- चन्दन कुमार, जेआरएफ(यूजीसी)
पी -एच. डी. ,अहिंसा
एवं शांति अध्ययन विभाग
महात्मा
गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा.
मो.-09763710526
; ई मेल:chandankumarjrf@gmail.com
“तुम्हें सोचने की आवश्यकता नहीं, वह तुम्हारे लिए सोचेगा।
तुम्हें देखने की आवश्यकता नहीं, वह तुम्हारे लिए देखेगा।
तुम्हें बोलने की आवश्यकता नहीं, वह तुम्हारे लिए बोलेगा।
तुम्हें कुछ करने की आवश्यकता नहीं, वह तुम्हारे लिए करेगा।”[1] (फ्रेरे)
सर्वसत्तावाद या सर्वाधिकारवाद (Totalitarianism) एक ऐसा शब्द है जो निरंकुशता, अधिनायकवाद, और तानाशाही जैसे पदों का
समानार्थक है। सर्वसत्तावाद में सत्ता प्राप्ति और उसकी रक्षा के लिए प्रजातन्त्र
के नाम पर व्यक्ति-व्यक्ति को, जाति-जाति को, संप्रदाय-संप्रदाय को तोड़ा जाता है तथा उनके बीच वैमनस्य के बीज बोये
जाते है। जिसमें सत्ता पर आसीन व्यक्ति अपनी सत्ता की कोई सीमारेखा नहीं मानता और
लोगों के जीवन के सभी पहलुओं को यथासम्भव नियंत्रित करने को तत्पर रहता है। ऐसा
शासन प्रायः किसी एक व्यक्ति, एक वर्ग या एक समूह के
नियंत्रण में रहता है। सत्ता दमनकारी हो जाती है तथा सत्ता के समक्ष आज्ञापालन
अधिकाधिक कराया जाता है। इस तरह सर्वसत्तावाद मनमानेपन का संकेत है। सेबाइन के अनुसार
“सर्वाधिकारवादी राज्य में मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन एवं कार्यकलाप पर राज्य का
अधिकार होता है और व्यक्ति का अपना कहे जाने योग्य कुछ भी शेष नहीं रहता है।”[4] सर्वसत्तावाद
व्यक्ति की स्वतन्त्रता, उसके व्यक्तिगत हित तथा उसके महत्व पर बल देने वाली विचारधाराओं के
विरुद्ध एक ऐसी प्रतिक्रिया है जो व्यक्ति एवं उसके व्यक्तित्व को गौण तथा राज्य
एवं उसकी सत्ता को मुख्य मानते हुए व्यक्ति के संपूर्ण जीवन पर राज्य के
पूर्णाधिकार का समर्थन करती है।
राज्य को व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवन पर सर्वाधिकार प्राप्त
हो जाय, उसे सर्वाधिकारवादी व्यवस्था कहा जाता है। इस व्यवस्था में राज्य मनुष्य
पर जन्म से लेकर कब्र तक शासन करने लगती है। इस तरह सभी कुछ राज्य के अंतर्गत हो
जाता है, राज्य के विरुद्ध या राज्य के बाहर कुछ भी नहीं
रहता है। व्यक्ति पूर्णत: राज्य के अधीन एवं उसके हाथों का खिलौना या दास बन जाता
है। प्रेस, रेडियो, चलचित्र तथा
साहित्य एवं कला सभी पर राज्य का कठोर नियंत्रण स्थापित हो जाता है, व्यक्ति की स्वतन्त्रता एक स्वप्न जैसी हो जाती है। जैसा कि डॉक्टर
नोबिल्स ने कहा है “ऐसे राज्य में प्रेस एक पियानो बना दी जाती है, जिस पर प्रचार मंत्रालय अपनी धुनें बजाता है।”[5] इस
तरह सर्वाधिकारवाद सार्वजनिक जीवन में धोखाधड़ी, परस्पर
विद्वेषपूर्ण व्यवहार, तथा घृणा जैसी बातों के प्रयोग को
प्रोत्साहित करती है। दूसरे शब्दों में, यह मनुष्य को पशु
बनाने के लिए तत्पर रहती है। लोकतन्त्र पर सर्वाधिकारवाद का विजय पशुता की मानवता
पर विजय है।
प्लेटो राज्य को एक अवयवी संस्था मानते हुए यह प्रतिपादित
किया है कि राज्य के बिना व्यक्ति का कोई अस्तित्व व व्यक्तित्व नहीं हो सकता है।
व्यक्ति के विरुद्ध राज्य के अधिकार के प्रतिपादन में प्लेटो इतना अधिक आगे बढ़ गए
कि अपने साम्यवाद संबंधी दृष्टिकोण के प्रतिपादन में राज्य को यह अधिकार प्रदान
करते हैं कि वह चाहे अपने जिन नागरिकों को संपत्ति का अधिकार दे अथवा नहीं दें।
यही नहीं प्लेटो के अनुसार राज्य का यह भी अधिकार है कि वह अपने कुछ नागरिकों को
पारिवारिक जीवन व्यतीत करने के अधिकार से भी वंचित कर दे। इस प्रकार व्यक्ति एवं
राज्य के संबंध में प्लेटो कि विचारधारा व्यक्ति के ऊपर राज्य को सर्वाधिकार
प्रदान करती है। प्लेटो के शिष्य अरस्तू ने भी राज्य को सर्वाधिकार प्रदान किए हैं
जैसा कि अरस्तू ने कहा है कि “राज्य का स्थान परिवार एवं व्यक्ति से स्पष्टत: पहले है, चूँकि पूर्ण का स्थान अंश से पहले होता है।”[6] थामस
हॉब्स ने बिना राज्य सत्ता के व्यक्ति का जीवन एकांकी, दीन, घृणित, पाशविक एवं क्षणिक” माना है तथा इस स्थिति
के निराकरण के लिए उसने राज्य के ऐसे महामानव रूप का प्रतिपादन किया है, जिसके पक्ष में व्यक्तियों द्वारा अपने सब अधिकारों का समर्पण किए जाने
के कारण उसके विरुद्ध व्यक्ति के कोई अधिकार नहीं रहते हैं।[7]
आदर्शवादी विचारक हिगल ने राज्य को साध्य तथा व्यक्ति को उसका साधन माना है। हिगल
के शब्दों में “व्यक्ति का सारा मूल्य और महत्व तथा उसकी सम्पूर्ण आध्यात्मिक
सत्ता केवल राज्य में ही संभव है।” एवं “राज्य निरंकुश,
सर्वशक्तिमान और अभ्रांत है। वह पृथ्वी पर परमेश्वर का अवतार है। वह पृथ्वी पर
अस्तित्वमान एवं दैवीय विचार है।” हीगल के मतानुसार राज्य व्यक्ति के बाह्य आचरण
का ही नियामक नहीं, वरन वह उसके नैतिक आचरण का भी नियामक है।
हीगल के मत में राज्य व्यक्ति के व्यक्तित्व का नियमन अपनी विधियों के माध्यम से
करता है। हीगल इस प्रकार व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवन को राज्य के नियमन के अधीन बना
कर राज्य को व्यक्ति के ऊपर सर्वाधिकार प्रदान करता है।[8]
मार्क्सवाद द्वारा प्रतिपादित वैज्ञानिक समाजवाद में, जिस
सर्वहारा अधिनायकतंत्र की स्थापना की बात कही गयी है, उस
राज्य की स्थिति भी सर्वाधिकारवादी ही है, क्योंकि उसमें भी
राज्य सत्ता के प्रयोग द्वारा बलपूर्वक व्यक्तिगत संपत्ति की समाप्ति एवं
उत्तराधिकार की समाप्ति, उत्पादन व वितरण की सम्पूर्ण आर्थिक
व्यवस्था पर राज्य का अधिकार, राजकीय नियोजन के माध्यम से
आर्थिक व्यवस्था का संचालन, प्रत्येक काम करने योग्य व्यक्ति
के लिए काम, की अनिवार्यता, तथा भगोड़े
व विद्रोहियों की संपत्ति की जब्ती आदि सबको व्यक्ति के विरुद्ध राज्य के निरंकुश
सर्वाधिकार के अन्तर्गत माना गया है। रूस, चीन और पूर्वी
यूरोप के देशों में जिस साम्यवादी रूप में इसे अपनाया गया,
उसमें साम्यवादी दल की सर्वोच्च सत्ता एवं लोकतान्त्रिक केन्द्रीयकरण के नाम से
शीर्ष पर शासन की शक्ति के एकत्रीकरण के कारण व्यक्ति की अधीनता और अधिक हेय एवं
राज्य का सर्वाधिकार और अधिक कठोर हो जाता है। साम्यवादी व्यवस्था को
सर्वाधिकारवाद का पर्याय ही माना जाने लगा।[9]
फासीवाद एवं
नाजीवाद के मुख्य प्रतिपादकों में क्रमश: मुसोलनी एवं हिटलर द्वारा राष्ट्रीय
समाजवाद कही जाने वाली, फासीवादी व नाजीवादी व्यवस्था में भी राज्य के जिस रूप का प्रतिपादन किया
गया है। वह भी सर्वाधिकारवादी ही है तथा अपने आधुनिक रूप में इन विचारधाराओं
द्वारा प्रतिपादित राज्य की व्यवस्था के लिए ही सर्वाधिकारवादी राजनीतिक व्यवस्था
शब्द का प्रयोग किया गया है। इन विचारधाराओं के प्रतिपादन में भी व्यक्ति की तुलना
में राज्य को श्रेष्ठ माना गया है जैसा कि मुसोलनी ने कहा है कि “राज्य एक
आध्यात्मक इकाई है तथा वह ऐसा संगठन है, जिसका उदभव व विकास
परमात्मा की अभिव्यक्ति है।” तथा जैसा कि जैन्टाइल ने भी कहा है, “व्यक्ति की कौन-सी स्वतंत्रताओं को काट दिया जाय और कौन-सी स्वतंत्रताओं
को बनाए रखा जाय, इसका निर्णायक व्यक्ति नहीं होता वरन केवल
राज्य होता है।”[10]
लोकतंत्रीय शासन भी जिसे व्यक्ति, उसके
व्यक्तित्व एवं उसकी स्वतन्त्रताओं की मान्यता पर आधारित शासन माना जाता है, व्यवहार में सर्वाधिकारवादी हो जाता है। क्योंकि लोकतन्त्र के नाम पर जो
व्यवस्था चल रही है, वह राज्य-तंत्र की पद्धति से ही चल रही
है, अत: उसका स्वरूप सर्वाधिकारी सर्वग्राही राज्यवाद के रूप
में ही दिखाई देने लगता है। लोकतंत्रीय व्यवस्था दल प्रणाली के माध्यम से चलने
वाली व्यवस्था है। यद्यपि उसमें विविध दलों के बीच सत्ता परिवर्तन की व्यवस्था
रहती है फिर भी उन परिस्थिति में जब लोकतन्त्र का रूप दलीय अधिनायक तंत्र का हो
जाता है और जब कोई दल किसी न किसी प्रकार सत्ता को हथियाते रहने की स्थिति प्राप्त
कर लेता है, उस स्थिति में लोकतंत्रीय व्यवस्था भी
सर्वाधिकारवादी हो जाता है। ऐसी स्थिति में सम्पूर्ण समाज की सत्ता पहले एक
राजनीतिक दल विशेष में और फिर उस दल विशेष के माध्यम से किसी व्यक्ति समूह में
अथवा किसी व्यक्ति विशेष में निहित हो जाता है। एसी स्थिति में व्यक्ति के उन
अधिकारों एवं स्वतंत्रताओं पर भी जिन्हें मूलभूत कहा जाता है राज्य का पूर्णाधिकार
स्थापित हो जाता है।
सर्वाधिकारवाद राज्य के ऐसे रूप में विश्वास
करता है, जो पूर्ण प्रभुत्वशाली हो और जिसकी सत्ता निरंकुश हो। सर्वाधिकारवाद
राज्य के विषय में हीगल द्वारा प्रतिपादित इस धारणा को मानता है, जिसके अनुसार उसे पृथ्वी पर ईश्वर का साक्षात आगमन (March of Good on Earth) माना जाता है। सर्वाधिकारवाद के अनुसार
राष्ट्र का श्रेष्ठतम रूप वही है, जिसमें राजसत्ता किसी एक
शक्तिशाली दल या दल में भी शक्तिशाली एक व्यक्ति के हाथों में निहित हो तथा वह
व्यक्ति अपने विवेक के अनुसार राष्ट्र के हित का निर्धारण करते हुए शासन का संचालन
करे। किसी व्यक्ति, व्यक्ति के किसी समूह, किसी दल या किसी अन्य शक्ति द्वारा उसके निर्णयों एवं कार्यों की आलोचना
या विरोध सर्वाधिकारवाद के अनुसार मान्य नहीं हो सकता,
क्योंकि उसकी मान्यता है कि राज्य कभी कोई त्रुटि नहीं कर सकता है। सर्वाधिकारवाद
की यह मान्यता है कि व्यक्ति उसके व्यक्तित्व, उसके अधिकार
एवं विचार आदि सब पर राज्य का पूर्ण अधिकार है। संक्षेप में,
सर्वाधिकारवाद के अनुसार राज्य साध्य तथा व्यक्ति उसका साधन मात्र है।[11]
सर्वाधिकारवाद व्यक्तिगत जीवन पर ही नहीं, सार्वजनिक
जीवन पर भी राज्य के पूर्ण एवं निरंकुश नियंत्रण का समर्थन करती है।
सर्वाधिकारवादी शासन-प्रणाली में जनसाधारण को अपना स्वतंत्र मत या अधिमान्यताएँ
प्रकट करने या अपनी मांगे प्रस्तुत करने का अवसर या अधिकार भी नहीं देता इस तरह
सत्ताधारी लोकमत के प्रति उत्तरदाई नहीं होता है। निर्णय की प्रक्रिया में
सार्वजनिक चर्चा या लोकप्रिय मतदान की अनुमति भी नहीं दी जाती है, बल्कि मात्र सत्ताधारी के निर्णय को ही मान्यता दी जाती है। वहां किसी
समानान्तर सत्ता को भी सहन नहीं किया जाता है। जैसा कि सैबाइन ने कहा है कि “सरकार
की आज्ञा के बिना न तो राजनीतिक दलों, श्रमिकों के समुदाय
तथा औद्योगिक या व्यापारिक समुदायों का निर्माण किया जा सकता है और न सरकार के
नियमों के बाहर कोई व्यक्ति किसी वस्तु का निर्माण ही कर सकता है। वह न कोई
व्यापार ही कर सकता है और न कोई काम। उसके आदेश के बिना न कोई प्रकाशन किया जा
सकता है और न कोई सार्वजनिक सभा ही की जा सकती है। शिक्षा पर उनका पूर्ण अधिकार
होता है। विश्राम एवं आमोद-प्रमोद के साधन प्रचार के साधनों का रूप धारण कर लेते
हैं। इस प्रकार मानव के समस्त जीवन व क्रिया कलाप पर राज्य का अधिकार हो जाता है
और व्यक्ति का अपना कहने योग्य कुछ भी नहीं रह जाता है।”[12]
सर्वाधिकारवाद बुद्धिवाद का विरोध करता है।
सर्वाधिकारवादियों के अनुसार मनुष्य अत्यधिक तर्कशील एवं बुद्धिपरक होकर उन्नति
नहीं कर सकता है। उनके मत में वह तभी ऊँचा उठ सकता है। जब वह अपनी स्वाभाविक
प्रेरणा एवं प्रवृतियों के अनुसार कार्य करे। उनके अनुसार कठिन अवसरों पर कठिन
समस्याओं का समाधान बौद्धिक कसरत करते रहने से नहीं, वरन स्वाभाविक प्रेरणा के
अनुसार कार्य करने से होता है। अत: उनका मत है कि मनुष्य को बुद्धिपरक होकर नहीं, भावनापरक होकर जीवन व्यतीत करना चाहिए। अपनी इस मान्यता के कारण
सर्वाधिकार को बुद्धि विरोधी दर्शन कहा जाता है।[13]
सर्वाधिकारवाद एक अतिवादी विचारधारा है। चूँकि
सभी सर्वाधिकारी राज्य राष्ट्रीयता राज्य ही हुए हैं, अत: उनके
लिए यह स्वाभाविक है कि वे राष्ट्रीयता की भावना पर अत्यधिक बल देते है।
सर्वाधिकारवाद राष्ट्रीयता के उग्र रूप का समर्थन करके राज्य के लिए लोगों की
भक्ति भावना प्रगट करने में विश्वास करता है। सर्वाधिकारवाद का यह लक्षण वस्तुत:
फासीवाद तथा नाजीवाद में अधिक सत्य है।[14]
सर्वाधिकारवादी विचारधारा राजनीति में नैतिक
सिद्धांतों एवं मूल्यों की कोई उपयोगिता नहीं समझता और उनके प्रति पूरी तरह से
उदासीन रहता हैं। सर्वाधिकारवादियों की मान्यता है कि राष्ट्र को ऊँचा उठाने के
लिए उचित- अनुचित सभी उपायों को काम में लाया जाना उचित है। उनके अनुसार अभीष्ट
राजनीतिक उद्देश्य की सिद्धि के लिए
विद्वेष, घृणा धोखाधड़ी आदि का सहारा भी लेना पड़े, तो उसमें
कोई दोष नहीं है। उनके अनुसार नैतिकता एवं सत्य आदि का आश्रय लेना तो कायर लोगों
का काम है। जो अपने राष्ट्र के हित के लिए मरना जानते हैं,
उन्हें उसके हितों की साधना के लिए किसी भी प्रकार के उपायों का प्रयोग करने से
नहीं हिचकना चाहिए। इटली में मुसोलनी ने एवं जर्मनी में हिटलर ने इसी प्रकार का
आचरण किया था इस आधार पर सर्वाधिकारवाद को मैकियावेलियन दर्शन भी कहा जाता है।[15]
[1] जोशी, रामशरण; आदिवासी समाज और
शिक्षा, अनु॰, अरुण प्रकाश, ग्रंथ शिल्पी, नई दिल्ली,
पुनर्मुद्रण, 2004, पृ. 127-28
[2] कोली, सी. एम.; आधुनिक
राजनीतिक सिद्धान्त एवं विश्लेषण, साहित्यागार,जयपुर, 2001, पृ. 207
[4] नारायण, इकबाल; आधुनिक
राजनीतिक विचारधाराएँ, ग्रंथ विकास जयपुर, 2005, पृ. 306
[6] वही; पृ. 307
[7] वही;
[8] वही; पृ. 308
[9] वही; पृ. 308-9
[10] वही; पृ. 309
[11] वही; पृ. 310-11
[12] वही; पृ. 311
[13] वही; पृ. 311-12
[14] वही; पृ. 312
[15] वही;
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