- चन्दन कुमार, एसआरएफ(यूजीसी)
पी -एच. डी. ,अहिंसा
एवं शांति अध्ययन विभाग
महात्मा
गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा.
मो.-09763710526 ; ई मेल:chandankumarjrf@gmail.com

“वेदों
में परिवारों के समूह जो एक स्थान पर एक साथ रहते थे, गांव कहा गया है।”[1] 14वीं शताब्दी के आस-पास “गांव
के लिए ‘मौज़ा’ शब्द का भी प्रयोग मिलता
है। वित्तीय शब्दावली में इसका अर्थ ‘निचली वित्तीय इकाई से
है।’ इसका मुखिया एक मण्डल (गांव प्रधान) होता था।”[2] प्रशासनिक दृष्टि से भी “ग्राम
वह आबाद क्षेत्र है जिसकी सीमा निश्चित हो और जिस ग्राम के अलग अभिलेख तैयार किए
गए हों।”[3] राजाओं द्वारा भू-राजस्व
निर्धारित करने के लिए समूहों में बांटा गया और उस समूह को ग्राम कहा है। गुप्त
वंश के शासनकाल में प्रशासन की छोटी इकाई ग्राम थी।
वेद, तिरुकल, रामायण, बौद्ध, कौटिल्य का अर्थशास्त्र आदि सभी ग्रन्थों में किसानों और कारीगरों की
सम्मानित स्थिति का उल्लेख मिलता है। 17वीं और 18वीं शताब्दी के अंग्रेजी
दस्तावेजों में भारत के विज्ञान और प्रौद्योगिकी के बारे में जानकारी मिलती है कि, प्राचीन काल में भारत में लोहे और इस्पात के उत्पादन, उसकी श्रेष्ठता और विश्व प्रसिद्धि सर्वविदित है। यह उद्योग ग्रामीण स्तर
पर बहुत बड़े क्षेत्र में खूब फल-फूल रहा था और उत्पादन की तकनीक के मामले में बहुत
उन्नत अवस्था में था। मध्यकालीन मुगल शासक के समय में भी गांव की आर्थिक स्थिति
अच्छी थी।
अंग्रेजों
के जमाने में गुलाम गांवों का गुलाम देश बना। अंग्रेज़ यहां आए और उन्होंने यहां की
ग्राम पंचायत और ग्रामोद्योग को समाप्त कर दिया। परिणाम यह हुआ कि देश तो पराधीन
बना ही, साथ-साथ गांव भी पराधीन बन गया। पराधीन गांवों का पराधीन देश। इस प्रकार
हिंदुस्तान कि ग्राम व्यवस्था को तोड़ने का काम अंग्रेजों ने किया और उसमें वे सफल
भी रहे। अंग्रेजों के पूर्व अनेकों हमले हुए लेकिन ग्राम व्यवस्था नहीं टूटी।
अंग्रेजों से आजादी मिलने के बाद यहाँ ‘गोरे साहबों कि जगह
काले साहब आकर बैठ गए’। इस तरह पुराने कैदी ही जेलर बन बैठे
और उसी का उत्तराधिकारी आज देश का भाग्य विधाता है। गांधीजी चाहते थे कि ‘अंग्रेज़ियत चली जाय, भले ही अंग्रेज़ रह जाए।’ परन्तु स्वतन्त्रता के पश्चात अंग्रेज़ चले गए पर अंग्रेज़ियत को गले लगा
लिया गया।
गांधीजी
ने आखिरी वसीयतनामा में उल्लेख किया है कि, ‘आजादी मिल जाने के कारण कांग्रेस का काम खत्म हुआ (यानि प्रचार के वाहन और धारा सभा की प्रवृत्ति
चलाने वाले तंत्र के नाते उसकी उपयोगिता अब समाप्त हो गई है।) अब उसे लोक सेवक संघ
के रूप में प्रकट होने का निश्चय करें।’ इस तरह गांधीजी
चाहते थे कि कांग्रेस के कार्यकर्त्ता गांव-गांव जाकर ग्रामीण व्यक्तियों के सेवा-कार्य
में लग जाये क्योंकि गांधीजी का मानना था कि, अभी पूर्ण
स्वराज नहीं मिला है। शहरों और क़सबों से भिन्न उसके सात लाख गांवों की दृष्टि से
हिंदुस्तान की सामाजिक, नैतिक और आर्थिक आजादी प्राप्त करना
अभी बांकी है। इसके विपरीत कांग्रेस का विसर्जन 1948 में नहीं हुआ, गांव के स्तर पर लोक समितियां नहीं बनीं, गांववालों
को राजनैतिक शिक्षण देना कांग्रेस के द्वारा नहीं सोचा गया और अब तक ऊपर से ही
राज्य करना चलता आ रहा है।
गांधीजी
का सपना था कि “प्रत्येक गांव को अपने पैरों पर खड़ा होना चाहिए, अपने गांव कि जरूरत की चीजें गांव में ही पैदा करनी चाहिए। विशेष
परिस्थिति में ही आवश्यक चीजें बाहर से मंगाई जाये। हर गांव अपने पैसे से पाठशाला, सभा-भवन या धर्मशालाएँ बनाए। संभव हो तो कारीगर उसी गांव के हों। गांव के
प्रत्येक व्यक्ति को स्वच्छ अनाज, स्वच्छ पानी और स्वच्छ
मकान मिले इसका ध्यान रखना होगा। नयी तालीम की योजना के अनुसार बुनियादी शिक्षा
प्रत्येक बालक के लिए अनिवार्य होनी चाहिए। प्रत्येक प्रवृति सहकारी ढंग से चलाने
चाहिए गांव के लोग सार्वजनिक काम को हाथ में लें और वही गांव कि कार्यपालिका और
विधायिका का काम करे।”[4] इस तरह गांधीजी स्वतंत्र भारत
को आत्मनिर्भर गांवों का महासंघ बनाना चाहते थे। गांधीजी ग्राम-सभ्यता को कभी-भी
नष्ट नहीं होने देना चाहते थे। उनका कहना था कि, “हम ऊँची
ग्राम सभ्यता के उत्तराधिकारी हैं। हमारे देश की विशालता,
आबादी की विशालता और हमारी भूमि की स्थिति तथा आबोहवा ने मेरी राय में मानों यह तय
कर दिया है कि उसकी सभ्यता ग्राम सभ्यता होगी।”[5]
गांधीजी
कहते हैं कि, “हमें गांवोंवाला भारत और शहरोंवाला भारत, इन दो में से एक को चुन लेना है। गांव उतने ही पुराने हैं जितना कि यह
भारत पुराना है। शहरों को विदेशी आधिपत्य ने बनाया है। जब यह आधिपत्य मिट जाएगा, तब शहरों को गांवों के मातहत होकर रहना पड़ेगा। आज तो शहरों का बोलबाला है
और वे गांवों की सारी दौलत खींच लेते हैं। इससे गांवों का ह्रास और नाश हो रहा है।
गांवों का शोषण खुद एक संगठित हिंसा है। अगर हमें स्वराज कि रचना अहिंसा के पाये
पर करनी है, तो गांवों को उनका उचित स्थान देना होगा।”[6] इसी तरह की बात गांधीजी ने मनु
से शहरों में मौजूद बड़े-बड़े कल-कारखानों के कारण ग्रामीण उद्योग के नष्ट हो जाने के
संबंध में कहते हैं कि, “मशीनों में जो रुपया लगाया गया है
वह खाक भी हो जाये तो मुझे सहानुभूति नहीं होगी। सच्चा हिंदुस्तान तो सात लाख
गांवों में बसता है। यूरोप के बड़े शहर लंदन आदि ने हिंदुस्तान को चूसा है और हिंदुस्तान
के शहरों ने उसके गांवों को चूसा है। उसी से शहरों में ऐसे महल खड़े हुए हैं और
गांव कंगाल बन गए हैं। मुझे तो इन गांवों को फिर से प्राणवान बनाना है। मैं यह
नहीं कहना चाहता कि सब शहरों की सारी मिलों को तोड़-फोड़कर बर्बाद कर दो। लेकिन जहां
भूले, वहाँ से फिर सावधान होकर चलना चाहिए। गांवों को चूसना
बंद करना चाहिए और जितना अन्याय हुआ हो, उसकी बारीकी से जांच
करके गांवों की आर्थिक स्थिति मजबूत बनानी चाहिए।”[7] रवीन्द्र नाथ टैगोर ने भी कहा
था कि ‘भारत माता (गांव) को पद से गिराकर गांव के साधनों को
शहरों में खींचकर नौकरानी बना दिया है।’ शहरों द्वारा
उत्पादित माल का उपयोग फिर ग्रामीण अधिक कीमत चुका कर करते हैं। ग्राम संस्कृति तो
अब दरिद्रता, निरक्षरता एवं पिछड़ेपन का पर्याय हो गया है।
शहरों का अतिविस्तार और श्रृंगार हो रहा है। समाज वैज्ञानिकों का मानना है कि यदि
नगरीकरण का यही विस्तार रहा तो आने वाले समय में शायद भारत में गांव रहेंगे ही
नहीं।
आजादी
के बाद पंचवर्षीय योजनाओं और विकास कार्यक्रमों के माध्यम से ग्रामीण पुनर्निमाण
के प्रयास किए गए। बावजूद इसके समस्याओं का समाधान नहीं हुआ। देश के किसानों और
कारीगरों के प्रति की गयी लापरवाही ने गांव को दरिद्र, मूढ़ और काहिल बनाकर छोड़ा है। आज के उद्योगपति गांवों के लोगों को
उत्पादों का उपभोक्ता तो बनाना चाहते हैं पर देना कुछ नहीं चाहते। अपने को राष्ट्र
का कर्णधार कहने वाले राजनेता गांवों से अपने लिए वोट तो पाना चाहते हैं, परंतु उनके विकास के लिए रखी करोड़ों की राशि को स्वयं हजम कर जाते हैं।
बुद्धिजीवी भी गांवों की बात तो करते हैं
लेकिन वहाँ रहना नहीं चाहते। गांव और शहर के सवाल पर संवादाताओं द्वारा गांधीजी से
पुछे जाने पर की क्या आप नगरवासियों को फिर से गांव भेज देंगे, तो गांधीजी कहते हैं कि “नहीं वह तो नहीं करूँगा,
मैं बस इतना ही चाहता हूँ कि वे अपने जीवन को इस तरह ढाले जिससे वह गांव वालों का
शोषण बंदकर सके और ग्राम वासियों की बिगड़ी अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने में
सहायता देकर जहाँ तक संभव हो उसकी क्षतिपूर्ति करें।”[8]
वर्तमान
भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था की सबसे बड़ी समस्या आर्थिक एवं सामाजिक बेकारी की है।
ग्रामीण बेकारी के दो स्वरूप स्पष्ट होते हैं- 1.मौसमी बेकारी एवं 2. सदा रहने
वाली या अदृश्य बेकारी। वर्तमान में कृषि गांवों के प्रमुख धंधे के रूप में है और
कृषि का स्वभाव मौसम पर आधारित है। कृषि में संलग्न जनसंख्या का पर्याप्त भाग 4 से
6 महीने तक प्रति वर्ष बेकार रहता है। महिलाएं तो और भी अधिक अवधि के लिए बेकार हो
जाती है। कृषि क्षेत्र में लगे व्यक्तियों की बेरोजगारी की एक बड़ी खूबी यह है कि
उसमें प्रत्येक व्यक्ति काम करता हुआ ही दिखता है लेकिन उससे कुछ व्यक्तियों को
निकाल बाहर कर दिया जाए तो कृषि कार्य सम्पन्न होने में कोई दिक्कत नहीं होगी।
जिसे गुप्त बेकारी कहा जाता है। संयुक्त राष्ट्र विशेषज्ञ समिति के अनुसार “अदृश्य
बेरोजगारी वे हैं जो अपने ही धंधे में लगे हुए हैं और जो जिन संसाधनों पर काम करते
हैं उनकी तुलना में इतने अधिक हैं कि यदि इनमें से कुछ किसी दूसरे क्षेत्र में काम
करने के लिए खींच लिए जायें तो उसकी उत्पत्ति जरा भी नहीं घटेगी।”[9]
गांधीजी
मानते हैं कि, “यदि भारत को विनाश से बचाना है तो सीढ़ी
के सबसे निचले भाग से काम शुरू करना होगा। यदि निचला भाग सड़ा हुआ है तो ऊपर और बीच
के हिस्सों पर किया गया काम अंत में गिर पड़ेगा।”[10] इस प्रकार हम देखते हैं की गांधी एक
समर्थ-स्वावलंबी गाँव की कल्पना करते हैं। इसी स्वावलंबी गांवों के जरिये
हिंदुस्तान की गरीबी-बेकारी और विषमता जैसे सवाल हल हो सकते हैं। गांधी की ग्राम
दृष्टि की उपेक्षा का परिणाम देश भुगत रहा है। ऐसी परिस्थिति में गांधी की
ग्राम-दृष्टि पर सतत चिंतन-मंथन की आवश्यकता है।
संपर्क: -चन्दन कुमार, जूनियर
रिसर्च फ़ेलो (यूजीसी), पी-एच.डी., अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र. मो.- 09763710526 ; ई-मेल : chandankumarjrf@gmail.com
[1] भट्टाचार्य, विवेक रंजन; 20 सूत्री कार्यक्रम: ग्रामीण भारत का बदलता स्वरूप, शान प्रिंटर्स, दिल्ली, 1983, पृ. 34
[5] पाण्डेय, प्रदीप कुमार; गांधी का आर्थिक एवं सामाजिक चिंतन, हिन्दी माध्यम
कार्यान्वय निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, 1996, पृ. 29
[9] जोशी, के. एन. एवं मिश्र, मंजुला; कृषि अर्थशास्त्र के सिद्धान्त एवं भारत
में कृषि विकास, क़ॉलेज बुक डिपो, जयपुर, 2007, पृ. 26
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