- चन्दन कुमार, जेआरएफ(यूजीसी)
पी -एच. डी. ,अहिंसा
एवं शांति अध्ययन विभाग
महात्मा
गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा.
मो.-09763710526
; ई मेल:chandankumarjrf@gmail.com
राजेन्द्र यादव ने अपनी पुस्तक अनपढ़ बनाए रखने की साजिश में
लिखते हैं कि, “अपराध, राजनीति, नौकरशाही और
न्याय-प्रणाली सब आपस में जिस तरह घुल-मिल गए है, उसमें कोई
चमत्कारी मसीहा ऐसा नहीं है जो इन्हें छांटकर अलग- अलग कर दे। लोकतन्त्र का सीधा
अर्थ है सबको समान अवसर, न्याय और उद्यम की स्वतन्त्रता-
सबके प्रतिनिधियों की चुनाव श्रिंखला में अंतिम रूप से एक का चुना जाना-मगर आज तो
ये सारे चुनाव वही जीतेंगे जिनके पास साधन होगें, शक्ति होगी, पैसा होगा। यानि चुनाव आज आदर्श, मूल्य और स्वप्न नहीं जीतेंगे, जीतेंगे सिर्फ साधन-
सम्पन्न, धर्मांध, हत्यारे, डाकू और स्मगलर या इनकी मदद लेकर आए हुए प्रतिनिधि,
बदले में इन्हें खुली छूट और सुरक्षा के आश्वासन दे सकने वाले कठपुतले।[12]
हिंदुस्तान में विशिष्ट सज्जन बहुत कम हैं और राजनीति में दाखिल लोगों शिष्ट और
अशिष्ट दोनों है। आज की राजनीति में दो कमियाँ है। राजनीति में केवल भले-भले लोग
ही दाखिल होते हैं, एसी बात नहीं। गलत लोग, सत्ता के अभिलाषी भी दाखिल[13] हो
गए है। विनोबा जी का मानना है कि “आज लोगों का सत्ता पर अंधा विश्वास बैठ गया है।
बुद्ध भगवान के हाथ में सत्ता थी, फिर भी वे सत्ता छोडकर
निकाल पड़े। सत्ता से अगर सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक या आध्यात्मिक क्रांति हो सकती तो जिनके हाथ में सत्ता थी, क्या वे उसे छोड़कर इस तरह निकल जाते? लेकिन बुद्ध
भगवान जान गए थे कि सत्ता से समाज का परिवर्तन नहीं हो सकता।”[14]
विनोबा जी शासन-मुक्ति की बात इसलिए करते हैं कि “शासन देखते-देखते दु:शासन हो जाता है। लोकतन्त्र का आधार यदि लश्कर हो तो उसका रूपान्तर
लश्करशाही में होने में कितनी देर लगेगी? ऐसी अवस्था में यदि हम शासन पर ही निर्भर रहेंगे तो शासन का रूपान्तर एक
क्षण में दु:शासन में, कुशासन में हो सकता है।”[15] भारत
के लोकतन्त्र की हालत बादशाह जैसी है। लोकशाही के नाम पर शाही सत्ता थोड़े-से लोगों
के हाथों में सौंप देते हैं। अब लोकशाही ही सरमुखत्यारशाही बन गयी तो फिर
सरमुखत्यारशाही का क्या होगा, इसकी तो कल्पना ही की जा सकती
है। वे अपनी सत्ता जुल्म के ज़ोर पर चलाते हैं और ये लोग मत-पेटी द्वारा चलाते हैं।
सत्ता को या तो पैसे से खरीदते हैं या वैज्ञानिकों के मार्फत खरीदते हैं।[16]
देश में स्वराज्य आया लेकिन यह स्वराज्य जनता का यानि गांव
वालों का स्वराज्य न होकर नेताओं और प्रतिनिधियों का राज्य हुआ। देश में पाँच लाख
गांवों की योजना दिल्ली में बनेगी। जीवन के समस्त विषयों पर दिल्ली निर्णय लेगी।
समाज में कैसे सुधार हो, विवाह किस तरह हों, छूत-अछूत का भेद कैसे मिटे, कैसी चिकित्सा-पद्धति लागू की जाय, भारत में किस
भाषा का प्रचलन हो, सिनेमा किस ढंग से चले आदि जीवन के सभी विषयों
में दिल्ली में योजना तय होगी। अगर इतनी अधिक सत्ता केन्द्र को सौंपते हैं, तो सारा जनसमुदाय पराधीन हो जाता है।[17]
दुनिया में इस समय एक बड़ा मोह काम कर रहा है और वह है
सत्ता-मोह। सज्जन लोग भी यह मान बैठे हैं कि सत्ता के बिना वे काम नहीं कर सकते
अथवा सत्ता की मदद से वे अधिक काम कर सकेंगे।[18] आजकल
तो मानो सत्ता को देवी ही मान बैठे हैं। इसके लिए होड़ चलती है। इसमें से प्रतिपक्ष, उपपक्ष फूट
निकलते हैं और फिर भी आसक्ति जाती नहीं। ओहदों पर चिपके रहने की वृत्ति पैदा होती
है। यह सब आश्चर्यजनक नहीं, दुखदाई है।[19] क्योंकि
एक बार सत्ता हाथ में आने के बाद फिर उसे अपने हाथ में बनाए रखने के प्रयत्नों में
ही सारी शक्ति खर्च हो जाती है।[20]
सत्ता हाथ में लेकर लोक-कल्याण की प्रक्रिया प्राय: असफल ही
हो चूकी है। अतएव सामाजिक कार्य सत्ता के मार्फत ही हो सकते हैं, यह समझना
निरा भ्रम है। सत्ता द्वारा कभी समाज नहीं बन सकता। विचार समझकर ही जो आचरण होता
है, उसी में समाज की शक्ति बनती है। आज दुनिया में शांति
नहीं है, क्योंकि सर्वत्र सत्ता चलती है। केवल राज्यक्षेत्र
में ही नहीं, बल्कि घर में, स्कूल में
और मंदिरों में भी सत्ता ही सर्वोपरि हो गयी है।[21]
आज मुट्ठी भर लोगों के हाथों में सत्ता पहुँच गयी है।[22]
सत्ता सेवा का छेद करती है।[23] आज
तो केन्द्र में और प्रांत में हिंदुस्तान के हरेक गाँव के सब व्यवहारों को
नियंत्रित करने की सत्ता है। गाँव वालों को कोई भी निर्णय करने का हक नहीं। गाँव
में बाहर के डॉक्टर आयें या न आयें, इसे तय करने का हक भी गाँव
वालों को नहीं है। गाँव के सारे धंधे टूट गए हैं, उन्हें फिर
से शुरू करना है या नहीं, इस बारे में निर्णय करने की सत्ता
भी केन्द्र में है, गाँव में नहीं। परिणामत: सारा स्वराज
केन्द्र में होता है, गाँव में नहीं।[24]
चुनाव पद्धति में जिसके पास ज्यादा पैसा है, वही इसमें
भाग ले सकता है, जिसके हाथ में ज्यादा सम्पत्ति है, वही चुनाव में खड़ा होता है।[25]
आज तो सत्ता या तो शस्त्रवान के पास है या शास्त्रवान के
पास या धनवान के पास। आम जनता के पास सत्ता नहीं है, क्योंकि उसके पास न शस्त्र है, न शास्त्र और न धन।[26]
कुरूप अलंकरणों की बर्बरता से सज्जित व्यवसायीकरण सारी मानवता के लिए बहुत बड़ा
जोखिम है क्योंकि यह पूर्णता के स्थान पर सत्ता के आदर्श को अधिक महत्व देता है।
यह स्वार्थपरायणता के पंथ को बेशर्मी से बढ़ावा दे रहा है।[27] इस
तंत्र में सत्ता का संबंध जनबल और बाहुबल से है। सत्ता प्रभुत्व-वर्चस्व स्थापित
करने का साधन [28]मात्र
है।
सर्वसत्तावादी व्यवस्था में नियंत्रण अधिकारियों के हाथ में
इतना ज्यादा आ जाता है कि उससे सामान्य नागरिकों कि स्वतन्त्रता संकट में पड़ जाती है।
इस व्यवस्था में नौकरतंत्र या सेवकतंत्र अग्नि के समान हो जाते है जो एक सेवक के
तौर पर तो उपयोगी सिद्ध होता है, लेकिन जब वह मालिक प्रणाली अथवा स्वामी बन
जाता है तो व्यक्ति के लिए घातक सिद्ध होता है। ऐसी नौकरशाही व्यवस्था या
सर्वसत्तावाद में मंत्रीय उत्तरदायित्व के लबादे में बढ़ती या पनपती है।
सर्वसत्तावाद में आत्माभिमान कि अधिकता रहती है। व्यक्तिगत नागरिकों के प्रति
उदासीन रहते हुए विभागीय निर्णयों के संबंध में कठोर नीति का पालन करता है। शासक
अपनी सुविधा के अनुसार कानून बनाकर समाज पर थोप देता है। सर्वसत्तावाद में
कर्मचारियों में अहं की भावना का विकास होता है। वे स्वयं को उच्च एवं समाज से
अलग-थलग समझने लगते हैं। सामान्य जनता से मिलने, उनका काम
करने तथा उसकी कठिनाई सुनने में आत्महीनता महसूस करते है। अपने आपको सर्वगुण
सम्पन्न समझने की वजह से नीतियों का निर्धारण सही से नहीं कर पाते है। शासन तथा
रौब दिखाना अपना नैतिक कर्त्तव्य समझने लगते है। सर्वसत्तावाद में नौकरशाही
तानाशाह का रूप अख्तियार कर लेता है। ये हमेशा इस प्रकार के साधनों की खोज में
रहते हैं जिससे जनता को ज्यादा-से-ज्यादा दबाया या लूटा जा सके।
वस्तुत: राज्यवाद और पूंजीवाद के विशाल सर्वाधिकारी तथा
सर्वग्रासी स्वरूप के कारण भारत की जनता पर एक भंयकर नए संकट का निर्माण हुआ है, वह है
नौकरशाहों की एक विराट फौज। राज्यवाद का विस्तार जैसे हुआ है वैसे ही फैलती हुई
संस्था के संचालन की नित्य नयी आवश्यकता के कारण नये-नये विभाग और उनके चालकों की
संख्या बढ़ती गयी। जिससे नौकरशाहों की एक विशाल जमात खड़ी हो गयी, फलस्वरूप एक अत्यन्त मजबूत और अभेद्य नौकरशाह वर्ग की सृष्टि हुई। जिसका
नतीजा यह हुआ कि सेवा अब धर्म न रहकर पेशा एवं लूट-खसोट का अड्डा बन गया। फलस्वरूप
आम जनता सर्वसत्तावादी व्यवस्था में नौकरशाहों के शोषण और दमन से पीसा जा रहा
है।
[1] लोकक्रांति पाथेय धीरेन्द्र मजूमदार स्मृति ग्रंथ,
धीरेन्द्र मजूमदार का मौलिक चिंतन, सं॰, नरेंद्र भाई एवं अन्य, पृ. 31
[2] वही;
[3] लोहिया, राम मनोहर; भारत के शासक, सं॰, ओंकार शरद, लोकभारती प्रकाशन,
इलाहाबाद, तृतीय संस्कारण, 2007, पृ. 17
[4] वही; पृ. 109
[5] नारायण, इकबाल; आधुनिक
राजनीतिक विचारधाराएँ, ग्रंथ विकास जयपुर, 2005, पृ. 309-10
[7] वही; पृ. 105
[9] वही; पृ. 107
[10] बंग, ठाकुरदास; असली स्वराज्य, सर्वसेवासंघ, वाराणसी, फरवरी, 1995, पृ. 24
[12] यादव,राजेन्द्र; अनपढ़ बनाये
रखने की साजिश (कांटे की बात-2), वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, द्वितीय, 2007, पृ. 10
[13] विनोबा; लोकनीति, पृ. 67
[14] वही; पृ. 22-23
[16] वही; पृ. 46
[17] वही; पृ. 47
[18] वही; पृ. 79
[19] वही;
[20]
लोकक्रांति
पाथेय धीरेन्द्र मजूमदार स्मृति ग्रंथ, धीरेन्द्र मजूमदार का
मौलिक चिंतन, सं॰, नरेंद्र भाई एवं
अन्य, पृ. 32
[22] वही; पृ. 87
[23] वही; पृ. 95
[25] वही; पृ. 39
[26] वही;
[27] टैगोर, रवीन्द्रनाथ;
राष्ट्रवाद, अनु॰, सौमित्र मोहन, नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, नई
दिल्ली, 2003, पृ. 64-65
[28] युवा संवाद, सं., ए के. अरुण, जून 2013, अंक-123, पृ. 30
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