- चन्दन कुमार, जेआरएफ(यूजीसी)
पी -एच. डी. ,अहिंसा
एवं शांति अध्ययन विभाग
महात्मा
गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा
मो.-09763710526 ; ई मेल:chandankumarjrf@gmail.com
“राष्ट्रवाद मानवता व विश्व के लिए एक
अद्वितीय वरदान सिद्ध होगा,
यदि वह विशुद्ध देश प्रेम का पर्यायवाची हो
सके।”[1]
(हेज)
भारतीय
परिपेक्ष्य में ऐतिहासिक तथ्य है कि, राष्ट्रवाद
का राष्ट्रीय आंदोलन के बिना जन्म नहीं होता। राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग के बिना
राष्ट्रवाद पैदा नहीं होता, राष्ट्रवाद की चेतना को पैदा
करने में अंग्रेजों के भयावह शोषण और अत्याचारों, आम जनता की
अकल्पनीय दरिद्रता के प्रभाव की केंद्रीय भूमिका से ही इसके गर्भ से राष्ट्रीय
मुक्ति की ज्वाला पैदा हुई, राष्ट्रीय मुक्ति की चेतना
ज्यों-ज्यों बढ़ती जाती है। राष्ट्रवादी चेतना का भी उसी गति से विकास होता है।[8] इस क्रम में नस्ली या धार्मिक
घृणा भी पैदा होती है, जो उग्र राष्ट्रवाद को जन्म देती है।
राष्ट्र
शब्द की उत्पत्ति में ही उग्र राष्ट्रवाद के तत्व निहित है। राष्ट्र शब्द लैटिन
भाषा के शब्द नेसियों (natio) से उत्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ एक ही स्थान पर जन्म लेना या एक ही प्रजाति में जन्म का होना।
व्यापक अर्थ में राष्ट्र शब्द समान प्रजाति एवं किसी सामान्य स्थान पर जन्म लेने
वाले लोगों से है। जिसका जाति एक, धर्म एक, ईश्वर एक, रीति-रिवाज एक,
पर्व-त्योहार एक, भाषा एक, खान-पान एक, पहनावा एवं चालचलन का एक होना है। जो उग्र राष्ट्रवाद को बल प्रदान करता
है।
राष्ट्रवाद
राजनीतिक तौर पर ऐसा ‘फिनोमिना' है जिसमें धर्म, नस्ल आदि का बुनियादी आधार के तौर
पर इस्तेमाल किया जा सकता है। नस्ल के आधार पर राष्ट्रवाद की व्याख्याओं के बाद
जर्मनी में फासीवाद का जन्म हुआ। भारत में धर्म को राष्ट्रवाद का आधार बनाने के
कारण हिंदू राष्ट्रवाद, मुस्लिम राष्ट्रवाद और बाद में यह भारत
विभाजन और पाकिस्तान की शक्ल में सामने आया।[9] जो राष्ट्रवाद का उग्र रूप ही
है। देश की स्वतन्त्रता के साथ ही समग्र-राष्ट्रियता चेतना दो हिस्सों में बंट
गयी। राजनैतिक और आर्थिक राष्ट्रीयता या तो नौकरशाही के प्लानों और प्रोजैक्टों
में फंसी रही और सामाजिक कल्याण के करोड़ों के बजट कभी उन लोगों तक पहुच ही नहीं
पाये, जिनके नाम पर वे चलाये गए थे या फिर सूखती और विकृत
होती स्वयंसेवी संस्थाओं के खाऊ हाथों में। अंग्रेज़ चले गए,
मगर नौकरशाही वहीं रही-वैसी ही हृदयहीन और लूट-खसोट वाली। राजा समाप्त हो गए-मगर
सामंतवादी मूल्य और व्यवस्था वही रही और वैसी ही बनी रही दोनों के बीच की
सांठ-गांठ। कुर्सी और नौकरी बचाऊ सरकार को चूंकि जनता के लिए कुछ भी नहीं करना था, इसलिए आज सरकारी राष्ट्रीयता और समाज की राष्ट्रीयता दोनों एक दूसरे के
खिलाफ खड़ी हुई हैं। सरकार के लिए राष्ट्रीयता का अर्थ है उत्सवधार्मिता, मूर्तियों का पूजन, भौगोलिक वंदना और देश की सीमा
सुरक्षा-इसके अलावा राष्ट्रीयता की हर परिभाषा राष्ट्रद्रोह है।[10]
पूंजीवाद
में अनिवार्यत: अर्थसत्ता का केन्द्रीकरण और राजसत्ता का केन्द्रीकरण साथ-साथ चलते
हैं। ऐसी स्थिति में एक ओर शासक जातियाँ शासितों के दमन और उत्पीड़न से अपने को
लाभान्वित करना चाहती हैं क्योंकि शासितों की अपनी परंपरा और जीवन शैली को अपने
अनुकूल ढाल कर ही वे उन्हें अपने पूंजीवादी-साम्राज्यवादी हितों के लिए इस्तेमाल
कर सकती हैं, तो दूसरी ओर शासित जातियाँ अपने को
राजनीतिक दमन और आर्थिक शोषण से बचाने के लिए अपनी सांस्कृतिक पहचान को एकता का
आधार बनाती हैं, जिससे साम्राज्यों के विरुद्ध नेशन-स्टेट्स
के संघर्ष का जन्म होता है। स्पष्ट है कि पश्चिमी अर्थों में जिसे राष्ट्र, राष्ट्रीयता या राष्ट्रवाद कहा जाता है, वह विभिन्न
जातियों के साम्राज्यवादी या पूंजीवादी सम्बन्धों का एक परिणाम है क्योंकि
पूंजीवाद या साम्राज्यवाद अनिवार्यतया केन्द्रीकरण उस सत्ता से दमित और शोषित
जनसमूहों को संघर्ष करने को मजबूर कर देता है।[11] ब्रिउली ने राष्ट्रवाद के
सवाल को राजनीति और राज्य के व्यापक संदर्भ में रखकर देखा है, “राष्ट्रवाद, कुल मिलाकर सबसे पहले राजनीति का सवाल
है और उस राजनीति का मतलब सत्ता से है। आधुनिक संसार में सत्ता का बुनियादी संबंध
राज्य के नियंत्रण से है।”[12]
राज्य
में सत्ता का केन्द्रीकरण, राष्ट्रीय बोध में दरार का एक
महत्वपूर्ण कारण है, जिसकी वजह से राजसत्ता स्थानीय और
गैर-राजनीतिक मामलों में हस्तक्षेप का अधिकार पा जाती है और तब राजसत्ता पर
पूर्णतया और निष्कंटक काबिज न हो पाने वाली जाति या समूह अपने को अरक्षित और
दमित-शोषित मानने लग जाती है, जो प्रकारांतर से उसमें एक
प्रतिक्रियात्मक राष्ट्रवाद-आत्मनिर्णय के आधार पर विकसित नेशन-स्टेट वाले
राष्ट्रवाद का विकास करती है और जाहिर है कि उसका आधार एक प्रकार का उग्र भाषावाद, संप्रदायवाद या क्षेत्रीयतावाद हि हो सकता है। संसदीय सर्वोच्चता का
सिद्धान्त अंततोगत्वा लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के माध्यम से सर्वसत्तावाद की
स्थापना की कोशिश हो जाता है और एक बहुलवादी समाज में इस तरह का सर्वसत्तावाद एक
केंद्र को सर्वशक्तिमान और अन्यों को उसके सम्मुख हीनता का बोध करवाकर उन्हें अपनी
श्रेष्ठता के संघर्ष के लिए मजबूर करता है।[13]
उग्र
राष्ट्रवाद का भूत जिस देश पर सवार हो जाता है वह मानवता का विनाश करने में अपना
पूर्ण बल लगा देता है। राष्ट्र-राज्य के युग में राष्ट्रवाद हवा की तरह हो गया है, जिसमें हम अचेतनमन से सांस लेते जाते हैं जब तक वह पूरी तरह प्रदूषित न
हो। भाजपा ने जिसे ठीक ही तीन ‘ह’
हिन्दू, हाइकास्ट (उच्च जाति) और हिन्दी की पार्टी कहा जाता
था, इन समूह विशेष की पहचानों से बाहर निकलने के लिए
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर ‘हिन्दुत्व’ की पहचान बनाई है। कांग्रेस जिसने उपनिवेश विरोधी संघर्ष के दिनों से ही
धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद की विचारधारा को विरासत में प्राप्त किया था, राष्ट्रवाद की अपनी रूपरेखा को मुक़ाबले में पेश कर सकती थी। परंतु उसने
अपनी विश्वसनीयता गवानी शुरू कर दी क्योंकि उसने संकट के समय समुचित कदम नहीं उठाए
और धर्मनिरपेक्षता के सवाल पर दोटूक कदम न उठाना उसे राजनीतिक तौर पर अधिक
सुविधाजनक लगा। उदाहरण के लिए उसने सिख विरोधी दंगों (1984) और बाबरी मस्जिद
विध्वंस (1992) के समय ऐसा ही किया।[14]
किसी
भी राष्ट्र में कुछ व्यक्ति संकीर्ण भावनाओं से प्रेरित होकर राष्ट्रवाद के
विरुद्ध कार्य करते हैं इससे यह अभिशाप और दोष के रूप में पहचाना जाता है।
वर्त्तमान युग में आतंकवाद, उग्रवाद, राष्ट्रवाद के विरुद्ध संचालित हो रहा है।[15] इस तरह उग्र राष्ट्रवाद
आतंकवाद, उग्रवाद, सैनिक वाद को बढ़ावा
देता है। उग्र राष्ट्रवाद सेनाओं की सैन्य शक्ति का प्रयोग करते हुए जनता की
भावनाओं को कुचलने का काम करती है। जन-आंदोलन के दौरान उठाई गई आवाज को कुचलने का
काम करती है। इसके माध्यम से नागरिकों के ऊपर अत्याचार, दमन
किया जाता है।
उग्र
राष्ट्रवाद विश्व शांति का विरोधी है, राष्ट्रवाद
जब उग्र रूप धारण कर लेता है तब अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर किए जाने वाले प्रयास असफल
हो जाते हैं। एक क्रान्ति दूसरी क्रान्ति को जन्म देती है एक राष्ट्र का आतंकवाद
दूसरे राष्ट्र की शांति भंग करता है। इस तरह विश्व संगठनों के कार्यों में बाधा
उत्पन्न होता है। एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र पर मानवीय अत्याचार करके शोषण भी करता
है। अत: उग्र राष्ट्रवाद विश्व शांति में बाधा भी उत्पन्न करता है।[16]
उग्र
राष्ट्रवाद साम्राज्यवाद को बढ़ावा देता है, उग्र
राष्ट्रवाद की लालसा साम्राज्यों की स्थापना करने में बदल जाती है। राष्ट्रवाद का
फैलाव एक महाद्वीप से दूसरे महाद्वीप तक करने के साथ-साथ उस राष्ट्रवाद की नीति
साम्राज्यवादी सिद्धांतों का अनुसरण करने में लग जाती है इससे अनेक प्रकार की
रक्षा के नाम पर अमेरिका, ब्रिटेन,
फ्रांस, जर्मनी, इटली ने युद्धों का
संचालन भी किया है। दूसरी तरफ यह इन राष्ट्रों का राष्ट्रवाद भी रहा है।[17]
आर्नोल्ड
टायनबी का कहना है कि “राष्ट्रवाद शांति एवं समृद्धि के मार्ग में एक बड़ी बाधा के
रूप में खड़ा है। इसलिए आणविक शास्त्रों के समान राष्ट्रवाद मानवता का प्रमुख शत्रु
है।”[18] वर्त्तमान परिस्थिति में भारत
में राष्ट्रवाद या देशभक्ति जैसे शब्द सारतत्वहीन नारे भर है।
[3] वही; पृ. 1
[4] वही; पृ. 1-2
[5] वही; पृ. 2
[6] सिंह, अयोध्या; भारत का मुक्ति
संग्राम, ग्रंथ शिल्पी, दिल्ली, तीसरा, 2003, पृ. 15
[8] चतुर्वेदी, जगदीश्वर; ‘सांप्रदायिकता, आतंकवाद और जनमाध्यम’, पृ. 9
[9] वही; पृ. 18
[10]
यादव,राजेन्द्र; अनपढ़ बनाये रखने की साजिश (कांटे की
बात-2), वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, द्वितीय, 2007, पृ. 27-28
[11] आचार्य, नंदकिशोर; सत्याग्रह
की संस्कृति, वाग्देवी प्रकाशन,
बीकानेर, 2008, पृ. 35
[12] अनिवेद, शिव नारायण सिंह;
आधुनिक भारत की द्वंद्व-कथा, पृ. 77-78
[14] भादुडी, अमित; प्रतिष्ठापूर्ण
विकास, अनु॰, डॉ. गिरीश मिश्र, नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया,
2006, पृ. 29
[16]
वही; पृ. 152
[17] वही;
[18] भाटिया, पी. आर.;
अंतर्राष्ट्रीय संबंध एवं विश्व राजनीति, यूनिवर्सल बुक डिपो, आगरा, 1978, पृ. 56
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