Thursday, 22 October 2015

स्मार्ट सिटी या आत्मा का कब्रिस्तान


       - चन्दन कुमार, एस आर एफ (यूजीसी)
पी -एच. डी., विकास एवं शांति अध्ययन विभाग
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा.
         
     स्मार्ट सिटी आत्मा का कब्रिस्तान है। भारत कृषि प्रधान गांवों का देश है। भारत की आत्मा गांव में निवास करती है एवं भारत माता ग्राम वासनी रही है। स्मार्ट सिटी एक साजिश है, गांव को पूर्ण रूप से उजाड़ने के लिए, ऐसा जान प्रतीत होता है। आज भी कई गांव बिजली, पानी, सड़क और उन्नत कृषि जैसी मूलभूत सुविधा से वंचित है। शहरीकरण का ही परिणाम गांवों को उजाड़ने के लिए काफी दिख पड़ता है, उसमें अब सरकार का कार्यान्वयन एवं घोषणा स्मार्ट सिटी बनाने की तो ये गांव के लिए काफी नुकसानदेह साबित होगा। स्मार्ट सिटी, पुराने शहरों को चुनकर स्मार्ट सिटी में तब्दील करने की है। यानि शहरों का अति विस्तार और श्रृंगार स्मार्ट सिटी है। स्मार्ट सिटी में आम लोगों की जरूरत की हर सुख-सुविधा उपलब्ध कराने की है। 
            स्मार्ट सिटी के प्रमुख अवसंरचना तत्वों में शामिल है- प्रयाप्त जलापूर्ति, सुनिश्चित विद्युत आपूर्ति, ठोस अपशिष्ट प्रबंधन सहित सफाई, सक्षम शहरी गतिशीलता और सार्वजनिक परिवहन, गरीबों के लिए किफायती आवास, सक्षम आईटी कनैक्टिविटी और डिजिटेलाइजेशन, सुशासन के अंतर्गत ई-गवर्नेंस और नागरिक भागीदारी, सुस्थिर पर्यावरण, महिलाओं, बच्चों और वृद्ध नागरिकों की सुरक्षा एवं स्वास्थ्य और शिक्षा। स्मार्ट सिटी मिशन का उद्देश्य लोगों के जीवन की गुणवत्ता में सुधार करने के लिए आर्थिक विकास करना, बेहतर स्थानीय क्षेत्र विकास और प्रौद्योगिकी का उपयोग शामिल है। क्षेत्र आधारित विकास स्लमों समेत विद्यमान क्षेत्रों (रिट्रोफिट और पुनर्विकास) को बेहतर नियोजित क्षेत्रों में बदल कर, संपूर्ण शहर की वास-योग्यता में इजाफा करना। शहरी क्षेत्रों में बढ़ रही जनसंख्या को स्थान मुहैया कराने के लिए शहरों के आस-पास नए क्षेत्रों (हरित क्षेत्र) को विकसित करना। स्मार्ट समाधानों के प्रयोग से शहरी अवस्थापन और सेवाएं बढ़ाने के लिए प्रौद्योगिकी जानकारी और आकड़ों का उपयोग करना। इस तरह के तरीके से व्यापक विकास, जीवन की गुणवत्ता बढ़ाना, रोजगार उत्पन्न करना और सभी के लिए विशेष तौर से गरीबों और वंचितों की आय बढ़ाते हुए समावेशी शहरों का मार्ग प्रशस्त करना। स्मार्ट सिटी की विशेषता में बेशुमार रहेगा- मिश्रित भूमि उपयोग को बढ़ावा, भीड़भाड़, वायु प्रदूषण एवं संसाधन विलोपन को कम करना, स्थानीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देना, परस्पर वार्तालाप तथा सुरक्षा सुनिश्चित करना, नागरिकों की जीवन गुणवत्ता बढ़ाना, क्षेत्रों में शहरी गर्मी के प्रभाव को कम करने तथा सामान्यतया पारिस्थितिकी की संतुलन को बढ़ावा देने के लिए खुले स्थानों, पार्कों, खेल के मैदानों और मनोरंजनात्मक स्थानों को परिरक्षित और विकसित करना, परिवहनोन्मुखी विकास, सार्वजनिक परिवहन और अंतिम दूरी पैरा परिवहन कनैक्टिविटी को बढ़ावा देना, ऑनलाइन मानीटरिंग, मोबाइल का उपयोग, नगर कार्यालयों में जाए बिना सेवाएँ प्रदान करना, स्थानीय आहार, स्वास्थ्य, शिक्षा, कला-कृतियों और शिल्प-संस्कृति, खेल की वस्तुओं, फर्नीचर, हौजरी, वस्त्र, डेरी इत्यादि जैसे इसके मुख्य कार्याकलापों के आधार पर शहर को एक पहचान देना, क्षेत्रों को आपदाओं से सुरक्षित बनाना, कम संसाधनों का उपयोग करना और सस्ती सेवाएं प्रदान करना है।  
            शहरीकरण का ही परिणाम रहा कि लधु एवं कुटीर उद्योग गांवों से पलायन कर शहरों में बड़े पैमाने पर बड़े उद्योगों के रूप में धारण कर लिया। आज गांव के किसान सिर्फ खेती के बल पर किसी तरह जीवित है। कृषि व्यवस्था दम तोड़ रही है। कृषि लागतों तथा उत्पादों पर कई तरह के संरक्षण और सबसिडियां उपलब्ध कराई जाती रही, इनमें से अधिकांश लाभान्वित होने वाले बड़े किसान एवं भू-माफिया ही रहते है। भूमि सुधारों को लागू न किए जाने से ग्रामीण अर्थव्यवस्था में विषमता के आधारों में लगातार विस्तार हुआ और देश की व्यापक कृषि आबादी, जिनमें बड़ा हिस्सा भूमिहीन मजदूरों के रूप में काम करने वालों का है, निरंतर पलायन के कारण कृषक के लिए गंभीर समस्या है। लागत मूल्य भी ऊपर कर पाना किसी-किसी किसान के लिए संभव नहीं हो पाता है। जिसके परिणामस्वरूप आज हमें किसान आत्महत्या के रूप में देखने-सुनने को मिल जाता है। इस तरह देश के किसानों-मजदूरों और कारीगरों के प्रति की गयी लापरवाही ने गांव को दरिद्र, मूढ़ और काहिल बनाकर छोड़ा है। गांवों के प्रतिनिधि, उनके हितों का पोषण करनेवाले नहीं, बल्कि उनके शोषक बनकर रह गए है। श्री हिगिन बॉटम ने कहा था कि, भारत के अधिकतम लोग गरीबी के शिकार हैं। आबादी के दशांक का मुश्किल से एक वक्त और वो भी सूखी रोटी और चुटकी भर नमक खाकर रहना पड़ता है....आज भारत की स्थिति यह है कि यदि आप दूर देहात के भीतरी हिस्से में जाएं तो वहां देखेंगे कि गांव-गांव नहीं कुड़े का ढेर बनते जा रहे हैं, वहां ग्रामीण नहीं चील और गिद्ध रहते हैं, क्योंकि ग्रामीण लोग अपने बलबूते अपना गुजारा भी नहीं कर सकते और वे जीती जागती लाशें बनकर रह गए हैं। उसमें अब स्मार्ट सिटी का कार्यान्वयन, इससे बची-खुची ग्रामीण श्रमिक एवं बुद्धिजीवी वर्ग का पलायन बड़े पैमाने पर होना संभव है। जिसके चलते कृषक अपनी जमीन बेचने पर मजबूर होंगे और बड़े पैमाने पर भूमि अधिग्रहण होंगे और वही कृषक भविष्य में उस खेत के मजदूर होंगे।  
            शहरीकरण और आर्थिक जगत में सबसे घनिष्ठ सम्बन्ध है। अनेक अप्रत्यक्ष प्रभावों के अतिरिक्त शहरीकरण का प्रभाव पूंजी के संचय, निवेश और औद्योगीकरण पर पड़ता है। जो गांव के शोषण पर निर्भर करता है। यह बात स्पष्ट है कि शहरीकरण और औद्योगीकरण में बहुत गहरा सम्बन्ध है। दोनों साथ-साथ चलते हैं और दोनों का सह सम्बन्ध घनात्मक है। प्रो. किग्सले डेविस तथा गोल्डन ने कार्ल पीपर्सन के सूत्र का प्रयोग करके शहरीकरण और औद्योगीकरन के बीच 0.86 का सह-सम्बन्ध स्थापित किया था। आर्थिक विचारों का इतिहास भी शहरीकरण और आर्थिक विकास के बीच घनिष्ठ सम्बन्धों को स्वीकार करता है। भारत में शहरीकरण पर हुई एक विचार गोष्ठी में किग्सले डेविस ने इस सम्बन्ध को और भी अधिक स्पष्ट रूप में व्यक्त किया। उनके अनुसार बिना औद्योगिकरण के शहरीकरण सम्भव नहीं है। संसार में कोई भी राष्ट्र ऐसा नहीं है जिसने आर्थिक विकास के साथ शहरीकरण का अनुभव न किया हो। उसमें अब स्मार्ट सिटी जिसमें औद्योगिकरण भी बड़े पैमाने पर होगा और बहुराष्ट्रिय कंपनियां एवं मॉल की बाढ़ होगी। छोटे-मंझोले और फुटपात के दुकानदार का पत्ता साफ हो जाएगा। 
            गांव और शहर के सवाल पर 1946 में संवाददाताओं द्वारा गांधीजी से पूंछे जाने पर की क्या आप नगरवासियों को फिर से गांव भेज देंगे? तो गांधीजी ने कहा था कि, नहीं वह तो नहीं करूँगा, मैं बस इतना ही चाहता हूँ कि शहरी अपने जीवन को इस तरह ढाले जिससे वह गांव वालों का शोषण बंद कर सके और ग्रामवासियों की बिगड़ी अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने में सहायता देकर जहां तक संभव हो उसकी क्षतिपूर्ति करें। गांधीजी का मानना था कि, यदि भारत को विनाश से बचाना है तो सीढ़ी के सबसे निचले भाग से शुरू करना होगा। यदि निचला भग सड़ा हुआ है तो ऊपर और बीच के हिस्सों पर किया गया काम अन्त में गिर पड़ेगा। यानि गांधी जी भारत की समृद्धि और विकास की बात गांवों से शुरू करने की बात करते हैं। रवीन्द्र नाथ टैगोर जी कहना था कि भारत माता (गांव) को पद से गिराकर गांव के साधनों को शहरों में खींच कर नौकरानी बना दिया है।स्मार्ट सिटी में उत्पादित माल का उपयोग फिर ग्रामीण अधिक कीमत चुका कर करेंगे। ग्राम संस्कृति अभी दरिद्रता, निरक्षरता एवं पिछड़ापन का पर्याय है। समाज वैज्ञानिकों का मानना है कि यदि नगरीकरण का रफ्तार रहा तो आने वाले समय में शायद भारत में गांव रहेंगे नही। इस तरह के शोषण ने गांधीजी को यह कहने पर मजबूर किया था कि गांवों का खून शहरों की इमारत में लगा सीमेंट है। मैं चाहता हूं कि वह खून जो शहरों की अंतड़ियों में बह रहा है वह फिर गांवों के शरीर में वापस आ जाए।जबकि गांव हमारे देश और राज्य के विकास का मुख्य आधार है, क्योंकि पेड़ो की वृद्धि के लिए जड़ो का मजबूत होना जरूरी है।
            भारत की समृद्धि गांव के विकास से ही संभव है। भारत को विनाश से बचाने के लिए गांव को स्मार्ट बनाना जरूरी है, नहीं तो स्मार्ट सिटी काल के गाल के समान है।


संपर्क : संस्कृति विद्यापीठ, विकास एवं शांति अध्ययन विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय,         वर्धा, महाराष्ट्र (442005), मो.- 9763710526, ई-मेल: chandankumarjrf@gmail.com   

Wednesday, 23 September 2015

सत्याग्रह की परिसीमा एवं प्रतिनिधि की योग्यतायें

- चन्दन कुमार, एस आर एफ(यूजीसी)
पी -एच. डी. ,अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा.
    
   गांधीजी का सत्याग्रह आंदोलन सर्वव्यापी तथा संपूर्ण है। सत्याग्रह का प्रयोग कोई भी स्त्री या पुरुष किसी भी प्रतिपक्षी के प्रति कर सकता है। यह व्यक्तिक रूप से एवं सामूहिक रूप से भी संभव है। अल्पमत बहुमत के विरुद्ध एवं बहुमत अल्पमत के प्रति सत्याग्रह कर सकता है। यह एक ऐसी सामूहिक क्रिया है जिसका प्रयोग समाज का कोई भी सताया हुआ वर्ग कर सकता है। गांधीजी द्वारा संचालित सत्याग्रह-आंदोलनों में से अधिकतर सामूहिक आंदोलन थे। दूसरी ओर उनका 1940 का व्यक्तिक सत्याग्रह तथा उनके सत्रह उपवास व्यक्तिक सत्याग्रह के उदाहरण हैं।[1] इस तरह सत्याग्रह व्यक्तिगत एवं सामूहिक किया जा सकता है। 
     सत्याग्रह का प्रयोग न केवल अत्याचारी अथवा अन्यायी सरकार अथवा उसके काले क़ानूनों के विरुद्ध किया जा सकता है, बल्कि सामाजिक व्यवस्थाओं, परिस्थितियों व परिपाटियों के विरुद्ध भी किया जा सकता है, क्योंकि वो भी काले क़ानूनों की तरह दोषपूर्ण अथवा अन्याय पर आधारित हो सकते हैं।[2] गांधीजी के सत्याग्रह का प्रयोग केवल उन मामलों में किया जा सकता है जो निजी न होकर, सामुदायिक, सामूहिक अथवा सार्वजनिक हित के हों, क्योंकि सत्याग्रह में स्वार्थ का कोई स्थान नहीं है। सत्याग्रह केवल समान हितों की प्राप्ति के लिए किया जा सकता है। सत्याग्रह का प्रयोग केवल उन हालातों में किया जा सकता है जहां किसी से कोई ऐसा काम करने को कहा जाए जो अनैतिक अथवा अन्यायपूर्ण हो और जो किसी के विवेक अथवा आत्मा को स्वीकार्य न हो। साइमन पैंटरब्रिक के अनुसार, “गांधी ने स्वयं सत्याग्रह का प्रयोग उन हालात में किया जिनमें सरकार ने ऐसे कानून अथवा आदेश जारी किए जो लोगों को अनुचित, अनैतिक अथवा अन्यायपूर्ण कार्य करने को उकसाते थे”[3] फिर भी जब-जब सरकार ने लोगों को भड़काने वाले आदेश या काला कानून बनाए या उन पर अनुचित प्रतिबंध लगाए तो ऐसे मौकों पर गांधीजी ने सत्याग्रह आंदोलन का श्री गणेश किया।
सत्याग्रह के प्रतिनिधि की योग्यतायें
      सत्याग्रह आंदोलन शुरू करने से पहले रणनीति का होना आवश्यक होता है उसी रणनीति की कड़ी में सत्याग्रह संचालक का होना आवश्यक होता है जिससे सत्याग्रह आंदोलन को मूर्तरूप देने में आसानी होती है। गांधीजी मानते थे कि अपने विवेक और आत्मा का अनुसरण करने वाला कोई भी व्यक्ति सत्याग्रह आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग ले सकता है, लेकिन जहां तक सत्याग्रह आंदोलन के संचालक का प्रश्न है, उसमें कार्य सुयोग्य, सुशिक्षित तथा प्रशिक्षित व्यक्ति के हाथ में होना चाहिए। ऐसे व्यक्ति के हाथ में जिसकी सत्याग्रह के आधारभूत सिद्धांतों में आस्था हो, जिसने सत्याग्रह साधनों का प्रशिक्षण प्राप्त किया हो तथा जिसे सत्याग्रह का प्रत्यक्ष अनुभव हो। गांधीजी ने अपने स्वयं के अनुभव एवं ज्ञान के आधार पर सत्याग्रही की योग्यताओं तथा गुणों को रेखाकित किया है जिनमें सर्वप्रमुख हैं[4]-
क.   वह या तो स्वयं भुक्तभोगी हो अथवा भुक्तभोगियों का आमंत्रित तथा अधिकृत प्रतिनिधि हो।
ख.   सत्य एवं अहिंसा में मन, वचन और कर्म से आस्था हो।
ग.     वह गीता में वर्णित स्थितप्रज्ञ सा हो अथवा सुख-दुख, हार-जीत जैसी परिस्थितियों में विचलित होने वाला न हो।
घ.    वह सामान्यत: कानूनों का पालन करने वाला नागरिक हो।
ङ.    वह जागरूक, अनुशासनशील तथा सत्याग्रह के सिद्धांतों तथा रणनीति में पूर्णत: प्रशिक्षित हो।
च.    वह दयाभाव, परमार्थ तथा आंतरिक एवं बाह्य भद्रता से ओत-प्रोत हो तथा लोभ, मोह, क्रोध, लालच, कामुकता, घमंड तथा असत्य से परे हो।
छ.    वह विवेक, आत्मा, वाद-विवाद, आत्मपीड़न व आत्मबलिदान के मार्ग पर चलकर एक ऐसे विकल्प की खोज में हो जो अंतत: सभी को स्वीकार्य हो।
ज.    वह अपने तथा अपने प्रतिपक्षी के परस्पर पक्षों के गुण व दोषों का सामूहिक रूप से विश्लेषण करे। किसी से कुछ छिपाए नहीं और जैसे ही उसे अपनी गलती का अहसास हो जाए, उसे दूर करने व सुधार करने के लिए तत्पर रहें।
झ.    वह अपने प्रतिपक्षी की कमजोरी या मजबूरी का अनुचित फायदा उठाने की कोशिश न करे। तथा
ञ.    वह ऐसा कोई कदम न उठाए जो सत्याग्रह के मौलिक सिद्धांतों के विपरीत हो।
          गांधीजी प्रत्येक सत्याग्रही में ये सारे लक्षण मौजूद देखना चाहते थे, फिर भी यदि संभव ना हो सके तो सत्याग्रह आंदोलन के नेता में ये सारे लक्षण का मौजूद रहना आवश्यक है। तभी सही अर्थों में सत्याग्रह हो सकेगा। इस तरह सत्याग्रही विभिन्न नियम के तहत बंधा रहता है।  

    संपर्क: अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र, 442005, मो. नं. 9763710526,  ई-मेल chandankumarjrf@gmail.com 
       
 संदर्भ सूची: 


[1] रतन, राम एवं शोभिका, शारदा; महात्मा गांधी की राजनैतिक अवधारणायें, कालिंगा पब्लिकेशन्स, दिल्ली, 1992, पृ. 103
[2] वही,  
[3] वही, पृ. 103-4
[4] वही, पृ. 104-5 

सत्याग्रह का उद्देश्य

                                                                                                    - चन्दन कुमार, एस आर एफ(यूजीसी)
पी -एच. डी. ,अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा.
सत्याग्रह किसी भी नैतिक रूप से वांछनीय उद्देश्य की प्राप्ति के लिए किया जा सकता है। गांधीजी ने जिन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए सत्याग्रह किए, उनसे ऐसे अनेक उद्देश्यों के उदाहरण मिलते हैं, जिनकी प्राप्ति के लिए सत्याग्रह का सहारा लिया गया ओर लिया जा सकता है। अपने नकारात्मक रूप में, सत्याग्रह अन्याय के विरुद्ध अहिंसक संघर्ष है और सकारात्मक दृष्टि से यह जन-कल्याण की दिशा में रचनात्मक कार्यक्रम का एक मार्ग है। वास्तव में सत्याग्रह उन नैतिक अधिकारों, स्वतंत्रताओं व अवसरों को प्राप्त करने का एक ऐसा साधन है, जो राज्य के हर व्यक्ति को सत्याग्रह के हर विधा की जानकारी होनी चाहिए। यह एक ऐसा रास्ता है जिसके द्वारा लोग अपनी शिकायतों की सुनवाई करावा सकते है और उन्हें दूर करवा सकते हैं। यह विवादों व समस्याओं के अहिंसक तथा स्थायी समाधान का एक अचूक साधन है। यह उन व्यवस्थाओं, नीतियों, क़ानूनों व आदेशों के उल्लंघन का एक विधि-सम्मत रास्ता है, जिन्हें व्यक्ति की आत्मा व विवेक स्वीकार न कर सकें।[1] सत्याग्रह कानून की अवहेलना करने के लिए नहीं किया जाता है बल्कि सत्याग्रही कानून की अवहेलना करने के बजाय, उसके उन प्रावधानों की अवहेलना करता है, जो अनैतिक अथवा अनुचित हों। यदि उनके स्थान पर नैतिक तथा औचित्यपूर्ण प्रावधान बना दिये जाएँ तो न केवल स्वयं कानून की गुणवत्ता बदेगी, बल्कि लोग भी उन्हें बिना किसी दबाब, डर, लोभ तथा लालच के सहर्ष को स्वीकार कर लेगा। इस प्रकार एक सत्याग्रही जो सामान्यत: कानूनों का पालन करता है, वह सत्याग्रह के माध्यम से क़ानूनों में ऐसे संशोधन की मांग करता है जिन से वो अधिक औचित्यपूर्ण तथा स्वीकार्य बन जाएँ। इस प्रकार वह तो राज्य का मित्र होता है, शत्रु नहीं।[2] गांधीजी के विभिन्न सत्याग्रहों के अध्ययन से ऐसा लगता है कि इसका प्रयोग किसी भी ऐसे उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए किया जा सकता है, जो स्वार्थपूर्ण न होकर समाज के कल्याण के लिए हो। यह सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक परिवर्तन का एक सकारात्मक तथा सबल साधन[3] एवं अहिंसक है।  

     सत्याग्रह कर्म और कर्ता में विभेद करता है और बुराई या गलती करने वाले पर आक्रमण करने के बजाय, उसके कुकर्म पर आक्रमण करता है। ऐसा करके वह अपने तथाकथित शत्रु को बुराई अथवा अन्याय का मुक़ाबला करने की दिशा में अपना सहयोगी बना लेता है। अपने विपक्षी अथवा शत्रु को सहपक्षी, सहयोगी तथा अंत में मित्र बना लेता है और यह सब वो अपने प्रतिपक्षी को सता कर, ब्लैकमेल करके या उसकी कमजोरी का फायदा उठाकर नहीं करता है, बल्कि उसकी बात सुन, समझ व मान कर और अपनी बात सुनवा, समझा व मनवा कर करता है। वह अपने प्रतिद्वंदी अथवा प्रतिपक्षी से तर्क करता है, उससे वाद-विवाद करता है, उसकी आत्मा को झकझोरता है, जितनी बात उसकी सही लगे उसे स्वीकार करता है और यदि इस सब से सफलता न मिले, तो अपने विपक्षी को पीड़ित करने के बजाय आत्मपीड़न तथा आत्म-बलिदान तक के लिए तैयार करता है।[4] रिचर्ड ग्रैग के अनुसार, सत्याग्रह एक ऐसा त्रिपक्षीय दर्पण है, जिसमें एक और सत्याग्रही अपने आपको विपक्षी की दृष्टि से देखता है, दूसरी ओर विपक्षी अपने आप को सत्याग्रही की दृष्टि से देखता है तथा तीसरी ओर दर्शक सत्याग्रही व उसके विपक्षी दोनों का परस्पर रूप देखते हैं और निर्णय करते हैं कि कौन कितना सही है और कितना गलत। इस प्रकार सत्याग्रह हृदय-परिवर्तन तथा जनजागरण का एक सबल साधन है। इसके द्वारा सत्याग्रही अपने विपक्षी को सत्य और न्याय का रास्ता चुनने और असत्य व अन्याय का मार्ग त्यागने के लिए प्रेरित करता है। वह अपने विपक्षी को यह भी समझाने का प्रयत्न करता है कि सताए जाने वाले के प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष, सक्रिय अथवा निष्क्रिय सहयोग के बिना सताने वाला अपने उद्देश्य में सफल हो ही नहीं सकता।[5] जिस तरह सत्याग्रही अन्याय करने वाले का अन्याय से पीछा छुड़ा कर उसे न्याय के रास्ते पर लाने का प्रयत्न करता है उसी तरह सत्याग्रही में भी परिवर्तन होता है तथा उसे महान बना देता है। गांधीजी ने सत्याग्रह के द्वारा न केवल अपने शत्रुओं को अपना सहपक्षी, सहयोगी तथा मित्र बना लिया, बल्कि वे स्वयं भी एक मामूली वकील से महात्मा बन[6] सत्य का मार्ग अपनाया।  
     सत्याग्रह दर्शकों अथवा सामान्य लोगों के जीवन की गुणवत्ता का भी विकास करता है। अपने समय की समस्याओं व विवादों के प्रति उनमें जागरूकता पैदा करता है जिससे वे उनके परस्पर गुण-अवगुणों को ध्यान में रखते हुए यह निश्चित कर सकें कि कौन कितना सही है व कौन कितना गलत। इस प्रक्रिया से आम लोग भी भले-बुरे, सही-गलत अथवा न्याय-अन्याय के बीच विभेद करना सीख जाते हैं और उनमें असीम सामाजिक व राजनैतिक जागरूकता आ जाती है, भले ही वो अशिक्षित क्यों न हो। इस प्रकार सत्याग्रह अत्याचारी, सत्याग्रही तथा सामान्य दर्शकों सभी का समान रूप से उद्धार करता है, उन्हें जागरूक व शिक्षित बनाता है और उनके जीवन की गुणवत्ता को बढ़ाता है। इन सभी के लिए सत्याग्रह एक ऐसा माहौल पैदा करता है, जिसमें हर व्यक्ति अपने विवेक तथा आत्मा की आवाज को सुनकर, सभी समस्याओं व विवादों का अहिंसक तथा स्थायी समाधान निकाल सकता है और एक ऐसे विकल्प पर पहुँच जा सकता है जो अंतत: सबको स्वीकार्य[7] एवं सामाजिक न्याय के अनुकूल हो। 
   
संपर्क: अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालयवर्धामहाराष्ट्र, 442005, मो. नं. 9763710526,  ई-मेल chandankumarjrf@gmail.com 



संदर्भ सूची 

  1. [1] रतन, राम एवं शोभिका, शारदा; महात्मा गांधी की राजनैतिक अवधारणायें, कालिंगा पब्लिकेशन्स, दिल्ली, 1992, पृ. 101  
  2. [2] वही,    
  3. [3] वही,  
  4. [4] वही, पृ. 101-2
  5. [5] वही, पृ. 102
  6. [6] वही,
  7. [7] रतन, राम एवं शोभिका, शारदा; महात्मा गांधी की राजनैतिक अवधारणायें, कालिंगा पब्लिकेशन्स, दिल्ली, 1992, पृ. 102

सत्याग्रह

- चन्दन कुमार, एसआरएफ(यूजीसी)
पी -एच. डी. ,अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा.
         
गांधीजी की मान्यता थी कि दुनियाँ में कहीं भी, कभी भी हिंसा अथवा युद्ध से किसी भी समस्या या विवाद का स्थायी समाधान नहीं हुआ है। युद्ध से समस्या कुछ समय के लिए टल तो जाती है। बलवान (हथियार से सम्पन्न) कमजोर को हरा कर, उस से तात्कालिक रूप से जबरदस्ती अपनी बात मनवा तो लेता है, लेकिन हिंसा या युद्ध से कोई ऐसा समाधान नहीं निकलता जो पक्ष तथा विपक्ष दोनों को स्वेच्छा से स्वीकार्य हो। हिंसा का जबाब जब हिंसा से दिया जाता है, तो उससे हिंसा ही बढ़ती है, किसी समष्या का समाधान नहीं होता है। इसके विपरीत, गांधी की मान्यता थी की असली संघर्ष समरूप शक्तियों के बीच न होकर, परस्पर विरोधी ताकतों के बीच होता है। हिंसा के विरुद्ध संघर्ष, हिंसा की विपरीत ताकत, अहिंसा के द्वारा होना चाहिए। अहिंसा ही हिंसा का अंत कर सकती है, उसे कम कर सकती है। हिंसा का जबाब यदि हिंसा से दिया जाएगा तो उससे हिंसा बढ़ेगी ही, कम नहीं होगी। गांधीजी के सत्याग्रह दर्शन को ध्यान में रखते हुए जॉन बान्डयूरैन्ट इस निष्कर्ष पर पहुंची कि गांधीजी संघर्ष को स्वीकार करते हैं, पर हिंसा को नहीं। इसी आधार पर, के. एल. श्रीधारानी ने गांधीजी के सत्याग्रह को “हिंसा विहीन युद्ध” की संज्ञा दी[1] है।
          गांधीजी को सत्य एवं अहिंसा में आस्था रहने के कारण ही सत्याग्रह में भी साध्य और साधन की एकरूपता है। साध्य उतना ही पुनीत होगा जितना उसे प्राप्त करने के लिए अपनाए गए साधन, गांधीजी के अनुसार साध्य को साधनों से अलग नहीं किया जा सकता है। साध्य अथवा लक्ष्य उतना ही औचित्यपूर्ण होगा, जीतने औचित्यपूर्ण उसकी प्राप्ति के लिए अपनाए गए साधन। इस प्रकार गांधीजी साधनों को साध्य से अलग नहीं करते हैं क्योंकि साध्य, साधनों की अंतिम कड़ी है अथवा अंतिम सीढ़ी है।
सत्याग्रह अन्याय के विरुद्ध एक ऐसा अहिंसक संघर्ष है जिसमें मन, वचन तथा कर्म से हिंसा का त्याग करके, अहिंसा को एक सिद्धान्त के रूप में स्वीकार किया जाता है। इसमें ऐसे साधनों को अपनाया जाता है जो नैतिक, उचित तथा साध्य के अनुरूप हों, और जिनमें संघर्ष का टार्गेट अथवा निशाना अन्याय होता है, अन्याय करने वाला नहीं।[2] गांधीजी के अनुसार, सत्याग्रह असत्य व अन्याय के विरुद्ध एक ऐसा अहिंसक संघर्ष है जो नैतिक रूप से सक्षम व सतर्क हो। सत्याग्रह कमजोर, कायर अथवा असहाय का साधन नहीं है। जिस व्यक्ति की सत्य व न्याय में आस्था ही नहीं होगी, वह भले-बुरे, सत्य-असत्य, न्याय-अन्याय के भेद को कैसे जानेगा और जिसे अपने साध्य व साधनों का समुचित शिक्षण-प्रशिक्षण नहीं होगा, वह संघर्ष कैसे करेगा। इस प्रकार, गांधी के अनुसार, सत्याग्रह नैतिक रूप से सक्षम, सक्रिय व सतर्क लोगों के द्वारा किया जाने वाला संघर्ष है, न कि असहाय, कायर अथवा डरपोक लोगों का। गांधी के सत्याग्रह का आधार सत्याग्रह की नैतिक शक्ति है। उसकी नैतिकता के मूल्यों के प्रति जागरूकता तथा उनमें आस्था वैसी ही होनी चाहिए, जैसी पारंपरिक हिंसक युद्ध में योद्धा की शारीरिक शक्ति तथा अस्त्र-शस्त्र की शक्ति के प्रति होती है। नैतिक शक्ति शारीरिक शक्ति से श्रेष्ठ होती है। सत्याग्रह संघर्ष में, हिंसक युद्ध की तुलना में अधिक बहादुरी की आवश्यकता होती है। इस प्रकार सत्याग्रह बहादुरों एवं वीरों का संघर्ष है, न कि कायरों का।[3] कायर तो टिक ही नहीं सकता।
गांधीजी ने आत्मपीड़न, आत्मत्याग अथवा आत्मबलिदान को सत्याग्रह की आत्मा का नाम दिया है। गांधीजी की मान्यता थी कि सत्याग्रही जिस बात को सत्य व न्यायोचित मानता है, उसे उसके लिए अपने आप को पीड़ित करना चाहिए, अपने तन को कष्ट देना चाहिए, न कि अपने सत्य को मनवाने के लिए अपने विरोधी को सताना, पीड़ित करना या मार डालना चाहिए। .....सत्य पर अडिग रहने के लिए अपना बलिदान देना तो न्यायोचित है, पर अपने विरोधी का बलिदान लेना सर्वथा अनुचित है, क्योंकि सत्याग्रही का प्रतिपक्षी तो सत्याग्रही के कथित सत्य को सत्य मानता ही नहीं। इसके विपरीत यदि सत्याग्रही असत्य के विरुद्ध अपने संघर्ष में आत्म-बलिदान के रास्ते पर चलेगा और यदि सत्य व न्याय वास्तव में उसके साथ होगा, तो उसका बलिदान किसी नेक साध्य की प्राप्ति के लिए नेक साधन के रूप में स्वीकार किया जाएगा। दूसरी ओर यदि वह असत्य व अन्याय को सत्य व न्याय मानने का हठधर्म कर रहा होगा, तो उसका बलिदान उसके अपने हठधर्म का उचित दंड होगा। नैतिक नियम भी यही है कि हम अपनी गलतियों के लिए अपने आप को दंडित करें, न कि अपने विरोधियों को।[4] विरोधियों को गलती का अहसास कराना सत्याग्रह द्वारा संभव है।  
          गांधीजी ने संघर्ष का लक्ष्य सदा बुराई को बनाया है, न कि बुरे अथवा बुराई करने वालों को। उनकी मान्यता थी कि यदि हम उस व्यक्ति के जो, किसी कारणवश, हमारा विरोधी हो गया है, विरोध का कारण जान लें और उसे दूर कर दें, तो हमारा विरोध अथवा विपक्षी हमारा दुश्मन न रहकर, संभवत: हमारा दोस्त बन जाएगा। गांधीजी टालस्टाय के इस कथन से सहमत थे कि यदि घृणा करनी ही हो तो पाप से करनी चाहिए, न कि पापी से। यदि पापी का पाप समाप्त हो जाएगा, यदि पापी पाप का साथ छोड़ देगा तो वह पापी न रहेगा, वह सुधार जाएगा, पुण्यात्मा हो जाएगा। दूसरी ओर, यदि पापी की पाप से मुक्ति कराने के बजाए उसे यातना दी जाए, अथवा उसकी हत्या कर दी जाए, तो उससे उसका पाप समाप्त नहीं होगा, उसका रुख और कड़ा हो जाएगा, वह निष्ठुर हो जाएगा। इसलिए विपक्षी को सताने, पीड़ित करने या उसकी हत्या करने के बजाय, उसकी पाप से मुक्ति करानी चाहिए, जिससे उसका पाप समाप्त हो जाए, उसकी सोच बादल जाए, वह अपने विवेक व आत्मा की आवाज के अनुसार चलने लग जाए, अपने पाप को पहचान ले और उसका साथ छोड़ कर, अपनी दैविक, तार्किक व सामाजिक प्रकृति का अनुसरण करके, एक नेक इंसान की तरह जीवनयापन करने लग जाये। ऐसा करने से उसका हृदय परिवर्तन हो जाएगा। वह अपराधी अथवा पापात्मा से पुण्यात्मा हो जाएगा, प्रतिपक्षी से सहपक्षी और फिर मित्र हो जाएगा।[5] सत्याग्रह किसी नीति, कानून, व्यवस्था अथवा व्यवहार विशेष के विरुद्ध संघर्ष तक ही सीमित नहीं है। अपने व्यापक रूप में, सत्याग्रह सोचने और जीने का एक ऐसा मार्ग है जो हमें आत्म-त्याग व अनेकानेक न्यायोचित तथा अहिंसक साधनों के द्वारा तथा न्याय के रास्ते पर प्रशस्त करता है, असत्य, अन्याय व बुराई पर वार करता है तथा विरोध अथवा तथाकथित शत्रु का हृदय परिवर्तन करके उसे पहले सहपक्षी तथा अंत में मित्र बना देता है। जेम्स लूथर एडम्स ने गांधी के सत्याग्रह को एक ऐसा सिद्धान्त व साधन माना है, जिसमें निम्नलिखित विशेषताएं हैं[6]-
क.   अहिंसा पर आधारित
ख.   गोपनीयता का अभाव
ग.     अन्याय पर आधारित कानून में संशोधन अथवा उसकी समाप्ती के लिए किया जाए तथा
घ.    जिसमें सत्याग्रही कानून की अवहेलना के लिए प्रस्तावित दंड को सहर्ष स्वीकार करने के लिए तत्पर हो।
     इस तरह जेम्स लूथर एडम्स ने सत्याग्रही को सत्याग्रह करने से पहले की चिंतन से अवगत कराया है।
     जॉन बान्डयूरैन्ट ने गांधीजी के सत्याग्रह व दुराग्रह में मौलिक विभेद को स्वीकार किया है। उनके अनुसार दुराग्रही सत्य, न्याय व सदाचार पर अपना एकाधिकार साबित करने का प्रयत्न करता है। वह यह समझता है कि वह सही है, गलत हो ही नहीं सकता है और दूसरी ओर उसका विरोध करना गलत है, सही हो ही नहीं सकता है। वह अपने विरोधी अथवा विपक्षी को स्पष्टीकरण का अवसर दिए बिना ही उसकी बात अथवा व्यवहार को अपने पूर्व-निर्णय के आधार पर पहले ही गलत अथवा अनुचित मान लेता है और उस पर आक्रमण कर देता है। सत्याग्रही के मुक़ाबले में दुराग्रही के सोचने तथा संघर्ष करने का तरीका तर्क पर आधारित न होकर, पूर्व-निर्णय के सिद्धान्त पर आधारित होता है।[7] दूसरी ओर दुराग्रही के मन में (गलत होने पर भी) एक प्रकार का डर भी सताता है उसको लगता है कि यदि सत्याग्रही की बातों को मान लेते है तो समाज में मेरी इज्जत न होकर सत्याग्रही की इज्जत करने लगेंगे मेरी प्रतिष्ठा धूमिल हो जाएगी। इसीलिए दुराग्रही अपने विपक्षी को अपना शत्रु मान लेता है, बुराई का पुतला मान लेता है तथा बुराई पर हमला करने के बजाय, बुरे पर हमला करता है। वह उसको सताता है, ब्लैकमेल करता है, उसे नीचा दिखाने और उसे अंतत: हराने के लिए हर संभव प्रयत्न करता है तथा उसे अपनी बात समझाने व कहने का अवसर भी नहीं देता है।[8] दूसरी और सत्याग्रही ये मान कर चलता है कि उसका विरोधी सही हो सकता है ओर वह स्वयं गलत हो सकता है। यही मान कर वह अपने विरोधी को न केवल अपना पक्ष समझाता है, बल्कि उसका पक्ष भी सुनने, समझने तथा जहां तक संभव हो स्वीकार करने के लिए तत्पर रहता है। वह अपने विपक्षी को उसके पक्ष की संभावित विकल्प प्रस्तुत करता है जो उसे स्वीकार करने का अवसर देता है और उसके सामने ऐसे सत्याग्रही अपने तथाकथित शत्रु को मित्र बनाने का भरसक प्रयत्न करता है, जिससे दोनों मिलकर बुराई व अन्याय का मुक़ाबला कर सकें।[9] इस तरह सत्याग्रह सत्य की राह है जिसपर चलकर अन्याय का प्रतीकार किया जाता है।

संपर्क: अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र, 442005, मो. नं. 9763710526,  ई-मेल chandankumarjrf@gmail.com 

संदर्भ सूची


[1] रतन, राम एवं शोभिका, शारदा; महात्मा गांधी की राजनैतिक अवधारणायें, कालिंगा पब्लिकेशन्स, दिल्ली, 1992, पृ. 95-96 
[2] वही, पृ. 98
[3] वही, पृ. 98
[4] वही, पृ. 99
[5] वही, पृ. 96-97
[6] वही, पृ. 99-100 
[7] वही, पृ. 100
[8] वही
[9] वही 

Saturday, 5 September 2015

लोकतंत्र, सत्याग्रह और गांधी


- चन्दन कुमार, एस आर एफ (यूजीसी)
पी -एच. डी. ,अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा.
लोकतंत्र के लिए सत्याग्रह जीवन अमृत है, अच्छी शासन व्यवस्था को कायम रखने के लिए। लोकतंत्र शासन की एक प्रणाली है और शासन कि किसी भी अन्य प्रणाली की तरह उसके भी अपने गुण-दोष होते है। लोकतांत्रिक सरकार स्वेच्छाचारी, भ्रष्ट और केंद्रित व्यवस्था का समर्थक होने पर जनता की स्वतंत्रता और गरिमा खतरे में पड़ जाती है, जिसके फलस्वरूप गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई, भूखमरी, भ्रष्टाचार, घूसख़ोरी, कालाधन, अमीर-गरीब के बीच की चौड़ी खाई जैसी समस्या समाज में व्याप्त होने लगती है। इन समस्याओं से लोकतांत्रिक सरकार को रूबरू कराने या व्यवस्था परिवर्तन के लिए सत्याग्रह की आवश्यकता अनिवार्य हो जाती है क्योंकि लोकतंत्र में सत्याग्रह के सिवाय कोई दूसरा अहिंसक रास्ता अभी तक नहीं है। सत्याग्रह न तो लोकतंत्र का प्रतिवाद है और न उसके प्रतिवाद के रूप में इसके प्रयोग की समाज से सहयोग मिलता है। लोकतंत्र में सत्याग्रह की आवश्यकता तब नहीं हो सकती जब इसमें भ्रष्टाचार और व्यक्ति को पीड़ित करने या कराने की न कोई जगह बचता हो, जो वास्तव में असंभव जान प्रतीत होता है। गांधी जी का कहना है कि “मैं प्रत्येक नागरिक को यह बात मालूम कर दूँ कि सविनय प्रतिकार उनका जन्मसिद्ध अधिकार है। इसको खोना मानो मानत्व को खोना है।” जब लोकतंत्रिय व्यवस्था भ्रष्ट और कानूनहीन होने लगता है तो सत्याग्रह जनता का पवित्र कर्त्तव्य बन जाता है।
गांधीजी का मानना है कि लोकतन्त्र का अर्थ सभी की आम भलाई के लिए लोगों के सभी वर्गों के समस्त भौतिक, आर्थिक और आध्यात्मिक संसाधनों के जुटाव की कला तथा विज्ञान से है। गांधीजी लोकतंत्र में प्रचलित संसदीय प्रणाली में अविश्वास व्यक्त 1909 में ही हिन्द स्वराज नामक पुस्तक में व्यक्त किया था। गांधीजी ने संसदों की जननी ब्रिटिश संसद की कटु आलोचना करते हुए बांझ और बेसवा कहा है। बांझ इसलिए की उसने कभी कोई अच्छा काम अपने आप नहीं किया। अगर उस पर ज़ोर दबाव डालने वाला कोई न हो तो वह कुछ भी न करे, ऐसी उसकी कुदरती हालत है और वह बेसवा इसलिए की जो मंत्री-मंडल उसे रखे उसके पास वह रहती है। संसद पर दबाव डालकर अच्छा काम सत्याग्रह द्वारा ही किया जा सकता है। गांधीजी का मानना है कि यदि मतदाता समझदार हैं और अच्छे-से-अच्छे सदस्य चुनकर संसद में भेजते हैं तो ऐसी संसद को प्रार्थना-पत्रों अथवा दबाव की जरूरत नहीं होनी चाहिए। ऐसी संसद का काम तो इतना अच्छा होना चाहिए कि दिन-प्रतिदिन उसका तेज बढ़ता नजर आए और लोगों पर उसका असर पड़ता जाये, लेकिन इसके विपरित संसद के सदस्य दिखावटी और स्वार्थी होते हैं। अपना मतलब साधने की सोचते हैं। संसद में बहुत अधिक अस्थिरता पाई जाती है और यही कारण है कि उसके फैसलों में पक्कापन नहीं होता। आज का फैसला कर रद्द कर दिया जाता है और सभ्भवत: अभी तक एक बार भी ऐसा नहीं हुआ कि संसद ने कोई काम करके उसे अंत तक पहुंचाया हो। जो आज के समय में भी देखने को मिलता है। गांधीजी ने प्रधानमंत्री के नेतृत्व पर संदेह व्यक्त करते हुए हिन्द स्वराज नामक पुस्तक में लिखा है कि प्रधानमंत्री को पार्लियामेंट की थोड़े ही परवाह रहती है। वह तो अपनी सत्ता के मद में मस्त रहता है। अपना दल कैसे जीते इसी की लगन उसे लगी रहती है। पार्लियामेंट सही काम कैसे करे, इसका वह बहुत कम विचार करता है। जिसे हम घूस कहते हैं वह घूस वे खुल्लमखुल्ला नहीं लेते-देते। वे दूसरों से काम निकालने के लिए उपाधि बैगरा की घूस बहुत देते हैं। उनमें शुद्ध भावना और सच्ची ईमानदारी नहीं होती।जिसके कारण सरकारी व्यवस्था ऊपर से लेकर नीचे तक भ्रष्टाचार में अकंट डूब जाता है।
            इस तरह जब लोकतन्त्र में सारी प्रक्रिया जनता के शोषण पर आधारित हो जाती है। तब लोकतन्त्र में सत्याग्रह अनिवार्य हो जाता है।




 संपर्क: अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, पंचटीला वर्धा, महाराष्ट्र (442005), मो. 9763710526, ई-मेल chandankumarjrf@gmail.com