- चन्दन कुमार, एस आर एफ (यूजीसी)
पी -एच. डी., अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा.

लेकिन, अंग्रेजों के दासत्व में गुलाम देश का गुलाम गांव बन गया। अंग्रेज यहां
आए और उन्होंने यहां की ग्राम व्यवस्था को समाप्त कर दिया। परिणाम यह हुआ कि देश
तो पराधीन बना ही, साथ ही साथ गांव भी पराधीन बन गया। पराधीन
गांवों का पराधीन देश। इस प्रकार हिंदुस्तान कि ग्राम व्यवस्था को तोड़ने का काम
अंग्रेजों ने किया और उसमें वे सफल भी रहे। अंग्रेजों के पूर्व अनेकों हमले हुए थे, लेकिन ग्राम व्यवस्था नहीं टूटी थी। आज भी अंग्रेजों से आजादी मिलने के 70
साल बाद भी गांवों की स्थिति में सुधार नहीं हो पाया है। कारण मानसिकता अंग्रेजों
वाली ही रह गई है। गांधीजी चाहते थे, अंग्रेजियत चली जाय, भले ही अंग्रेज रह जाए। परन्तु स्वतन्त्रता के पश्चात अंग्रेज तो चले गए
लेकिन हमलोगों ने अंग्रेजियत को गले लगा लिया है।
गांधी
ऐसे भारत की कल्पना नहीं करते थे जहां निर्धनता हो,
जिसमें करोड़ों अज्ञानी लोगों का वास हो। गांधी की कल्पना में भारत अपनी प्रकृति के
अनुरूप निरंतर प्रगति करने वाला देश बने। जिसमें कोई निरक्षर नहीं हो, कोई बेरोजगार नहीं हो, प्रत्येक के पास भरपूर काम
हो एवं पौष्टिक भोजन मिले, हवादार मकान हो, तन ढकने के लिए प्रयाप्त कपड़े हो, सभी ग्रामवासियों
को स्वास्थ्य-रक्षा तथा स्वच्छता के नियमों का ज्ञान हो। गांव में एक मंच, स्कूल और सार्वजनिक सभागार हो। इस तरह गांधी प्रत्येक गांव को अपने पैरों
पर खड़ा होने की बात करते है एवं अपने गांव कि प्रत्येक जरूरत की चीजें गांव में ही
पैदा करने को कहते हैं। विशेष परिस्थिति में ही आवश्यक चीजें बाहर से मंगाई जाये।
हर गांव अपने पैसे से पाठशाला, सभा-भवन या धर्मशालाएं बनाए।
संभव हो तो कारीगर उसी गांव के हों। गांव के प्रत्येक व्यक्ति को स्वच्छ अनाज, स्वच्छ पानी और स्वच्छ मकान मिले इसका ध्यान रखना जरूरी है। प्रत्येक
प्रवृति सहकारी ढंग से चलाने चाहिए गांव के लोग सार्वजनिक काम को हाथ में लें और
गांव ही कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका का काम करे।[4] इस तरह गांधीजी स्वतंत्र भारत
को आत्मनिर्भर गांवों का महासंघ बनाना चाहते थे। गांधीजी ग्राम-सभ्यता को कभी-भी
नष्ट नहीं होने देना चाहते थे। उनका कहना था कि, हम ऊँची
ग्राम सभ्यता के उत्तराधिकारी हैं। हमारे देश की विशालता,
आबादी की विशालता और हमारी भूमि की स्थिति तथा आबोहवा ने मेरी राय में मानों यह तय
कर दिया है कि उसकी सभ्यता ग्राम सभ्यता होगी[5] और दूसरी कोई नहीं।
गांधीजी
चाहते हैं, हमें गांवोंवाला भारत और शहरोंवाला भारत, इन दो में से एक को चुन लेना है। गांव उतने ही पुराने हैं जितना कि यह
भारत पुराना है। शहरों को विदेशी आधिपत्य ने बनाया है। जब यह आधिपत्य मिट जाएगा, तब शहरों को गांवों के मातहत होकर रहना पड़ेगा। आज तो शहरों का बोलबाला है
और वे गांवों की सारी दौलत खींच लेते हैं। इससे गांवों का ह्रास और नाश हो रहा है।
गांवों का शोषण खुद एक संगठित हिंसा है। अगर हमें स्वराज कि रचना अहिंसा के पाये
पर करनी है, तो गांवों को उनका उचित स्थान देना होगा।[6] इसी तरह की बात गांधीजी ने ‘मनु’ से शहरों में मौजूद बड़े-बड़े कल-कारखानों के कारण
ग्रामीण उद्योग के नष्ट हो जाने के संबंध में कहते हैं कि, मशीनों
में जो रुपया लगाया गया है वह खाक भी हो जाये तो मुझे सहानुभूति नहीं होगी। सच्चा
हिंदुस्तान तो सात लाख गांवों में बसता है। यूरोप के बड़े शहर लंदन आदि ने हिंदुस्तान
को चूसा है और हिंदुस्तान के शहरों ने उसके गांवों को चूस लिया है। उसी से शहरों
में ऐसे महल खड़े हुए हैं और गांव कंगाल बन गए हैं। मुझे तो इन गांवों को फिर से
प्राणवान बनाना है। मैं यह नहीं कहना चाहता कि सब शहरों की सारी मिलों को
तोड़-फोड़कर बर्बाद कर दो। लेकिन जहां भूले, वहां से फिर
सावधान होकर चलना चाहिए। गांवों को चूसना बंद करना चाहिए और जितना अन्याय हुआ हो, उसकी बारीकी से जांच करके गांवों की आर्थिक स्थिति मजबूत बनानी चाहिए।[7] रवीन्द्र नाथ टैगोर का भी
कहना था, ‘भारत माता (गांव) को पद से गिराकर गांव के साधनों को शहरों में खींचकर
नौकरानी बना दिया है।’ शहरों द्वारा उत्पादित माल का उपयोग
फिर ग्रामीण अधिक कीमत चुका कर करते हैं। ग्राम संस्कृति तो अब दरिद्रता, निरक्षरता एवं पिछड़ेपन का पर्याय है। शहरों का अतिविस्तार और श्रृंगार हो
रहा है। समाज वैज्ञानिकों का मानना है कि यदि नगरीकरण का यही विस्तार रहा तो आने
वाले समय में शायद भारत में गांव रहेंगे ही नहीं।
गांधी
नगरों की बढ़वार को एक बुराई तथा मानव जाति और दुनिया के लिए दुर्भाग्य का विषय मानते
हैं। यह निश्चित रूप से, भारत के लिए दुर्भाग्य का
विषय है। अंग्रेजों ने शहरों के माध्यम से भारत का शोषण किया। शहरों ने पलटकर
गांवों का शोषण किया। शहरों का भवन-निर्माण गांवों के रक्त रूपी सीमेंट से हुआ है।
जो रक्त आज नगरों की धमनियों में बह रहा है, वह फिर एक बार
गांवों की रक्तवाहिकाओं[8] में बहने चाहिए। जब तक शहरवासी
गांवों से प्राप्त शक्ति और पोषण के बदले उन्हें पर्याप्त प्रतिफल देना अपना
कर्तव्य नहीं मान लेते और अपने स्वार्थवश उनका शोषण बंद न कर देते तब तक नगरवासी
और ग्रामवासियों के बीच स्वस्थ और नैतिक संबंध जन्म नहीं ले पाएगा। यदि शहर के
बच्चों को सामाजिक पुनर्निर्माण के इस महान कार्य में अपना योगदान करना है तो
उन्हें जिन व्यवसायों के जरिये अपनी शिक्षा ग्रहण करनी है,
वे प्रत्यक्ष रूप से गांवों की आवश्यकताओं से संबंधित होने चाहिए।[9] यानि बच्चों की शिक्षा भी
ग्राम आधारित होने से गांव का विकास होगा।
गांधी
भारत को विनाश से बचाने के लिए, सीढ़ी के सबसे निचले भाग
से काम शुरू करने की बात कहते हैं। यदि निचला भाग सड़ा हुआ है तो ऊपर और बीच के
हिस्सों पर किया गया काम अंत में गिर पड़ेगा।[10] गांधी ने अनेक बार यह बात
दोहराई है कि भारत उसके शहरों में नहीं बसता, बल्कि उसके 7
लाख गांवों में बसता है। लेकिन शहरवासी यह समझते हैं कि भारत शहर में बसता है और गांव
केवल हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति करने के
लिए हैं। शहरवासी कभी यह जानने का कष्ट नहीं करते कि उन निर्धन ग्रामवासियों के
पास खाने और पहनने के लिए प्रयाप्त व्यवस्था है अथवा नहीं और उनके पास धूप और
वर्षा से अपनी रक्षा करने के लिए कोई आश्रय-स्थली भी है या नहीं।[11] शहर अपनी देखभाल करने में
स्वयं समर्थ हैं। इसलिए गांवों की ओर ध्यान देने की आवश्यकता है। उन्हें उनके
पूर्वाग्रहों, अंधविश्वासों, संकीर्ण
दृष्टिकोण आदि से मुक्त करना होगा। गांधी इसका उपाय देते हैं कि, हम उनके बीच में जाकर रहें, उसकी खुशियों और गमों
में भागीदार बनें और उनके बीच शिक्षा और उपयोगी जानकारी का प्रसार करें।[12] गांधी के अनुसार नगरवासी ने
आम तौर पर ग्रामवासी का शोषण किया है। सच पूछा जाए तो वह निर्धन ग्रामवासी की
परवरिश पर जीता आया है। जहां तक भारतीय ग्रामवासी का संबंध है, उसके गंवारपन की पपड़ी के नीचे युगों पुरानी संस्कृति छिपी हुई है। उसकी
यह पपड़ी उतार दिया जाए तथा उसकी जमाने से चली आ रही गरीबी और निरक्षरता को हटा
दिया जाए, तो वह एक सुसंस्कृत, सभ्य और
स्वतंत्र नागरिक का उत्तम नमूना[13] बन जाएगा।
गांधी
के अनुसार भारत को ग्राम गणतंत्रों का अनुभव है। ये अनजाने ही अहिंसा द्वारा शासित
थे...अब एक जानी-बूझी अहिंसक योजना के तहत इनके पुनरुज्जीवन का प्रयास करना होगा।[14] गांधी ने ग्राम इकाई की जो
धारणा बनाई उसे उन्होंने सुदृढ़तम इकाई माना है। ग्राम में लगभग 1000 की आबादी
होगी। यदि ऐसी इकाई का संगठन आत्मनिर्भरता के आधार पर किया गया तो वह बहुत ही
अच्छा परिणाम प्रदर्शित कर सकती है।[15] गांव का शासन पांच व्यक्तियों
की पंचायत के द्वारा चलाने की बात करते हैं, जो न्यूनतम
निर्धारित योग्यता रखने वाले वयस्क स्त्री-पुरुषों द्वारा प्रतिवर्ष चुनी जाए। इन
पांचों के पास समस्त प्राधिकार और अपेक्षित क्षेत्राधिकार हों। वर्तमान में दंड का
सामान्यतया जो अर्थ लगाया जाता है उस अर्थ में कोई दंड-प्रणाली लागू नहीं करने की
बात करते हैं, इसलिए पंचायत ही अपने कार्यकाल के दौरान
विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका,
तीनों को स्वयं में समाविष्ट करते हुए उनके कर्तव्यों का निर्वाह करेगी।[16] गांव में पूर्ण लोकतन्त्र
होगा जो व्यक्तिगत स्वतन्त्रता पर आधारित होगा। व्यक्ति ही अपनी सरकार का निर्माता
होगा। उसपर और उसकी सरकार पर अहिंसा के नियम का शासन होगा। वह और उसका गांव सारी
दुनिया की ताकत को चुनौती दे सकेंगे। कारण कि, प्रत्येक
ग्रामवासी इस नियम से शासित होगा कि वह अपने और अपने गांव के सम्मान की रक्षा में
अपने प्राणों की आहुति देने के लिए तैयार रहेगा।[17] गांधी असंख्य गांवों से बने
इस ढांचे में एक के बाद एक विस्तारशील किन्तु कभी ऊर्ध्वगामी न होने वाले वलय की
बात करते हैं एवं जीवन एक पिरामिड की तरह नहीं होने की बात करते है जो वर्तमान में
है, जिसमें आधार को शीर्ष का भार वहन करना पड़ता है बल्कि वे
एक समुद्री वलय की तरह होने की बात करते है, जिसके केंद्र
में सिर्फ व्यक्ति होगा जो सदैव अपने गांव के लिए मर-मिटने के वास्ते तैयार रहेगा, गांव गांव-समूहों के वास्ते नष्ट हो जाने के लिए तैयार रहेगा, और यह प्रक्रिया वहां तक चलते रहने की बात करते है,
जहां संपूर्ण विश्व एक जीवन का रूप धारण कर लेगा; सभी
व्यक्ति इस एक जीवन के अंग होंगे, वे कभी आक्रामक रुख नहीं
अपनाएँगे बल्कि सदा विनम्रता का व्यवहार करेंगे और उस समुद्री वलय के ऐश्वर्य में
भागीदार होंगे जिसकी वे अंगभूत इकाइयां हैं। गांधी इस बात को स्वीकारते हैं कि एक
आदर्श गांव का निर्माण उतना ही कठिन है जितना कि आदर्श भारत का निर्माण है। लेकिन
जहां एक व्यक्ति के लिए एक-न-एक दिन एक गांव को आदर्श रूप प्रदान करने की अपनी
आकांक्षा को पूरा करना संभव है वहीं सारे भारत को आदर्श देश बनाने के लिए किसी एक
व्यक्ति का जीवनकाल बहुत थोड़ा है। लेकिन अगर एक आदमी एक गांव को आदर्श स्वरूप
प्रदान कर सकता है तो वह न केवल सारे देश बल्कि पूरी दुनिया के सामने एक नमूना पेश
करेगा। सत्यशोधक को इससे बड़ी उपलब्धि की आकांक्षा नहीं करनी चाहिए,[18] जो वास्तव में सबसे बड़ी उपलब्धि है।
गांधी
उस खतरे की ओर इंगित करते जो वास्तव में वर्तमान में है खतरा यह है कि, कहीं हम अपने हाथों का इस्तेमाल करना न भूल जाएं। यदि हम यह भूल गए, जमीन कैसे खोदी जाती है और मिट्टी की देखभाल किस तरह की जाती है तो समझिए
हम स्वयं को भूल गए। नेता-मंत्री की तरफ भी गांधी इशारा करते हुए कहते हैं कि, यदि आप यह समझते हैं कि केवल शहरों की सेवा करके ही आप अपने मंत्री-पद को
सफल सिद्ध कर सकते हैं तो आप यह भूलते हैं कि भारत वस्तुत: अपने 7 लाख गांवों में
बसता है। आदमी को सारी दुनिया मिल जाए, लेकिन बदले में उसे
अपनी आत्मा दे देनी पड़े तो उसके पास बचा ही क्या?[19] यदि भारतीय
सभ्यता को एक स्थायी विश्व व्यवस्था के निर्माण में अपना पूरा-पूरा योगदान करना है
तो गांवों में बसने वाली इस विशाल जनसंख्या को...फिर से जीना[20] सिखलाना होगा।
गांधी गांव
को व्यवस्थित करने के लिए गांवों का सर्वेक्षण कराने के पक्ष में दिखते हैं और उन
चीजों की सूची तैयार कराने की बात करते हैं, जो कम से कम
या किसी तरह की सहायता के बिना स्थानीय रूप से तैयार की जा सकती हैं और जो या तो
गांवों के ही इस्तेमाल में आ जाएंगी या जिन्हें बाहर बेचा जा सकेगा।...इस प्रकार
यदि पर्याप्त ध्यान दिया जाए तो ऐसे गांवों में जो निष्प्राण हो चुके हैं या
निष्प्राण होने की प्रक्रिया में हैं, नवजीवन का संचार हो
सकेगा तथा उनकी स्वयं अपने और भारत के शहरों और कस्बों के इस्तेमाल के लिए
आवश्यकता की अधिकांश वस्तुओं के निर्माण की अनंत संभावनाओं का पता[21] हो सकेगा एवं ग्रामवासियों को
अपने कौशल में इतनी वृद्धि कर लेनी चाहिए कि उनके द्वारा तैयार की गई चीजें बाहर
जाते ही हाथों-हाथों बिक जाएं। जब हमारे गांवों का पूर्ण विकास हो जाएगा तो वहां
ऊंचे दर्जे के कौशल और कलात्मक प्रतिभा वाले लोगों की कमी नहीं रहेगी। आज हमारे
गांव गोबर के ढेर मात्र नजर आते हैं। कल वे सुंदर-सुंदर वाटिकाओं का रूप ले लेंगे
जिनमें इतनी प्रखर बुद्धि के लोग निवास करेंगे जिन्हें न कोई धोखा दे सकेगा और न
उनका शोषण कर सकेगा।...गांवों का पुनर्निर्माण अस्थायी नहीं,
स्थायी आधार पर किया जाना[22] उचित होगा। गांधी चिंता
व्यक्त करते हैं कि, अगर गांव नष्ट होते हैं तो भारत भी नष्ट
हो जाएगा। तब भारत भारत नहीं रहेगा। दुनिया में भारत का अपना मिशन ही खत्म हो
जाएगा। गांवों का पुनरुज्जीवन तभी संभाव है जब उनका शोषण समाप्त हो। बड़े पैमाने के
औद्योगीकरण से अनिवार्यत: ग्रामवासियों का निष्क्रिय अथवा सक्रिय शोषण होगा, क्योंकि औद्योगीकरण के साथ प्रतियोगिता और विपणन की समस्याएँ जुड़ी रहती हैं।
इसलिए गांवों को स्वत:पूर्ण बनाने पर ज़ोर देना होगा जो अपने इस्तेमाल की चीजें खुद
बनाएँगे। यदि ग्राम उद्योगों के इस स्वरूप की रक्षा की जाती है तो फिर
ग्रामवासियों द्वारा उन आधुनिक मशीनों और औजारों का इस्तेमाल करने पर भी कोई
आपत्ति नहीं है जिन्हें वे बना सकते हों और जिनका इस्तेमाल करने की सामर्थ उनमें
हो। यह जरूरी है कि उन्हें दूसरों के शोषण का साधन नहीं बनाया जाना चाहिए।[23] यानि बड़े उद्योगों द्वारा
उसके रोजगार को न छिना जाए। गांधी प्रत्येक गांव के सभी घरों में बिजली व्यवस्था
दिलाने के पक्ष में थे और उन्हें ग्रामवासियों द्वारा अपनी मशीनों और औजारों को
बिजली से चलाए जाने पर कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन बिजली घरों
का स्वामित्व या तो राज्य के पास या ग्राम समुदायों के पास रखने की बात करते हैं। लेकिन
जहां न बिजली है, न मशीनें हैं, वहां
खाली हाथ क्या करें?[24] विचारणीय है।
हम
देखते हैं कि, आजादी के बाद पंचवर्षीय योजनाओं और विकास
कार्यक्रमों के माध्यम से ग्रामीण पुनर्निमाण के प्रयास किए गए। बावजूद इसके समस्याओं
का समाधान नहीं हुआ। गांव के किसानों और मजदूरों के प्रति लापरवाही बरती गई, जिसके कारण आज भी गांव दरिद्र, मूढ़ और काहिल है। आज
के उद्योगपतियों ने गांवों के लोगों को उत्पादों का उपभोक्ता बना दिया है। अपने को
राष्ट्र का कर्णधार कहने वाले राजनेता गांवों से अपने लिए वोट तो पाना चाहते हैं, लेकिन गांव का विकास करना नहीं चाहते हैं। बुद्धिजीवी भी गांवों की बात
तो करते हैं लेकिन वहां रहना नहीं चाहते है। वर्तमान भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था
की सबसे बड़ी समस्या आर्थिक एवं सामाजिक बेकारी की है। उद्योग-धंधे उजड़ चुके है।
लगातार पलायन जारी है। कृषि क्षेत्र में लगे प्रत्येक व्यक्ति काम करता हुआ ही
दिखता है लेकिन उससे कुछ व्यक्तियों को निकाल बाहर कर दिया जाए तो कृषि कार्य
सम्पन्न होने में कोई दिक्कत नहीं होगा। संयुक्त राष्ट्र विशेषज्ञ समिति के अनुसार
इसे अदृश्य बेरोजगारी कहा जा सकता है। समिति के अनुसार, जो
अपने ही धंधे में लगे हुए हैं और जो जिन संसाधनों पर काम करते हैं उनकी तुलना में
इतने अधिक हैं कि यदि इनमें से कुछ किसी दूसरे क्षेत्र में काम करने के लिए खींच
लिए जायें तो उसकी उत्पत्ति जरा भी नहीं घटेगी[25] एवं काम चलता रहेगा।
इस
प्रकार हम देखते हैं की गांधी एक समर्थ-स्वावलंबी गांव की कल्पना करते हैं एवं स्वावलंबी
गांवों के जरिये ही हिंदुस्तान की गरीबी-बेकारी और विषमता जैसे सवाल हल हो सकते
हैं। गांधी की ग्राम दृष्टि की उपेक्षा का परिणाम देश भुगत रहा है। ऐसी परिस्थिति
में गांधी की ग्राम-दृष्टि पर सतत चिंतन-मंथन की आवश्यकता है।
संपर्क: संस्कृति
विद्यापीठ, अहिंसा एवं
शांति अध्ययन विभाग, महात्मा
गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र. (442005) मो.- 09763710526, ईमेल:chandankumarjrf@gmail.com
संदर्भ-सूची
[1] भट्टाचार्य, विवेक रंजन; 20 सूत्री कार्यक्रम: ग्रामीण भारत का
बदलता स्वरूप, शान प्रिंटर्स, दिल्ली, 1983, पृ. 34
[2] Buchanun, f. an; ancient
district of purnia 1809-1810, patna, 1934, p. 474
[3] वही, पृ. 40
[4] सम्पूर्ण
गांधी वाड्मय, खंड-87, प्रकाशन विभाग, सूचना और प्रसारण मंत्रालय भारत सरकार, पृ. 267
[5] पाण्डेय, प्रदीप कुमार; गांधी का आर्थिक एवं सामाजिक चिंतन, हिन्दी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय, दिल्ली
विश्वविद्यालय, 1996, पृ. 29
[6] गांधीजी; हरिजन सेवक, 20-01-1940
[7] सम्पूर्ण
गांधी वाड्मय, खंड-87, पृ. 320
[8] हरिजन, 23-6-1946, पृ. 198
[9] हरिजन, 9-10-1937, पृ. 293
[10] गंगारडे, के. डी.; गांधी के आदर्श और ग्रामीण विकास, राधा पब्लिकेशन, नई दिल्ली,
2006, पृ. 11
[11] हरिजन, 4-4-1936, पृ. 63
[12] यंग
इंडिया, 17-4-1924, पृ. 130
[13] हरिजन, 28-1-1939, पृ. 439
[14] हरिजन, 4-8-1940, पृ. 240
[15] हरिजन, 4-8-1946, पृ. 252
[16] हरिजन, 26-7-1942, पृ. 238
[17] हरिजन, 26-7-1942, पृ. 238
[18] हरिजन, 4-8-1940, पृ. 235
[19] हरिजन, 25-8-1946, पृ. 282
[20] हरिजन, 27-4-1947, पृ. 122
[21] हरिजन, 28-4-1946, पृ. 104
[22] हरिजन, 10-11-1946, पृ. 394
[23] हरिजन, 29-8-1936, पृ. 226
[24] हरिजन, 22-6-1935, पृ. 146
[25] जोशी, के. एन. एवं मिश्र, मंजुला;
कृषि अर्थशास्त्र के सिद्धान्त एवं भारत में कृषि विकास,
क़ॉलेज बुक डिपो, जयपुर, 2007, पृ. 26
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