Saturday, 29 August 2015

अरस्तू एक अध्ययन

अरस्तू एक अध्ययन
       - चन्दन कुमार, एस आर एफ (यूजीसी)
पी -एच. डी. ,अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा.
अरस्तू को राजनीति शास्त्र का जनक से जानते है, लेकिन अरस्तू दास प्रथा के उत्प्रेरक है। अरस्तू प्लेटो के शिष्य थे, 20 वर्षों तक शिक्षा पायी थी। अरस्तू का जन्म मेसीडोनिया सागर के किनारे स्थित स्टेगिरा नामक ग्रीक उपनिवेश में 384 ईस्वी पूर्व में हुआ था। अरस्तू की महानता हमें उनके जीवन में नहीं देखने को मिलती है, उनकी लेखन कृतियों में देखने को मिलती है। अरस्तू का मानना है कि, जो समाज में नहीं रहता वह देवता है अथवा दानव।
अरस्तू ने राज्य की उत्पत्ति के तीन चरण बताए हैं। पहला, परिवार एवं राज्य की उत्पत्ति, जिसमें उनका मानना है कि, राज्य के अस्तित्व में आने की प्रक्रिया में परिवार पहली इकाई है। दूसरा, गाँव एवं राज्य की उत्पत्ति, जिसमें उनका मानना है कि, राज्य की उत्पत्ति में गाँव दूसरा स्तर है। तीसरा, राज्य, जिसमें उनका मानना है कि, विकास की इस प्रक्रिया में तीसरा चरण राज्य का होता है। जब कई गाँव इकट्ठे होते हैं, तब राज्य का निर्माण होता है। राज्य के स्वरूप के बारे में अरस्तू का मानना है कि, राज्य एक स्वाभाविक संस्था है, राज्य का स्थान परिवार से पहले है, राज्य एक सर्वोच्च व आत्मनिर्भर समुदाय है, राज्य का स्वरूप जैविक है। राज्य के उद्देश्य के बारे में अरस्तू का मानना है कि, राज्य का अस्तित्व केवल जीवन के लिए नहीं, वरन अच्छे जीवन के लिए है। कई विद्वानों ने अरस्तू के राज्य विषयक मूल्यांकन किया है, जिसमें मानना है कि, परिवार को मानव संगठन की पहली इकाए मानना त्रुटिपूर्ण है। परिवार का उद्भव बाद में हुआ जब लोगों में सार्वजनिक नैतिकता की भावना पैदा हुई और उन्होंने उस प्रारंभिक जीवन के ढंग को त्याग दिया, जिसमें स्त्री व पुरुष पशुओं की तरह परस्पर मिलते थे। आकस्मिक व अस्थायी संसर्ग करके यह जाने बिना अलग हो जाते थे और बाद में इसका कोई पता नहीं रहता था कि उससे संसर्ग से होने वाली संतान के माता-पिता कौन थे। राज्य को मानव शरीर ही मान लेना अनुचित है। राज्य की वेदी पर व्यक्ति का बलिदान करना अरस्तू की भूल है। राज्य के उद्देश्य व कार्य संबंधी विचार अस्पष्ट हैं।
दासता संबंधी अरस्तू के विचार अमानुषिक एवं प्रतिक्रियावादी हैं। अरस्तू मानते है कि, प्रकृति द्वारा कोई भी बेमतलब काम नहीं किया जाता है। प्रकृति लोगों को शासक और शासित की श्रेणी में बांटती है। ये क्षमता सबमें नहीं बल्कि कुछ ही लोगों में पाई जाती हैं। इनके बीच की यह असमानता न्यायपूर्ण है। अरस्तू का यह मानना है कि, दासों और सेवकों का होना उसी प्रकार स्वभाविक व आवश्यक है जिसप्रकार संतान उत्पादन के लिए स्त्री का होना। दास का यंत्र से तुलना अरस्तू करते है। दास का गुण सिर्फ आज्ञा पालन का होना चाहिए। दासता का औचित्य इसलिए मानते है कि प्रकृति में जन्मजात असमानता है। यह प्राकृतिक वास्तविकता है, स्वामी वर्ग की आवश्यकता के लिए दास वर्ग का होना जरूरी है।
अरस्तू के शिक्षा विचार में शिक्षा का अर्थ नागरिकों को संविधान के अनुसार जीवन व्यतीत करने की शिक्षा देने से है। अरस्तू स्त्रियों की शिक्षा की बात करते है, लेकिन पुरुषों जैसी शिक्षा देने की बात नहीं करते है, क्योंकि दोनों के कार्य क्षेत्र अलग-अलग है। स्त्रियों द्वारा राजनीति में भाग लेने का समर्थन करते है। शिक्षा को तीन क्रम में बांटते हुए पहला क्रम में 1 से 6 वर्ष के बच्चे को रखा है जिसमें भोजन व्यवस्था तथा शारीरिक विकास की बात करते है। द्वितीय क्रम में 7 से 14 वर्ष के बच्चों को रखा है, जिसमें बच्चे लिखना-पढ़ना, चित्रकला, संगीत जैसे विषय सीखें। तृतीय क्रम में 14 से 21 वर्ष के बच्चों को रखा है, जिसमें बच्चों का चारित्रिक और मानसिक विकास हो।
शासनों का वर्गिकरण अरस्तू ने इस प्रकार किया है। जब शासन एक व्यक्ति, कुछ व्यक्तियों अथवा बहुसंख्यक व्यक्तियों द्वारा सामान्य हित साधना की दृष्टि से किया जाता है, तो वह शासन का शुद्ध रूप होता है, पर जब शासन चाहे वह व्यक्ति का हो, या कुछ व्यक्तियों का हो अथवा बहुसंख्यक व्यक्तियों का हो, सार्वजनिक हित की साधना की दृष्टि से नहीं किया जाता है, तो उसका रूप विकृत शासन का होता है। राज्य व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के तीन सिद्धान्त दिए है। पहला, जब एक व्यक्ति के हाथ में सत्ता होती है उसे राजतंत्र कहा है जो राज्य का विशुद्ध रूप है। जब यह विकृत हो जाता है तब अत्याचारी शासन में तब्दील हो जाता। दूसरा, कुछ व्यक्तियों द्वारा जब सत्ता धारण किया जाता है तो राज्य का विशुद्ध रूप कुलीन तंत्र कहलाता है। जब यह विकृत हो जाता है तब यह वर्ग तंत्र या गुट तंत्र का रूप ग्रहण कर लेता है। तीसरा, जब समस्त या अधिकांश व्यक्ति के हाथ में सत्ता आती है, तो राज्य का शुद्ध रूप वैधानिक राजतंत्र का होता है, लेकिन जब यह विकृत हो जाता है तो वह भिड़तन्त्र में तब्दील हो जाता है। इस तरह अरस्तू का मानना है कि शासन का कोई भी रूप स्थायी नहीं है परिवर्तन का स्वरूप चक्रिय होता है। शासन के तीनों रूपों में से अरस्तू ने राजतंत्र को शासन का आदर्श रूप माना है। जो व्यक्ति सर्वगुण संपन्न हो और जो राज्य की सब प्रजा के विविध रूपों से ज्ञात हो ऐसे व्यक्ति को सच्चे रूप से मनुष्यों में ईश्वर माना जा सकता है। निर्धनता को क्रांति एवं अपराध की जननी मानते है। निर्धनों की संख्या अधिक होने पर राज्य का अंत शीघ्र हो जाता है।
संपत्ति संबंधी विचार में अरस्तू का मानना है कि, संपत्ति व धन को घर एवं राज्य के लिए उपयोगी है। संपत्ति गृहस्थी का भाग होता है इसलिए संपत्ति गृहस्थों के लिए अर्थशास्त्र है। अच्छा जीवन जीने के लिए संपत्ति का होना आवश्यक है। अरस्तू संपत्ति कि अत्यधिक असमानता को उचित नहीं मानते है, इसे वर्ग-विद्वेष फैलाने वाला भी मानते है।

इस तरह अरस्तू के विचार अपने है जो समाज को समझते हुए उन्होंने दिए हैं। 

संपर्क: संस्कृति विद्यापीठ, अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र. (442005) मो.- 09763710526;ईमेल:chandankumarjrf@gmail.com

Thursday, 6 August 2015

स्वदेशी और गांधी


- चन्दन कुमार, एस आर एफ(यूजीसी)
पी -एच. डी. ,अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा.
मो.-09763710526 ; ई मेल:chandankumarjrf@gmail.com 
         
गांधीजी स्वदेशी को व्रत के रूप में स्वीकार करते है। व्रत का अर्थ होता है अडिग निश्चय। अड़चनों को पार करने के लिए ही व्रत की आवश्यकता होती है। अड़चन बरदाश्त करते हुए भी जो टूटता नहीं, वही अडिग निश्चय माना जाता है। ऐसे निश्चय के बगैर मनुष्य लगातार ऊपर चढ़ ही नहीं सकता[1] है। गांधीजी भारतीय अर्थव्यवस्था में हो रहे बदलाव से वाकिफ थे। लघु एवं कुटीर उद्योगों का ह्रास बड़े पैमाने पर हो रहा था। सभी व्यक्तियों को रोजगार कैसे मिले इसके लिए स्वदेशी को व्रत के रूप में अपनाने कि वकालत गांधीजी की रही। भारत अपने ताकत के बल पर उन्नत कैसे बना रहे इसकी चिंता को दूर करने के लिए स्वदेशी जैसे विचार पर बल देना गांधीजी के लिए आवश्यक प्रतीत हुआ। गांधीजी सब का उदय और सबों के द्वारा उदय की कामना स्वदेशी विचार से संभव बनाने के लिए स्वदेशी को व्रत रूप में अपनाना चाहते थे। गांधीजी का स्वदेशी विचार राष्ट्र और गांव को उन्नत बनाने का रहा है। स्वदेशी का पालन करते हुए मौत हो जाए तो भी अच्छा है, पर परदेशी तो खतरनाक ही है। स्वधर्म यानि स्वदेशी।[2] स्वदेश में निर्मित वस्तु का उपयोग यानि पड़ोसी से प्रेम का दर्शन है। स्वदेशी-व्रत का पालन करने वाला हमेशा अपने आस-पास निरीक्षण करता है और जहां-जहां पड़ोसियों की सेवा की जा सकती है। यानी जहां उनके हाथ का तैयार किया हुआ जरूरत का माल होगा वहाँ दूसरा माल छोड़कर उसे लेगा। फिर भले ही स्वदेशी चीज पहले-पहल महंगी और घटिया दर्जे की हो। व्रतधारी उसे सुधारने की कोशिश करेगा; स्वदेशी चीज खराब है इसलिए कायर बनकर परदेशी का इस्तेमाल करने नहीं लग जाएगा।[3] स्वदेश भावना वह भावना है जो हमें दूर-दराज के इलाकों को छोड़कर अपने समीपस्थ क्षेत्रों का उपयोग करने और उनकी सेवा करने तक सीमित करती है।[4] गांधीजी आम आदमी की घोर निर्धनता का सबसे बड़ा कारण आर्थिक और औद्योगिक क्षेत्र में स्वदेशी का त्याग मानते है। यदि एक भी चीज भारत के बाहर से न खरीदी जाती तो इस देश में घी-दूध की नदियां बह रही होती[5] अर्थात गांधीजी देश का पैसा देश में ही स्वदेश विचार के द्वारा रखने की बात करते है।
          स्वदेशी व्रत जानने वालों को कुएं में डूब मरने की बात गांधीजी नहीं करते है। जो चीज स्वदेश में नहीं बनती या बड़ी तकलीफ से बन सकती हो, उसे परदेश के द्वेष (डाह) के कारण वह अपने देश में बनाने लग जाए, तो उसको गांधीजी स्वदेशी-धर्म नहीं मानते है। स्वदेशी धर्म का पालन करने वाला परदेशी का द्वेष कभी नहीं करता है। इसलिए पूर्ण स्वदेशी में किसी का द्वेष नहीं है। वह संकुचित धर्म नहीं है। वह प्रेम से- अहिंसा से- निकाला हुआ सुंदर धर्म है।[6] गांधीजी कहते है कि मैं भारत के जरूरतमन्द करोड़ों निर्धनों द्वारा काते और बुने गए कपड़े को खरीदने से इंकार करना और विदेशी कपड़े को खरीदना पाप समझता हूँ, भले ही वह भारत के हाथ से कते कपड़े की तुलना में कितने ही बढ़िया किस्म का हो।[7] स्वदेशी के सिद्धान्त का पालन करने पर यह कर्त्तव्य हो जाता है कि ऐसे पड़ोसियों की खोज होनी चाहिए जो हमारी आवश्यकता की वस्तुएं हमें दे सकें और यदि वे किन्हीं वस्तुओं का उत्पादन करने में असमर्थ हों तो उन्हें उपेक्षित प्रशिक्षण दें।...यदि ऐसा होगा तो भारत का प्रत्येक गांव लगभग स्वावलंबी और स्वत:पूर्ण हो जाएगा और वह दूसरे गांवों के साथ उन्हीं आवश्यक वस्तुओं की अदला-बदली करेगा जिनका उत्पादन संभव नहीं है।[8] शिक्षा के मामले में भी स्वदेशी की भावना के घातक त्याग से देश को बहुत अधिक हानि पहुंची है। हमारे शिक्षित वर्ग की शिक्षा विदेशी भाषा के माध्यम से हुई है। इसका परिणाम यह हुआ है कि वे आम जनता के साथ तादात्म्य नहीं कर पाए। वे आम-जनता का प्रतिनिधित्व करना चाहते हैं, लेकिन उसमें सफल नहीं हो पाते। आम लोग उसे उसी अपरिचय की दृष्टि से देखते हैं जिस दृष्टि से वे अंग्रेज़ अधिकारियों को देखते थे। दिल से जुड़ाव तो स्वदेश में स्वदेशी भाषा से ली गई शिक्षा में है।
          गांधीजी का मानना है कि स्वदेशी को न समझने से गड़बड़ी पैदा होती है। कुटुंब पर मोह रखकर उससे झूठा लाड़-प्यार करना, उसके खातिर धन चुराना, दूसरी चालें चलना, यह स्वदेशी नहीं है। स्वदेशी का पालन करते हुए कुटुंब की क़ुरबानी भी करनी पड़ती है। लेकिन ऐसा करना पड़े तो उसमें भी कुटुंब की सेवा होनी चाहिए। उदाहरण स्वरूप गांधीजी समझाते हुए कहते है कि मान लीजिए कि मेरे गांव में महामारी फैली है। उस बीमारी में फंसे हुए लोगों की सेवा में मैं अपने को, अपनी पत्नी को, पुत्रों को और पौत्रियों को अगर लगाऊँ और उस बीमारी में फँसकर सब मौत की शरण चले जाए, तो मैंने कुटुंब का नाश नहीं किया, मैंने उसकी सेवा ही की है। स्वदेशी में कोई स्वार्थ नहीं है; अगर है तो वह शुद्ध स्वार्थ है। शुद्ध स्वार्थ यानि परमार्थ; शुद्ध स्वदेशी यानि परमार्थ की आखिरी हद।[9] जो व्यक्ति दूरस्थ दृश्य के आकर्षणों में फँसकर दुनिया के दूसरे कोने तक सेवा करने के लिए भागता है, वह न केवल अपनी आकांक्षा की पूर्ति में असफल होता है बल्कि अपने पड़ोसियों के प्रति अपने कर्तव्य से भी विमुख होता है।[10] गांधीजी का मानना है कि व्यक्ति एक ही साथ अपने पड़ौसियों और मानवता की सेवा कर सकता है; शर्त यही है कि पड़ौसियों की सेवा के पीछे स्वार्थ या अनन्यता का भाव न हो, अर्थात उसमें अन्य व्यक्तियों का शोषण निहित न हो। तब पड़ौसी भी उस भावना को समझ सकेंगे जिस भावना से आप उनकी सेवा करना चाहते हैं। वे यह भी जान जाएंगे कि बदले में उन्हें भी अपने पड़ौसियों की सेवा करनी है। इस प्रकार इस सेवाभाव की गुणोत्तर वृद्धि होती जाएगी और यह समूची दुनिया को समाविष्ट कर लेगी। इसका तात्पर्य यह हुआ कि स्वदेशी वह भावना है जो आपको अन्य लोगों की चिंता किए बिना अपने निकटस्थ पड़ौसी की सेवा के लिए प्रेरित करती है। शर्त यह यह कि, पड़ौसी भी, बदले में, अपने पड़ौसी की सेवा करे। इस अर्थ में, स्वदेशी में अनन्यता का कोई भाव नहीं है। इसमें केवल इस वैज्ञानिक मर्यादा को स्वीकार किया गया है कि मनुष्य की सेवा करने की सामर्थ्य की भी एक सीमा है।[11] स्वदेशी के लिए जीवन की इस योजना के तहत गांधीजी दूसरे सभी देशों को छोड़कर केवल भारत की सेवा कर किसी अन्य देश कोई क्षति नहीं पहुंचाना चाहते है। गांधीजी का राष्ट्रप्रेम व्यावर्तक भी है और समावेशी भी। व्यावर्तक इस अर्थ में है कि गांधीजी पूरी विनम्रता के साथ अपना ध्यान अपनी जन्मभूमि तक सीमित रखते है और समावेशी इस अर्थ में है कि सेवा का स्वरूप स्पर्धात्मक या विरोधात्मक बिलकुल नहीं है। विदेश में निर्मित हर चीज को त्याज्य समझना स्वदेशी के अर्थ में गांधीजी की मंशा नहीं है। स्वदेशी की मोटी परिभाषा यह है कि देशी उद्योगों को संरक्षण प्रदान करने के लिए विदेशी वस्तुओं का त्याग करके देशी वस्तुओं का इस्तेमाल करना चाहिए। यह बात उन उद्योगों पर खास तौर से लागू होती है जिनके नष्ट होने पर भारत कंगाल हो जाएगा। स्वदेशी का अभिप्राय घृणा फैलाने का अभियान नहीं है। यह निस्वार्थ सेवा का सिद्धान्त है जिसकी जड़ में विशुद्ध अहिंसा अर्थात प्रेम है।[12] जो सबों को आपस में एकता के सूत्र में पिरोये रखता है।
          इस तरह गांधीजी का स्वदेशी विचार पड़ोसी से प्रेम एवं आत्म निर्भर बनाने के साथ-ही-साथ देश को उन्नत बनाने का रहा है। यदि सभी पड़ोसी एक दूसरे की सेवा स्वदेशी विचार से करने लगे तो भारत को आत्मनिर्भर देश बनने में समय नहीं लगेगा।  
  




[1] गांधीजी; मंगल-प्रभात, नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद, ग्यारहवाँ, पुनर्मुद्रण, 1958, पृ. 59
[2] वही; पृ. 55 
[3] वही; पृ. 57-58  
[4] प्रभु, आर. के. एवं राव, यू. आर.; महात्मा गांधी के विचार, संकलन एवं संपादन, नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, आठवीं आवृत्ती, 2011, पृ. 394-395
[5] वही; पृ. 396
[6] गांधीजी; मंगल-प्रभात, पूर्वोक्त, पृ. 58
[7] यंग इंडिया; 12-3-1925
[8] प्रभु, आर. के. एवं राव, यू. आर.; पूर्वोक्त, पृ. 396
[9] गांधीजी; मंगल-प्रभात, पूर्वोक्त, 1958, पृ. 56 
[10] प्रभु, आर. के. एवं राव, यू. आर.; पूर्वोक्त, पृ. 399
[11] हरिजन; 23-7-1947
[12] प्रभु, आर. के. एवं राव, यू. आर.; पूर्वोक्त, पृ. 400 

Tuesday, 4 August 2015

सर्वोदय और गांधी


- चन्दन कुमार, एसआरएफ(यूजीसी)
पी -एच. डी. ,अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा.
मो.-09763710526 ; ई मेल:chandankumarjrf@gmail.com 
         
     , सर्वोदय का शाब्दिक अर्थ सब का उदय,’ सब प्रकार से उदय और सब तरह से उदय से लिया गया है। सबका उदय सर्वोदय का लक्ष्य है, सब प्रकार से उदय इसकी विशेषता है और सब के द्वारा उदय इसका साधन है।[1] जब सब प्रकार से उदय की बात की जाती है, तो वह धर्म की दृष्टि से की जाती है, जिसमें लौकिक और पारलौकिक उत्थान, शास्त्रीय भाषा में अभ्युदय और नि:श्रेयस सिद्धि दोनों का समावेश है। अत: सर्वोदय में लौकिक और पारलौकिक दोनों प्रकार के लक्ष्यों की सिद्धि का आदर्श है।[2] सर्वोदय में सबका जीवन साथ-साथ सम्पन्न की बात है। जीवन का अर्थ विकास, अभ्युदय या उन्नति है। सबका विकास हो इसके लिए सर्वोदय है। 
सर्वोदय मानव जाति का साध्य एवं साधन है
          रस्किन की पुस्तक अंटू दिस लास्ट 1904 में पोलक ने जोहान्सबर्ग से डरबन की रेल यात्रा में गांधीजी को जाने से पहले पढ़ने को दी थी। आत्मकथा में गांधीजी ने लिखा है कि इस पुस्तक को हाथ में लेने के बाद मैं छोड़ ही न सका। इसने मुझे जकड़ लिया। ट्रेन शाम को डरबन पहुंची। सारी रात मुझे नींद नहीं आई। इसी क्रम में आगे इस पुस्तक के बारे में कहते है कि, पहली बात मैं जानता था, दूसरी बात धुंधली रूप में मेरे सामने थी, पर तीसरी बात का तो मैंने विचार ही नहीं किया था। अनटू दिस लास्ट पुस्तक ने सूर्य के प्रकाश की भांति गांधीजी के समक्ष यह बात स्पष्ट कर दी कि पहली बात में ही दूसरी और तीसरी बातें भी समायी हुई हैं। गांधीजी ने 1908 में इस पुस्तक का गुजराती में अनुवाद कर सर्वोदय नामक पुस्तक लिखी।
          सर्वोदय का दर्शन धर्म ग्रन्थों के उद्गारों में भी देखने को मिलता है। वेद सभी प्राणियों के उदय की बात करता है। सर्वे भवन्तु सुखिन:, सर्वे संतु निरामया:, सर्वे भद्राणि पश्यंतु, मा कश्चित दु:ख भाग भवेत में सर्वोदय का ही भाव छिपा है। इशावास्योपनिषद के प्रथम श्लोक ईशावास्यमिदम सर्वं यत किंचित जगत्यांजगत। तेन त्यक्तेन भुंजीथा: मा ग्रीध: कश्यश्चिदधनम तथा गीता के आत्मवत सर्वभूतेषु और सर्वभूत हितो रता: में सर्वोदय का ही भाव है। स्पष्ट रूप से सर्वोदय का प्रयोग सर्वप्रथम जैनाचार्य समंत भद्र ने सर्वोदय-तीर्थ के रूप में किया था।[3] सचमुच में सर्वोदय का विचार नया नहीं लेकिन आधुनिक युग में सर्वोदय शब्द का व्यापक प्रयोग एवं सर्वोदय का कार्य गांधीजी द्वारा प्रारंभ किया गया। गांधीजी ने सर्वोदय को तीन वाक्यों में सूत्रबद्ध करने का प्रयास किया है-
क.   सबों की भलाई में ही अपनी भलाई है।
ख.   नाई और वकील के काम का समान मूल्य है। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति को व्यवसाय द्वारा आजीविका चलाने का समान अधिकार है।
ग.     किसान, कारीगर और मजदूर का जीवन ही सच्चा जीवन है।
          गांधीजी इन सिद्धांतों पर अमल करते हुए कार्य करते रहे। गांधीजी का कहना है कि मैं अनटू दिस लास्ट वाक्यांश के निहितार्थ का समर्थक हूँ। इस पुस्तक ने मेरे जीवन की दिशा ही बदल दी। हमें दुनिया से जो कुछ चाहिए, वह पहले हम खुद दुनिया के दिनतम व्यक्ति को उपलब्ध कराएं। सभी व्यक्तियों को समान अवसर मिलना चाहिए। अवसर मिले तो प्रत्येक व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास की एक जैसी संभावना है।[4] जबकि आज के संदर्भ में देखे तो कुछ ही लोग सारी वर्चस्व का एकाधिकारी है। सर्वोदय का दर्शन समग्र जीवन के लिए निरपेक्ष और सार्वभौम होता है।
          सर्वोदय की दृष्टि से जीवन विज्ञान भी है, कला भी। जीवमात्र के लिए, प्राणिमात्र के लिए समादर, प्रत्येक के प्रति सहानुभूति ही सर्वोदय का मार्ग है। जीवमात्र के लिए सहानुभूति का यह अमृत जब जीवन में प्रवाहित होता है, तो सर्वोदय की लता में सुरभिपूर्ण सुमन खिल उठते हैं।[5] सर्वोदय कहता है कि तुम दूसरों को जिलाने के लिए जियो। मैं तुम्हें जिलाने के लिए जीऊँ। तभी और केवल तभी सबका जीवन सम्पन्न होगा, दूसरों को अपना बनाने के लिए प्रेम का विस्तार करना पड़ता है, इसके लिए अहिंसा का विकास करना पड़ता है। सामाजिक मूल्यों में परिवर्तन करना पड़ता है। सर्वोदय जीवन के शाश्वत और व्यापक मूल्यों की स्थापना चाहता है और बाधक मूल्यों का निराकरण। सर्वोदय वर्ग-विहीन, जाति-विहीन और शोषण-विहीन समाज की स्थापना का ब्रह्मास्त्र है। जिसके द्वारा प्रत्येक व्यक्ति और समूह के सर्वांगीण विकास का मार्ग प्रसस्त करता है।
          सर्वोदय कहता है- जो तोकूँ कांटा बुवै, ताहि बोउ तू फूल पत्थर का जवाब पत्थर से देने में, अत्याचार का प्रतीकार अत्याचार से करने में, खून के बदले खून बहाने में कौन-सी क्रान्ति है? क्रान्ति तो है दुश्मन को गले लगाने में, क्रान्ति तो है अत्याचारी को क्षमा करने में, क्रान्ति तो है गिरे हुए को ऊपर उठाने में और इस क्रान्ति का साधन है- ह्रदय-परिवर्तन, जीवन-शुद्धि, साधन-शुद्धि और प्रेम का अधिकतम विस्तार।[6] ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत में लोगों का विश्वास बढ़ने लगेगा तो हमलोगों की दृष्टि में बदलाव निश्चित है। फिर न तो किसी से द्वेष करने का प्रसंग उठेगा, न किसी से मत्सर। किसी को सताने, किसी का शोषण करने, किसी के प्रति अन्याय करने का प्रश्न ही नहीं उठेगा। जो तू है, वही मैं हूँ! यह भाव आते ही सारे भेदभाव दूर खड़े झख मारेंगे। घर में, परिवार में हम जैसे प्रेम से रहते हैं, हँसते-हँसते जैसे दूसरों के लिए कष्ट उठाते हैं, हर व्यक्ति की सुख-सुविधा का जैसे ध्यान रखते हैं, वैसे ही हम सारे विश्व का, मानवमात्र का, प्राणिमात्र का ध्यान रखेंगे। वसुधैव कुटुंबकम की भावना हमारी रग-रग में भीद जाएगी।[7] सर्वोदय मानवीय विभूति के विज्ञान में विश्वास करता है। मानव भी उसके लिए विभूति है, सृष्टि भी, देश-काल भी। वह मानता है- फलनिरपेक्ष कर्तव्य हमारा धर्म है। उसकी मान्यता है- मेहनत इंसान की, दौलत भगवान की। मेहनत करना हमारा कर्तव्य है, फल समाज का। समाजाय इदं न मम और तेन त्यक्तेन भून्जीथा: उसका आदर्श है। वह पड़ोसी के लिए जीने की, पड़ोसी के लिए उत्पादन करने की और पड़ोसी का सुख-दु:ख बांटने की कला सिखाता है। वह यह मानता है कि हर बुरे आदमी में अच्छाई होती है। वह हर व्यक्ति के दैवी तत्त्वों के विकास में विश्वास करता है। उसकी मान्यता है कि पाप से घृणा करनी चाहिए, पापी से नहीं। उसकी दृष्टि में कोई छोटा नहीं, कोई बड़ा नहीं, कोई ऊंचा नहीं, कोई नीचा नहीं। सबका सर्वांगीण विकास उसका लक्ष्य है और प्राणिमात्र से तादात्म्य उसका साधन।[8]
          लोकतंत्र, शस्त्र-सत्ता और धन-सत्ता सारी मानव जाति के कल्याण में असफल होता जा रहा है। यंत्र और विज्ञान ने घुटने टेक दिए है उन परिस्थिति में सर्वोदय दर्शन ही एक मात्र उपाय है। मानव जिन प्रक्रियाओं का, जिन पद्धतियों का प्रयोग कर चुका है, उनके आगे का कदम सर्वोदय है। सृष्टि जिस रूप से हमारे सामने रही, उसको समझने का काम लगातार वैज्ञानिकों एवं दार्शनिकों ने साक्षात्कार एवं शोध के माध्यम से किया है। परंतु विश्व को परिवर्तित करने का कार्य न तो दार्शनिक ने किया और न वैज्ञानिक ने। अर्थशास्त्री ने भी वह कार्य नहीं किया। वह किया राज्यनेता ने- जो न तो दार्शनिक ही था, न वैज्ञानिक। जो लोग दर्शनमूढ़ थे, विज्ञानमूढ़ थे, उन्होंने ही समाज और सृष्टि को बदलने का काम अपने हाथों में लिया। परिणाम यही है कि, आज दार्शनिक अलग है, वैज्ञानिक अलग है, वैनागरिक अलग है। परंतु ऐसा विभाजन-भेद गलत है, कृत्रिम है, अवैज्ञानिक है, अप्राकृतिक है। इस द्वैत में से अद्वैत का, इस भेद में से अभेद का निर्माण हो नहीं सकता। जब तक अद्वैत और अभेद की स्थापना नहीं होती, समग्रता की दृष्टि से मानव के व्यक्तित्व के विकास की चेष्टा नहीं की जाति, तब तक न तो ये भेद मिटनेवाले हैं और न सच्ची लोकसत्ता का निर्माण होने वाला है।[9] सर्वोदय का विचार सबों को समाहित कर चलता है।
          सर्वोदय की पृष्ठभूमि आध्यात्मिक है। विज्ञान में एसी बात नहीं। विज्ञान अपने आविष्कारों से जनता को अनेक सुविधाएं प्रदान कर सकता है। वह भौतिक सुखों की व्यवस्था कर सकता है;...पर हर स्त्री को हर पुरुष की बहन बना देने की क्षमता उसमें नहीं। विज्ञान जीवन का बाहरी नकशा बदल सकता है, पर भीतरी नकशा बदलना उसके वश की बात नहीं।[10]  
          सर्वोदय एसी राजनीति का कायल नहीं है जिसमे लोभ, मोह, शोषण इत्यादि अवगुण समाहित रहे। वह लोकनीति का पक्षपाती है। राजनीति में जहां शासन मुख्य है, वहाँ लोकनीति में अनुशासन। राजनीति में जहां सत्ता मुख्य है, वहाँ लोकनीति में स्वतन्त्रता। राजनीति में जहां नियंत्रण मुख्य है, वहाँ लोकनीति में संयम। राजनीति में जहां सत्ता की स्पर्धा, अधिकारों की स्पर्धा मुख्य है, वहाँ लोकनीति में कर्तव्यों का आचरण। सर्वोदय का क्रम यही है कि हम शासन से अनुशासन की ओर, सत्ता से स्वतन्त्रता की ओर, नियंत्रण से संयम की ओर और अधिकारों की स्पर्धा से कर्तव्यों के आचरण की ओर बढ़ें।[11] राज्य-सत्ता पुलिस और सेना के सहारे- शस्त्र-सत्ता के सहारे जीती है, कानून की छत्रछाया में बढ़ती है, धन-सत्ता के भरोसे पलती-पनपती है और विज्ञान के जरिये विकसित होती है। परंतु इतने साधनों से सज्जित रहने पर भी वह शत प्रतिशत जनता को सुखी करने में अपने को असमर्थ पाती है। वह एक ओर अल्पसंख्यकों के प्रति अन्याय न होने देने का दावा करती है, दूसरी ओर बहुसंख्यकों के हितों की रक्षा का ढिंढोरा पीटती है। पर अल्पसंख्यक भी उसकी शिकायत करते हैं, बहुसंख्यक भी। कारण, उसका आदर्श रहता है- अधिक-से-अधिक लोगों का अधिक-से-अधिक सुख। उसने यह मान लिया है कि सबको तो हम अधिकतम सुख दे नहीं सकते, इसलिए अधिकतम लोगों को यदि हम अधिकतम सुख दे लें। तो हमारा कर्तव्य पूरा हो गया! हमारी आज की राजनीति इन्हीं आदर्शों पर चल रही है। पर इससे मानव जाति का कल्याण संभव नहीं[12] है।
          धन की सत्ता ने आज पूरे विश्व को मोहपास में बांध दिया है। आज पैसे से अस्मत लूट ली जाती है, पैसे पर न्याय बिक रहा है। विश्व का कौन सा अनर्थ है जो पैसे के बल पर या पैसे के लिए नहीं किया जा रहा है। अन्याय, घोटाला, बईमानी, हिंसा, भ्रष्टाचार, चोरी, डकैती इत्यादि सबकी जड़ में पैसा है। कंचन की इस माया में पड़कर मनुष्य अपना कर्तव्य भूल गया है, अपना दायित्व भूल गया है, अपना लक्ष्य भूल गया है। पैसे के कारण श्रम की प्रतिष्ठा मानव-जीवन से जाती रही है। मनुष्य येन-केन प्रकारेण सोने की हवेली खड़ी करने को आकुल है। पर वह यह बात भूल गया है कि सोने की लंका भस्म होकर ही रहती है। रावण का गगनचुंबी प्रासाद मिट्टी में ही मिलकर रहता है। अन्याय, शोषण, बेईमानी द्वारा इकट्ठी की गई संपत्ति द्वारा भौतिक सुख भले ही बटोर लिए जाएँ, उनसे आत्मिक सुख की उपलब्धि हो ही नहीं सकती। पैसा विश्व के अन्य सुख भले ही जूटा दे, परंतु उससे आत्मा की प्रसन्नता प्राप्त नहीं की जा सकती[13] है।
          सर्वोदय की ओर अग्रसर होने के लिए सत्य और अहिंसा का मार्ग अपनाना पड़ता है जिसमें गांधीजी के एकादश व्रत अपने-आप जुड़कर सर्वोदय का मार्ग आसान कर देता है। इसमें दृढ़ इच्छाशक्ति की आवश्यकता होती है।
                     
    




[1] सिंह, दशरथ; गांधीवाद को विनोबा की देन, बिहार हिन्दी ग्रंथ अकादमी, पटना, द्वितीय, 2000, पृ. 279
[2] वही; 
[3] वही;
[4] हरिजन; 17-11-1946
[5] धर्माधिकार, दादा; सर्वोदय-दर्शन, आमुख, सर्व-सेवा-संघ-प्रकाशन, राजघाट, वाराणसी, आठवाँ, मार्च, 1998, पृ. 5
[6] वही, पृ. 13
[7] वही;
[8] वही, पृ. 13-14  
[9] वही, पृ. 12
[10] वही, पृ. 6
[11] वही, पृ. 7  
[12] वही;
[13] वही, पृ. 6-7 

Saturday, 1 August 2015

मैथुन और गांधी


- चन्दन कुमार, एसआरएफ(यूजीसी)
पी -एच. डी. ,अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा.
मो.-09763710526 ; ई मेल:chandankumarjrf@gmail.com


        , दुनिया ईश्वर की लीलाभूमि है एवं उसकी महिमा का प्रतिबिंब है। इसलिए प्रजनन-कार्य को दुनिया की संवृद्धि के हित में नियंत्रित किया जाना आवश्यक है। जो व्यक्ति इस बात को समझता है, वह किसी भी कीमत पर अपनी कामुकता पर नियंत्रण रखता ही है, अपनी संतति के शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक कल्याण के लिए स्वयं को तैयार करता है और इस प्रकार अर्जित ज्ञान से संतति को लाभान्वित करता है। जननेन्द्रिय का एकमात्र और अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य संतानोत्पत्ति है और किसी अन्य प्रयोजन से सहवास करना वीर्य का आपराधिक अपव्यय है और उससे पुरुष और स्त्री को मिलने वाली उत्तेजना को ऊर्जा का वैसा ही आपराधिक अपव्यय[i] है। गांधीजी सहवास को भोग-विलास की वस्तु नहीं मानते हुए उसे सिर्फ संतानोत्पत्ति के लिए सहवास किया जाना मानते है। संतानोत्पत्ति की कामना न हो तो सहवास एक अपराध है।[ii]
 सोने और खाने की तरह ही मैथुन करना गांधीजी मूर्खता की चरम सीमा मानते है। दुनिया का अस्तित्व प्रजनन-कार्य पर निर्भर है
          गांधीजी का मानना है कि, मनुष्य ने विकास के आरंभिक चरण में ही यह जान लिया था कि उसे खाने की खातिर नहीं खाना चाहिए, जैसा कि हममें से कुछ लोग आज भी करते हैं, बल्कि जीवित रहने के लिए खाना चाहिए। आगे चलकर उसने यह जाना कि सिर्फ अपने ही लिए जीने में कोई खूबी या मजा नहीं है, बल्कि उसे अपने साथियों और उनके जरिए ईश्वर की सेवा के लिए जीना चाहिए। इसी प्रकार, जब उसने मैथुन से प्राप्त होने वाली आनंदानुभूति पर विचार किया तो उसने पाया कि अन्य इंद्रियों की भांति जननेन्द्रिय का भी उपयोग और दुरुपयोग है और उसने पाया कि इसका सच्चा कार्य अर्थात सही उपयोग इसे प्रजनन-क्रिया तक सीमित करने में है। उसे लगा कि इसका कोई अन्य उपयोग वीभत्स है जिससे  व्यक्ति तथा प्रजाति, दोनों के लिए बड़े गंभीर परिणाम हो सकते हैं।[iii] गांधीजी कामोत्तेजना को एक सुंदर और उदात चीज मानते है। इसमें लज्जा की कोई बात नहीं होनी चाहिए। इसका प्रयोजन केवल संतानोत्पत्ति ही होना चाहिए। कोई गलत मानसिकता ईश्वर तथा मानवता के विरुद्ध अपराध है।[iv]
          गांधीजी का मानना है कि जनसंख्या की वृद्धि कोई महासंकट नहीं है और न समझा जाना चाहिए। जन्म-दर का हौआ अक्सर खड़ा किया जाता रहा है। असली महासंकट तो कृत्रिम उपायों से उसका नियमन अथवा नियंत्रण है, हम इसे समझें या न समझें। अगर यह सर्वत्र लागू हो गया तो इससे निश्चित रूप से प्रजाति की गुणवत्ता घटेगी। लेकिन ईश्वर की कृपा से, यह कभी सर्वत्र लागू नहीं हो पाएगा। अनचाही संतानों के लिए उत्तरदाई घृणित काम लिप्सा का दंड हमें महामारियों, युद्ध और दुर्भिक्ष के रूप में भुगतना पड़ता है। यदि हम इन तीनों अभिशापों से बचना चाहते हैं तो हमें आत्मनियंत्रण की सर्वश्रेष्ठ विधि को अपनाकर स्वयं को अनचाही संतानों के अभिशाप से भी बचाना चाहिए।[v] गांधीजी आबादी की अधिकता को लेकर संतति-निग्रह के लिए सहमत नहीं है। गांधीजी की राय में उचित भूमि-व्यवस्था, बेहतर कृषि और पूरक उद्योगों के बल पर यह देश दूनी जनसंख्या का भरण-पोषण कर सकता है।[vi]
          गांधीजी को भय है कि, संतति-निग्रह के समर्थक यह मानकर चल रहे हैं कि कामवासना में लिप्त होना  जीवन के लिए आवश्यक है और यह स्वयं में एक वांछनीय चीज है। स्त्री जाति के प्रति जो सरोकार दिखाया जा रहा है, वह अत्यंत दयनीय है। गांधीजी कि राय में कृत्रिम उपायों से संतति-निग्रह के समर्थन में स्त्री जाती के पक्ष को उभारना उसका अपमान करना है। वस्तुस्थिति यह है कि मनुष्य ने अपनी कामलिप्सा के लिए स्त्री को पहले ही काफी नीचे गिरा दिया है, कृत्रिम उपाय उसका दर्जा और भी घाटा देंगे, भले ही इन उपायों के समर्थक की नियत कितनी ही साफ हो।[vii] गांधीजी कृत्रिम उपायों के समर्थकों से अनुरोधपूर्वक कहते हैं कि कृत्रिम उपायों का प्रयोग व्यापक पैमाने पर हुआ तो विवाह-बंधन का विघटन हो गाएगा और उसका स्थान स्वच्छंद प्रेम ले लेगा। अगर पुरुष कामवासना को ही लक्ष्य मानकर उसमें लिप्त रहने लगा तो वह उस समय क्या करेगा जब, मिसाल के तौर पर, उसे काफी दिनों के लिए घर से बाहर रहना हो अथवा लंबी लड़ाई में सिपाही के तौर पर भाग लेने के लिए जाना पड़े अथवा वह विधुर हो जाए अथवा उसकी पत्नी इतनी बीमार हो कि कृत्रिम उपाय का इस्तेमाल करने पर भी वह अपने स्वास्थ्य की हानि किए बगैर पति के साथ सहवास करने की स्थिति में न हो?[viii] गांधीजी को इसमें संदेह नहीं है कि गर्भ-निरोधकों के पक्ष में धुआंधार प्रचार करने वाले अनेक संतति-निग्रह-सुधारक उपकार की भावना से ही इस कार्य में लगे हैं। गांधीजी का अनुरोध है कि वे अपनी अनुचित उपकार-भावना के अनर्थकारी परिणामों पर विचार करें।[ix]
          संतति निग्रह की विधि आत्मनियंत्रण अर्थात ब्रह्मचर्य है। यह एक अचूक एवं सर्वश्रेष्ठ विधि है और उस पर आचरण करने वालों के लिए कल्याणकारी है। यदि चिकित्सा जगत के लिए संतति-निग्रह के कृत्रिम साधनों का आविष्कार करने के बजाए आत्मनियंत्रण के उपायों का पता लगा सकें तो वे मानवता का बड़ा उपकार करेंगे.... संतति-निग्रह के कृत्रिम साधन तो दुराचार को राह देने के समान हैं। इनसे स्त्री-पुरुषों में विवेकहीनता फैलती है। इनके औचित्य को जिस प्रकार रेखांकित किया जा रहा है, उससे उन संयमों का देखते-ही-देखते विघटन हो जाएगा जिन्हें मनुष्य जनमत का लिहाज करते हुए अपनाता है। कृत्रिम साधनों को अपनाने से निश्चय ही लोगों में मूढ़ता और स्नायविक दुर्बलता बढ़ेगी। इलाज बीमारी से भी ज्यादा हानिकारक सिद्ध होगा।[x]
          ईश्वर ने कृपा करके पुरुष को सर्वाधिक शक्तिशाली बीज दिया है और स्त्री को ऐसा उर्वर क्षेत्र दिया है जिसकी तुलना दुनिया के किसी क्षेत्र से नहीं की जा सकती। निश्चित रूप से यह पुरुष की घोर मूर्खता है यदि वह अपनी इस अमूल्य संपत्ति को व्यर्थ बहा दे। उसे अपने महंगे-से-महंगे मोतियों से भी ज्यादा सावधानी के साथ इसकी रक्षा करनी चाहिए। वह स्त्री घोर मूर्ख है जो अपने उर्वर क्षेत्र में पुरुष के बीज को यह जानते हुए भी ग्रहण करती है कि वह उसे व्यर्थ बह जाने देगी। पुरुष और स्त्री, दोनों ही प्रकृति से मिली अपनी क्षमताओं के दुरुपयोग के दोषी माने जाएंगे और प्रकृति उन्हें उनकी अमूल्य संपत्ति से वंचित कर देगी।[xi] अनचाही संतान पैदा करना पाप है, लेकिन गांधीजी इससे भी बड़ा पाप अपने किए के परिणामों से दूर भागने को बताते हुए मर्द को नामर्द बनाने वाली बात कहते है। यदि पुरुष स्त्री की भलाई चाहते हैं तो उन्हें अपने ऊपर नियंत्रण करना चाहिए। स्त्री पुरुष को नहीं लुभाती। वास्तव में, आक्रामक होने के कारण पुरुष ही सही अर्थों में दोषी है और लुभाता भी वही है।[xii] पुरुष को तब तक अपनी पत्नी का स्पर्श करने का अधिकार नहीं है जब तक कि वह संतान न चाहती हो और स्त्री के अंदर इतनी संकल्प-शक्ति होनी चाहिए कि वह अपने पति का भी प्रतिरोध कर सके।[xiii] स्त्री और पुरुष, दोनों को जानना चाहिए कि कामक्षुधा की तुष्टि को संयमित करने से कोई बीमारी नहीं लगती, बल्कि स्वास्थ्य और ओज में वृद्धि होती है बशर्ते कि मन भी शरीर के साथ सहयोग करे।[xiv] जिस प्रकार सत्य और अहिंसा केवल गिनेचुने लोगों के लिए नहीं है बल्कि समूची मानवता के दैनंदिन आचरण के लिए है, ठीक उसी प्रकार आत्मनियंत्रण केवल कुछ महात्माओं के लिए ही नहीं है बल्कि समूची मानवता के लिए है।[xv] गांधीजी वंध्याकरण को कानूनी रूप से थोपने को अमानवीय समझते है। जीर्ण रोगों से ग्रस्त व्यक्तियों के वंध्याकरण को वांछनीय समझते है। लेकिन वे राजी हो तब। वंध्यकरण एक गर्भ-निरोधक है। गांधीजी पुरुषों के वंध्याकरण का विरोध नहीं करते है क्योंकि वे मानते है कि पुरुष ही आक्रामक होता है।  इस तरह गांधीजी मैथुन को संयमित करते हुए मानव को पशुता की श्रेणी से ऊपर उठाकर आध्यात्मिकता की श्रेणी में लाना चाहते है।      





[i] हरिजन; 21-3-1936
[ii] यंग इंडिया; 12-3-1925
[iii] हरिजन; 4-4-1936
[iv] हरिजन; 28-3-1936 
[v] हरिजन; 31-3-1946
[vi] यंग इंडिया; 2-4-1925
[vii] यंग इंडिया; 2-4-1925
[viii] यंग इंडिया; 2-4-1925
[ix] हरिजन; 12-9-1936
[x] यंग इंडिया; 12-3-1925
[xi] हरिजन; 28-3-1936
[xii] यंग इंडिया; 2-4-1925
[xiii] हरिजन; 5-5-1946
[xiv] यंग इंडिया; 27-9-1925   
[xv] हरिजन; 30-5-1936