलिदान देना तो न्यायोचित है, पर अपने विरोधी का बलिदान लेना सर्वथा अनुचित है, क्योंकि सत्याग्रही का प्रतिपक्षी तो सत्याग्रही के कथित सत्य को सत्य मानता ही नहीं। इसके विपरीत यदि सत्याग्रही असत्य के विरुद्ध अपने संघर्ष में आत्म-बलिदान के रास्ते पर चलेगा और यदि सत्य व न्याय वास्तव में उसके साथ होगा, तो उसका बलिदान किसी नेक साध्य की प्राप्ति के लिए नेक साधन के रूप में स्वीकार किया जाएगा। दूसरी ओर यदि वह असत्य व अन्याय को सत्य व न्याय मानने का हठधर्म कर रहा होगा, तो उसका बलिदान उसके अपने हठधर्म का उचित दंड होगा। नैतिक नियम भी यही है कि हम अपनी गलतियों के लिए अपने आप को दंडित करें, न कि अपने विरोधियों को।[4] विरोधियों को गलती का अहसास कराना सत्याग्रह द्वारा संभव है।  
          गांधीजी ने संघर्ष का लक्ष्य सदा बुराई को बनाया है, न कि बुरे अथवा बुराई करने वालों को। उनकी मान्यता थी कि यदि हम उस व्यक्ति के जो, किसी कारणवश, हमारा विरोधी हो गया है, विरोध का कारण जान लें और उसे दूर कर दें, तो हमारा विरोध अथवा विपक्षी हमारा दुश्मन न रहकर, संभवत: हमारा दोस्त बन जाएगा। गांधीजी टालस्टाय के इस कथन से सहमत थे कि यदि घृणा करनी ही हो तो पाप से करनी चाहिए, न कि पापी से। यदि पापी का पाप समाप्त हो जाएगा, यदि पापी पाप का साथ छोड़ देगा तो वह पापी न रहेगा, वह सुधार जाएगा, पुण्यात्मा हो जाएगा। दूसरी ओर, यदि पापी की पाप से मुक्ति कराने के बजाए उसे यातना दी जाए, अथवा उसकी हत्या कर दी जाए, तो उससे उसका पाप समाप्त नहीं होगा, उसका रुख और कड़ा हो जाएगा, वह निष्ठुर हो जाएगा। इसलिए विपक्षी को सताने, पीड़ित करने या उसकी हत्या करने के बजाय, उसकी पाप से मुक्ति करानी चाहिए, जिससे उसका पाप समाप्त हो जाए, उसकी सोच बादल जाए, वह अपने विवेक व आत्मा की आवाज के अनुसार चलने लग जाए, अपने पाप को पहचान ले और उसका साथ छोड़ कर, अपनी दैविक, तार्किक व सामाजिक प्रकृति का अनुसरण करके, एक नेक इंसान की तरह जीवनयापन करने लग जाये। ऐसा करने से उसका हृदय परिवर्तन हो जाएगा। वह अपराधी अथवा पापात्मा से पुण्यात्मा हो जाएगा, प्रतिपक्षी से सहपक्षी और फिर मित्र हो जाएगा।[5] सत्याग्रह किसी नीति, कानून, व्यवस्था अथवा व्यवहार विशेष के विरुद्ध संघर्ष तक ही सीमित नहीं है। अपने व्यापक रूप में, सत्याग्रह सोचने और जीने का एक ऐसा मार्ग है जो हमें आत्म-त्याग व अनेकानेक न्यायोचित तथा अहिंसक साधनों के द्वारा तथा न्याय के रास्ते पर प्रशस्त करता है, असत्य, अन्याय व बुराई पर वार करता है तथा विरोध अथवा तथाकथित शत्रु का हृदय परिवर्तन करके उसे पहले सहपक्षी तथा अंत में मित्र बना देता है। जेम्स लूथर एडम्स ने गांधी के सत्याग्रह को एक ऐसा सिद्धान्त व साधन माना है, जिसमें निम्नलिखित विशेषताएं हैं[6]-
क.   अहिंसा पर आधारित
ख.   गोपनीयता का अभाव
ग.     अन्याय पर आधारित कानून में संशोधन अथवा उसकी समाप्ती के लिए किया जाए तथा
घ.    जिसमें सत्याग्रही कानून की अवहेलना के लिए प्रस्तावित दंड को सहर्ष स्वीकार करने के लिए तत्पर हो।
     इस तरह जेम्स लूथर एडम्स ने सत्याग्रही को सत्याग्रह करने से पहले की चिंतन से अवगत कराया है।
     जॉन बान्डयूरैन्ट ने गांधीजी के सत्याग्रह व दुराग्रह में मौलिक विभेद को स्वीकार किया है। उनके अनुसार दुराग्रही सत्य, न्याय व सदाचार पर अपना एकाधिकार साबित करने का प्रयत्न करता है। वह यह समझता है कि वह सही है, गलत हो ही नहीं सकता है और दूसरी ओर उसका विरोध करना गलत है, सही हो ही नहीं सकता है। वह अपने विरोधी अथवा विपक्षी को स्पष्टीकरण का अवसर दिए बिना ही उसकी बात अथवा व्यवहार को अपने पूर्व-निर्णय के आधार पर पहले ही गलत अथवा अनुचित मान लेता है और उस पर आक्रमण कर देता है। सत्याग्रही के मुक़ाबले में दुराग्रही के सोचने तथा संघर्ष करने का तरीका तर्क पर आधारित न होकर, पूर्व-निर्णय के सिद्धान्त पर आधारित होता है।[7] दूसरी ओर दुराग्रही के मन में (गलत होने पर भी) एक प्रकार का डर भी सताता है उसको लगता है कि यदि सत्याग्रही की बातों को मान लेते है तो समाज में मेरी इज्जत न होकर सत्याग्रही की इज्जत करने लगेंगे मेरी प्रतिष्ठा धूमिल हो जाएगी। इसीलिए दुराग्रही अपने विपक्षी को अपना शत्रु मान लेता है, बुराई का पुतला मान लेता है तथा बुराई पर हमला करने के बजाय, बुरे पर हमला करता है। वह उसको सताता है, ब्लैकमेल करता है, उसे नीचा दिखाने और उसे अंतत: हराने के लिए हर संभव प्रयत्न करता है तथा उसे अपनी बात समझाने व कहने का अवसर भी नहीं देता है।[8] दूसरी और सत्याग्रही ये मान कर चलता है कि उसका विरोधी सही हो सकता है ओर वह स्वयं गलत हो सकता है। यही मान कर वह अपने विरोधी को न केवल अपना पक्ष समझाता है, बल्कि उसका पक्ष भी सुनने, समझने तथा जहां तक संभव हो स्वीकार करने के लिए तत्पर रहता है। वह अपने विपक्षी को उसके पक्ष की संभावित विकल्प प्रस्तुत करता है जो उसे स्वीकार करने का अवसर देता है और उसके सामने ऐसे सत्याग्रही अपने तथाकथित शत्रु को मित्र बनाने का भरसक प्रयत्न करता है, जिससे दोनों मिलकर बुराई व अन्याय का मुक़ाबला कर सकें।[9] इस तरह सत्याग्रह सत्य की राह है जिसपर चलकर अन्याय का प्रतीकार किया जाता है।

संपर्क: अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र, 442005, मो. नं. 9763710526,  ई-मेल chandankumarjrf@gmail.com 

संदर्भ सूची


[1] रतन, राम एवं शोभिका, शारदा; महात्मा गांधी की राजनैतिक अवधारणायें, कालिंगा पब्लिकेशन्स, दिल्ली, 1992, पृ. 95-96 
[2] वही, पृ. 98
[3] वही, पृ. 98
[4] वही, पृ. 99
[5] वही, पृ. 96-97
[6] वही, पृ. 99-100 
[7] वही, पृ. 100
[8] वही
[9] वही 

Saturday, 5 September 2015

लोकतंत्र, सत्याग्रह और गांधी


- चन्दन कुमार, एस आर एफ (यूजीसी)
पी -एच. डी. ,अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा.
लोकतंत्र के लिए सत्याग्रह जीवन अमृत है, अच्छी शासन व्यवस्था को कायम रखने के लिए। लोकतंत्र शासन की एक प्रणाली है और शासन कि किसी भी अन्य प्रणाली की तरह उसके भी अपने गुण-दोष होते है। लोकतांत्रिक सरकार स्वेच्छाचारी, भ्रष्ट और केंद्रित व्यवस्था का समर्थक होने पर जनता की स्वतंत्रता और गरिमा खतरे में पड़ जाती है, जिसके फलस्वरूप गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई, भूखमरी, भ्रष्टाचार, घूसख़ोरी, कालाधन, अमीर-गरीब के बीच की चौड़ी खाई जैसी समस्या समाज में व्याप्त होने लगती है। इन समस्याओं से लोकतांत्रिक सरकार को रूबरू कराने या व्यवस्था परिवर्तन के लिए सत्याग्रह की आवश्यकता अनिवार्य हो जाती है क्योंकि लोकतंत्र में सत्याग्रह के सिवाय कोई दूसरा अहिंसक रास्ता अभी तक नहीं है। सत्याग्रह न तो लोकतंत्र का प्रतिवाद है और न उसके प्रतिवाद के रूप में इसके प्रयोग की समाज से सहयोग मिलता है। लोकतंत्र में सत्याग्रह की आवश्यकता तब नहीं हो सकती जब इसमें भ्रष्टाचार और व्यक्ति को पीड़ित करने या कराने की न कोई जगह बचता हो, जो वास्तव में असंभव जान प्रतीत होता है। गांधी जी का कहना है कि “मैं प्रत्येक नागरिक को यह बात मालूम कर दूँ कि सविनय प्रतिकार उनका जन्मसिद्ध अधिकार है। इसको खोना मानो मानत्व को खोना है।” जब लोकतंत्रिय व्यवस्था भ्रष्ट और कानूनहीन होने लगता है तो सत्याग्रह जनता का पवित्र कर्त्तव्य बन जाता है।
गांधीजी का मानना है कि लोकतन्त्र का अर्थ सभी की आम भलाई के लिए लोगों के सभी वर्गों के समस्त भौतिक, आर्थिक और आध्यात्मिक संसाधनों के जुटाव की कला तथा विज्ञान से है। गांधीजी लोकतंत्र में प्रचलित संसदीय प्रणाली में अविश्वास व्यक्त 1909 में ही हिन्द स्वराज नामक पुस्तक में व्यक्त किया था। गांधीजी ने संसदों की जननी ब्रिटिश संसद की कटु आलोचना करते हुए बांझ और बेसवा कहा है। बांझ इसलिए की उसने कभी कोई अच्छा काम अपने आप नहीं किया। अगर उस पर ज़ोर दबाव डालने वाला कोई न हो तो वह कुछ भी न करे, ऐसी उसकी कुदरती हालत है और वह बेसवा इसलिए की जो मंत्री-मंडल उसे रखे उसके पास वह रहती है। संसद पर दबाव डालकर अच्छा काम सत्याग्रह द्वारा ही किया जा सकता है। गांधीजी का मानना है कि यदि मतदाता समझदार हैं और अच्छे-से-अच्छे सदस्य चुनकर संसद में भेजते हैं तो ऐसी संसद को प्रार्थना-पत्रों अथवा दबाव की जरूरत नहीं होनी चाहिए। ऐसी संसद का काम तो इतना अच्छा होना चाहिए कि दिन-प्रतिदिन उसका तेज बढ़ता नजर आए और लोगों पर उसका असर पड़ता जाये, लेकिन इसके विपरित संसद के सदस्य दिखावटी और स्वार्थी होते हैं। अपना मतलब साधने की सोचते हैं। संसद में बहुत अधिक अस्थिरता पाई जाती है और यही कारण है कि उसके फैसलों में पक्कापन नहीं होता। आज का फैसला कर रद्द कर दिया जाता है और सभ्भवत: अभी तक एक बार भी ऐसा नहीं हुआ कि संसद ने कोई काम करके उसे अंत तक पहुंचाया हो। जो आज के समय में भी देखने को मिलता है। गांधीजी ने प्रधानमंत्री के नेतृत्व पर संदेह व्यक्त करते हुए हिन्द स्वराज नामक पुस्तक में लिखा है कि प्रधानमंत्री को पार्लियामेंट की थोड़े ही परवाह रहती है। वह तो अपनी सत्ता के मद में मस्त रहता है। अपना दल कैसे जीते इसी की लगन उसे लगी रहती है। पार्लियामेंट सही काम कैसे करे, इसका वह बहुत कम विचार करता है। जिसे हम घूस कहते हैं वह घूस वे खुल्लमखुल्ला नहीं लेते-देते। वे दूसरों से काम निकालने के लिए उपाधि बैगरा की घूस बहुत देते हैं। उनमें शुद्ध भावना और सच्ची ईमानदारी नहीं होती।जिसके कारण सरकारी व्यवस्था ऊपर से लेकर नीचे तक भ्रष्टाचार में अकंट डूब जाता है।
            इस तरह जब लोकतन्त्र में सारी प्रक्रिया जनता के शोषण पर आधारित हो जाती है। तब लोकतन्त्र में सत्याग्रह अनिवार्य हो जाता है।




 संपर्क: अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, पंचटीला वर्धा, महाराष्ट्र (442005), मो. 9763710526, ई-मेल chandankumarjrf@gmail.com    

सुकरात एक अध्ययन


                    - चन्दन कुमार, एस आर एफ (यूजीसी)
पी -एच. डी. ,अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा.
         
           65 वर्ष की अवस्था में एथेंस परिषद अथवा कौंसिल के सदस्य बने।
सुकरात का जन्म एथेंस में लगभग 470 ईसा पूर्व एवं मृत्यु 399 ईसा पूर्व माना जाता रहा है। वे सशस्त्र पैदल सेना के सिपाही थे एवं थ्रेस के युद्ध में एथेंस की ओर से भाग लिया था।
          सुकरात शिल्पी का पुत्र होते हुए सारा जीवन, जीवन-दर्शन को समझने और बदलने में लगा दिया। सत्य की खोज या सत्य ज्ञान की खोज में अपना जीवन साधक के रूप में अर्पित किया। उनपर कानून के विरुद्ध कार्य करने का अभियोग चलाकर प्राणदंड देने की सजा मिली, लेकिन वे अपने दर्शन से विचलित नहीं हुए। उनके साथियों ने कारागार से भाग जाने की सलाह भी दी लेकिन उन सलाह को नहीं मानते हुए यह कहकर नाकार दिया कि, कानून और एथेंस दोनों को क्षति पहुंचेगी एवं यह अपराध कहलाएगा।
          सुकरात ने सत्य, ज्ञान, और न्याय को एथेंस के नागरिकों में प्रचारित किया। उन्होंने तर्क की शक्ति विकसित की। सत्य के अन्वेषन और अज्ञानता का पर्दाफाश करने के लिए संवाद-प्रणाली को अपनाया। वे किसी भी व्यक्ति से न्याय, सदाचार, भक्ति, साहस आदि जैसे शब्दों के अर्थ से प्रश्नोत्तरों द्वारा व्यक्ति के विचारों को जानते हुए असंगतियों को ढूंढते और ज्ञान की दिशा की ओर उसे ले जाते थे। कई लोग संवाद में पराजित होकर अपमान महसूस करते थे। प्रश्नोत्तर और परिभाषाओं की उनकी पद्धति ज्ञान अर्जित करने की व्यावहारिक और नूतन पद्धति माना जा सकता है। उनके द्वारा इस तरह के कार्य का मुख्य उद्देश्य अज्ञानता का भंडाफोड़ कर सत्यता से परिचय कराना मात्र था।
          सुकरात का ज्ञान सिद्धान्त ज्ञान-द्वय का सिद्धान्त कहलाता है। पहला बाह्य ज्ञान और दूसरा वास्तविक ज्ञान। पहला बाह्य ज्ञान- बाह्य ज्ञान में उन्होंने इंद्रिय ज्ञान को रखा है, जिसको मनुष्य कानों से सुनकर, आँख से देखकर एवं नाक से सूंघकर आदि प्राप्त करता है। इस ज्ञान को दिखावटी एवं लोक व्यवहार पर निर्भर मानते है। इसका कोई दृढ़ आधार नहीं होता है। इस ज्ञान में परिवर्तन एवं अदल-बदल हो सकते है। दूसरा वास्तविक ज्ञान- सुकरात का मानना है कि समस्त भौतिक पदार्थ के पीछे एक तत्व छिपा रहता है, सभी भौतिक वस्तुएँ किसी ऐसे विचार एवं सत्ता का प्रतिनिधि होते हैं, जो शाश्वत, अटल एवं अनश्वर है। इसी का साक्षात्कार करना प्रत्येक मानव का लक्ष्य होना चाहिए। इसी को सुकरात ने वास्तविक एवं यथार्थ ज्ञान कहा है। इस तरह के प्राप्त ज्ञान को अचल, अडिग एवं अटल माना। इसमें परिवर्तन या संशोधन की जरा भी संभावना नहीं होती है। यह अमर सत्य होता है। ज्ञान प्राप्ति की कसौटी में सुकरात ने 'क्या' एवं 'कैसे' को न मानकर क्यों का उत्तर ढूँढना माना है। सुकरात मानते हैं कि ज्ञान ही धर्म है और अज्ञानता पाप, यदि ज्ञान हो जाए तो लोग पाप-कर्म नहीं करेंगे। सत्य बोलने का ज्ञान प्राप्त हो और उसे आचरण में नहीं ला पाते तो हममें केवल भ्रांति है, वास्तविक ज्ञान नहीं है। सत्य ज्ञान वह है जिसके साथ आचरण है। आचरण के बिना ज्ञान निर्थक और निष्फल होता है।
          सुकरात राजनीति को कला मानते है। जिसमें विशेष निपुणता की आवश्यकता होती है। प्रत्येक एवं साधारण व्यक्ति में नहीं होता। इस कला को केवल ज्ञानी व्यक्ति ही सीख सकता एवं शासन कर सकता है, जिसे सभी व्यक्तियों के साथ संबंध रखना पड़ता है। राजनीति एक कला है तो राजनीतिज्ञ कलाकार। राजनीति विशेषज्ञों का क्षेत्र होता है, जिसका निर्णय बहुसंख्यकों द्वारा करना भयानक भूल मानते है।
          एथेंस की राजनीति व्यवस्था से सुकरात क्षुब्ध थे। वहाँ चुनाव लॉटरी एवं पर्ची डाल कर होता था, जिसके कारण अयोग्य और साधारण व्यक्ति भी उच्च पदों को प्राप्त कर लेता था। सुकरात ने इस प्रथा का विरोध किया और तर्क दिया कि जब हम जूते की मरम्मत के लिए मोची को खोजते हैं और लकड़ी के समान की मरम्मत के लिए बढ़ई को, तो राज्य संचालन के लिए प्रशासनिक कला में दक्ष व्यक्ति को क्यों नहीं आमंत्रित कर सकते हैं। सुकरात राजनीतिज्ञों का गुण मानते है जन हितैषी होना एवं बुद्धिमान होना। इस तरह सुकरात शासन व्यवस्था को केवल बुद्धिमान व्यक्तियों का कार्य मानते हैं।
          कानून को तोड़ना सुकरात राज्य के विपरीत कार्य मानते हैं। सुकरात राज्य के कानून को ईश्वर का आदेश मानते है। कानून को नागरिकों के कार्यों की सुविधा के लिए स्वीकृत समझौता मानते हैं, जिसके बाहर न तो वे कार्य कर सकते हैं और न उसके विपरीत जाना पसंद करते है।
          मानव प्रकृति के दो स्वरूप की चर्चा करते है। जिसमें पहला कमजोर स्वरूप और दूसरा शक्तिशाली स्वरूप। कमजोर स्वरूप में मानव को लोभी, स्वार्थी एवं अकल्याणकारी माना है। उसे पशु की कोटी में मानते हैं। जिसमें मनुष्य वासनाओं के वशीभूत होकर कार्य करते हैं। दूसरा शक्तिशाली स्वरूप में मनुष्य को कल्याणकारी बताया है। जिसमें मनुष्य लोकहित के कार्य करते हैं।
          सुकरात की मृत्यु के बाद उनकी शिक्षाओं से प्रभावित होकर दो संप्रदाय का जन्म हुआ सिनिक्स तथा साइरेनेइक्स। सिनिक्स संप्रदाय के जन्मदाता एटीस्थेनीज़ और साइरेनेइक्स के एरिस्तिप्पस थे। सिनिक शब्द का अर्थ कुत्ता होता है। रूढ़ियों तथा नियमों की घोर उपेक्षा करने के कारण सिनिक्स कहा गया। सभी समर्थक सामाजिक नियमों के विद्रोही एवं विरोधी थे। साइरेनेइक्स संप्रदाय के जन्मदाता एरिस्तिप्पस अफ्रीका के उत्तरी समुद्र तट के पास स्थित साइरीनी नामक नगर के रहने के कारण इस संप्रदाय को साइरेनेइक्स कहा गया। दोनों अनुयायी सुकरात के आत्मज्ञान सिद्धान्त से प्रभावित थे। किसी भी सामाजिक संस्था को उपयोगी नहीं मानते थे। सारा विश्व ही उनका राज्य था, वे अपने को विश्व नागरिक मानते थे। राज्य सत्ता को स्वीकार नहीं करते थे और न ही अपने को राज्य नागरिक मानते थे। इन्होंने विश्व नागरिकता का विचार दिया, समानता और बंधुत्व में विश्वास प्रकट किया, प्राकृतिक जीवन की ओर लौटो का सिद्धान्त दिया, बनावटी एवं कृत्रिमता का विरोध किया, व्यक्ति की उन्नति के लिए राज्य को अनावश्यक माना।
               
संपर्क: अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, पंचटीला वर्धा, महाराष्ट्र (442005), मो. 9763710526, ई-मेल chandankumarjrf@gmail.com