Wednesday, 11 January 2017

क्षेत्रीयतावाद एवं जन-आकांक्षा


                                                                           - चन्दन कुमार, एस आर एफ (यूजीसी)
पी -एच. डी., विकास एवं शांति अध्ययन विभाग
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा.
भारत विविधताओं वाला देश है, जिसमें क्षेत्रीयतावाद उस छोटे-से क्षेत्र से है जो आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक आदि कारणों से अपने पृथक अस्तित्व के लिए जागृत है।[1] राष्ट्र की तुलना में क्षेत्रवाद किसी क्षेत्र विशेष, राज्य या प्रांत से लगाव उसके प्रति भक्ति या विशेष आकर्षण है। इस दृष्टि से क्षेत्रीयतावाद राष्ट्रीय एकता का विलोम है, जिसका उद्देश्य संकुचित क्षेत्रीय स्वार्थों की पूर्ति करना है। क्षेत्रीयता विभिन्नता की उत्पाद है, जिसमें सांस्कृतिक विभिन्नता, भाषायी लगाव, भौगोलिक, ऐतिहासिक, जातीयता, आर्थिक एवं राजनीतिक प्रमुख कारण हैं। भारतीय संघीय व्यवस्था में क्षेत्रीयतावाद की विशिष्ट भूमिका रही है।
          स्वतन्त्रता के पश्चात क्षेत्रीयतावाद की चेतना भारतीय राजनीति में ज्यादा सक्रिय दिखलाई पड़ती है और इसी चेतना के अंतर्गत क्षेत्रवाद को लेकर अनेक संगठित आंदोलन, प्रचार और उपद्रव भारत के अनेक क्षेत्रों में हुआ और राज्यों की जनता में क्षेत्रीय अस्तित्व की प्रबल प्रादेशिक चेतना का उदय हुआ। जो राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता के कुछ मामले में बाधक के साथ-साथ पुनर्निर्माण भी रहा है। जब क्षेत्रवाद उग्र या नकारात्मक स्वरूप ग्रहण करके अलगाववादी स्थिति की ओर अग्रसर हो जाता है तो राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता प्रभावित होती है। हम देखते हैं कि, जन-आकांक्षा में क्षेत्रीयतावाद की प्रवृत्ति के अनेक रूप रहे हैं, जिसमें भारतीय संघ से पृथक होने की मांग, अपने लिए पृथक राज्य की मांग, भाषायी विवाद, अंतरराज्यीय विवाद, क्षेत्रीय आर्थिक टकराव एवं क्षेत्रीय दलों का बढ़ता प्रभाव आदि प्रमुख हैं, परंतु इनमें से आज क्षेत्रीयतावाद का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष पृथक राज्यों की मांग है जो आज भी जारी है एवं भारतीय राजनीति को प्रभावित कर देश की एकता एवं अखंडता को खतरा उत्पन्न[2] करता रहा है।      
          यह भी देखते हैं कि, संस्कृति और भाषा की दृष्टिकोण से राज्य का निर्माण करना बुरा नहीं हुआ है। लेकिन, केवल क्षेत्रीय भावना और संकुचित स्वार्थ पर आधारित राज्य का निर्माण करना घातक ही होगा। इससे राष्ट्रीय और भावनात्मक एकता को गहरा धक्का पहुंचेगा, देश राज्यों के आपसी विवादों का अखाड़ा बन जाएगा। केंद्र के लिए अनेक नए सिरदर्द पैदा हो जाएंगे तथा देश की राजनीति अधिक विघटनकारी मोड़ ले लेगी। यदि क्षेत्रीय भावनाएं और राजनीतिक आकांक्षाओं को संतुष्ट करने के लिए ही राज्यों का निर्माण करते चला जाय तो सैकड़ों राज्यों के निर्माण से भी इस भावना[3] को संतुष्ट नहीं किया जा सकता है। हमारा देश इतना विशाल है कि इनमें अनेक क्षेत्र तो बहुत अधिक विकसित हैं जबकि कई क्षेत्र बहुत पिछड़े हुए हैं। सामाजिक विषमताओं के साथ आर्थिक विषमताएँ भी सामाजिक ढांचे को प्रभावित[4] करती रही हैं।
          भारतवासी अपने देश को एक राष्ट्र मानते हैं जबकि पश्चिमी विद्वान इसे एक राष्ट्र न कहकर बहुराष्ट्र संघ का नाम देते हैं एवं विभिन्न राज्यों को राष्ट्र मानते[5] हैं। जॉन स्ट्रेची का भी मानना है कि भारत एक ऐसा नाम है जो एक राष्ट्र का ही नहीं अपितु अनेक राष्ट्रों एवं देशों के संकलन का सूचक है।[6] प्रत्येक क्षेत्र की धर्म, संस्कृति आदि भिन्न हैं और इस तरह कोई भी दो प्रादेशिक क्षेत्र परस्पर समान नहीं है। यह विशिष्टता एवं भिन्नता राष्ट्र की मुख्य धारा से अलग करती है। इसी से प्रांतवाद व संकुचित प्रादेशिकता की भावना का विकास होता है एवं अपने क्षेत्र की भाषा और संस्कृति को श्रेष्ठ मानने लगता है और दूसरे की भाषा एवं संस्कृति को हीन मानने लगता है। भारत की विविधताओं जैसे की भाषा, संस्कृति, धर्म तथा संजातीयता इत्यादि तथा क्षेत्रीयता को उचित प्रतिनिधित्व देना तथा इनके साथ समान व्यवहार किया जाना भारत के विकास तथा शांति व्यवस्था के लिए अत्यंत आवश्यक[7] है। राजस्थान में मारू प्रदेश, उत्तर प्रदेश में बुंदेलखंड, पूर्वाञ्चल, भोजपुर तथा हरित प्रदेश, मध्य प्रदेश में विंध्य प्रदेश, बघेलखंड, रेवांचल, मध्य भारत, महाकोसल व मालवा, बिहार में मिथिला, गुजरात में सौराष्ट्र, महाराष्ट्र में कोंकण, विदर्भ, मराठवाड़ा, कर्नाटक में कुर्ग, कोडागु व सागरी प्रांत, पश्चिम बंगाल में गोरखालैंड व कामतापुरी, उड़ीसा में कोशल राज्य, असम में कारबी अंगलोग तथा पुर्वांचल, नागालैंड में कुकीलैंड, मेघालय में गारोलैंड तथा मिजोरम में हमर राज्य। ये सभी मांगें सजातीय व भाषायी विविधता को एक क्षेत्रीय आधार प्रदान करवाने के लिए[8] की जाती रही है। इन्हीं के भीतर कई ऐसे प्रदेश हैं जिन्हें अपनी भौगोलिक स्थिति, ऐतिहासिक परंपरा, धार्मिक विश्वास, भाषा और बोली पर गर्व है। उदाहरण के लिए महाराष्ट्र के दो प्रमुख क्षेत्र हैं विदर्भ और मराठवाडा। इसी प्रकार बुंदेलखंड और गढ़वाल को, उत्तर प्रदेश के दो बड़े क्षेत्रों की श्रेणी[9] में रख सकते हैं।
          हम देखते हैं कि, आजादी के बाद से भारतीय सामाजिक और आर्थिक विकास की प्रक्रिया में राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण असमानताएँ व्याप्त हुई हैं। नियोजित प्रणाली द्वारा विकास के विभिन्न कार्यक्रम क्षेत्रीय अर्थतन्त्र को जहां एक ओर विकासोन्मुखी करते हैं, वहीं तीव्र बढ़ती हुई जनसंख्या और उसका नगरों की ओर पलायन समस्त परिणामों को परिवर्तित कर देता है। यही कारण है कि भारतीय समाज व अर्थतन्त्र में क्षेत्रीय विषमताएँ सदैव दृष्टिगत रही हैं। विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं के प्रारम्भ में अपनाई गयी नीतियों के कारण ये विषमताएँ और अधिक प्रखर[10] रूप धारण कर चुकी है। इस तरह विकास की क्षेत्रीय असमानता मानवकृत है। भारत में भाषाई, धार्मिक, शैक्षिक, वर्ग, जाति आदि की असमानताओं के साथ-साथ विकास की क्षेत्रीय असमानताएँ एवं विषमताएँ विद्यमान हुई है। भारत के राज्यों एवं केन्द्रशासित प्रदेशों में यह स्पष्ट देखने को मिल रहा है। आर्थिक विकास के दृष्टिकोण से इनमें अनेक असमानताएँ हैं, जिसे दो भागों में बाँट कर देखा जा सकता है- अंतर्राज्यीय और अंत:राज्यीय। अन्तर्राज्यीय असमानताओं का तात्पर्य यह है कि विभिन्न राज्यों या प्रदेशों के बीच असमानताएँ एवं अंत:राज्यीय असमानताओं का अर्थ है, एक ही राज्यों या प्रदेशों के विभिन्न जिलों, खंडों या प्रादेशिक इकाइयों के बीच असमानताओं का होना। भारत में स्थित उड़ीसा, राजस्थान, बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, केरल आदि आर्थिक रूप से पिछड़े हुए हैं, वहीं पंजाब, महाराष्ट्र, गुजरात आदि राज्य अधिक विकसित हुए।   
          क्षेत्रीयवाद को जन्म देने वाले अनेक कारण है स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद राज्यों का जब पुनर्गठन हुआ तो अंग्रेजों द्वारा लादी गई पुरानी सीमाओं को भुलाकर नहीं किया गया था, बल्कि उनको पुनर्गठन का आधार बनाया गया। इसी कारण एक राज्य में रहने वाले लोगों में एकता की भावना नहीं आ पाई। प्राय: भाषा और संस्कृति क्षेत्रीयवाद की भावनाओं को उत्पन्न करने में बहुत सहयोग देते हैं। तमिलनाडु के निवासी अपनी भाषा और संस्कृति को भारतीय संस्कृति से श्रेष्ठ मानते हैं। वे राम और रामायण की कड़ी आलोचना करते हैं। 1975 में उन्होंने तमिलनाडु में कई स्थानों पर राम-लक्ष्मण के पुतले जलाए। 1960 में इसी आधार पर उन्होंने भारत से अलग होने के लिए व्यापक आन्दोलन[11] किया था। क्षेत्रीयवाद की उत्पत्ति में इतिहास का दोहरा सहयोग रहा है- सकारात्मक और नाकारात्मक। नार्मन डी. पामर का विचार है कि भारत की अधिकांश राजनीति क्षेत्रीयवाद और भाषावाद के बहुत-से प्रश्नों के चारों ओर घूमती है। क्षेत्रीयवाद की समस्याएँ स्पष्ट रूप से भाषा से संबन्धित हैं। भारत में सदैव ही अनेक भाषाएँ रही हैं और विभिन्न भाषाएँ बोलने वालों ने कई बार अलग राज्य के निर्माण के लिए व्यापक आंदोलन किए।
          क्षेत्रीयवाद की उत्पत्ति में जाति की भी प्रधानता है। जिन क्षेत्रों में किसी एक जाति की प्रधानता रही है, वहीं क्षेत्रीयवाद का उग्र रूप देखने को मिला है। जहां किसी एक जाति की प्रधानता नहीं रही, वहां पर एक जाति ने दूसरी जाति को रोके रखा है और क्षेत्रीयता की भावना इतनी नहीं उभरी। यही कारण है कि महाराष्ट्र और हरियाणा में क्षेत्रीयवाद का उग्र स्वरूप देखने को मिला, जबकि उत्तर प्रदेश में नहीं मिलता है।[12] क्षेत्रीयवाद को बढ़ाने में धर्म भी सहायक होता है। पंजाब में अकालियों की पंजाबी सूबा की मांग कुछ हद तक धर्म के प्रभाव का परिणाम था। यही हाल कश्मीर[13] का भी है। एक तरफ आर्थिक विकास में काफी असमानता रही है। कुछ प्रदेशों का आर्थिक विकास बड़े पैमाने पर किया गया और कुछ प्रदेशों का नगण्य ही रहा। जिन व्यक्तियों के हाथों सत्ता रही उसने अपने क्षेत्रों की ओर ज्यादा से ज्यादा विकास पर ध्यान दिया। 1966 से पूर्व पंजाब में सत्ता पंजाबियों के हाथों में रही, जिस कारण हिसार, गुड़गांव, महेन्द्रगढ़, जींद आदि क्षेत्रों का विकास न के बराबर ही रहा। आंध्र प्रदेश में सत्ता मुख्य रूप से आंध्र प्रदेश के नेताओं के पास रही, जिस कारण तेलंगाना पिछड़ा ही रहा। उत्तर प्रदेश में पूर्वी उत्तर प्रदेश पिछड़ा रह गया, राजस्थान में पूर्वी राजस्थान अविकसित रह गया और इसी प्रकार महाराष्ट्र में विदर्भ का विकास नहीं हो पाया। अत: पिछड़े क्षेत्रों में यह भावना उभरी कि यदि सत्ता उनके पास होती तो उनके क्षेत्र पिछड़े न रह जाते। इसीलिए इन क्षेत्रों के लोगों में क्षेत्रीयवाद कि भावना उभरी और उन्होंने अलग राज्य की मांग[14] रखी। कई राजनीतिक दल यह सोचकर क्षेत्र को अलग राज्य बनाए जाने की मांग करते हैं कि उससे सत्ता हाथ आएगी और अपनी महत्त्वाकांक्षाएँ पूर्ण होगी। क्षेत्रीयतावाद से राजनीतिक खेल भी खेला जाता रहा है, क्षेत्रीयतावाद को आधार बनाकर राज्य केंद्रीय सरकार से सौदेबाजी भी करता है। इस तरह के सौदेबाजी से लाभ भी होता है एवं हानि भी। सौदेबाजी न केवल आर्थिक विकास के लिए होता है, बल्कि महत्वपूर्ण समस्याओं को सुलझाने के लिए भी किए जाते हैं। अपने-अपने चुनावी क्षेत्र के विकास पर ज्यादा-से-ज्यादा ध्यान मंत्रिपरिषद के सदस्य गण देते हैं क्योंकि अपनी जीत पक्की कर सके। मतदान के पहले क्षेत्रीयता का सहारा लेकर राजनीतिक दल उम्मीदवारों का चुनाव करते हैं एवं क्षेत्रवाद की भावना को भड़काकर मत वटोरते हैं। कुछ राजनीतिक दल क्षेत्रीयता का सहारा लेकर हिंसक गतिविधियों को उभार कर लोकप्रियता का साधन बना लेते हैं। मंत्रिमंडल गठन में भी क्षेत्रीयता की प्रवृत्ति दिखती है। प्राय: मुख्य क्षेत्र के प्रतिनिधियों को मौका मिलता है। अब तक शिकायत प्रधान मंत्री के पद को लेकर होता है कि दक्षिणी राज्यों से नहीं बना है।
          इस तरह हम देखते हैं कि, क्षेत्रीयवाद उस समय तक जटिल समस्या उत्पन्न नहीं करता जब हद में रहता है लेकिन जब यह भावना उग्र रूप ग्रहण कर लेता है तब यह राष्ट्रीय एकता के लिए भयानक होता है। सेलिग एस. हेरिसन ने इस खतरे के बारे में कहा है कि, यदि क्षेत्रीयवाद की भावना या किसी विशेष क्षेत्र के लिए अधिकार या स्वायत्तता की मांग बढ़ती चली गई, तो इससे या तो देश अनेक छोटे-छोटे स्वतंत्र राज्यों में बंट जाएगा या तानाशाही कायम हो जाएगी।[15] रजनी कोठारी का मानना है कि सिर्फ भाषा को आधार बनाकर राज्यों का पुनर्गठन नहीं करना चाहिए इसके अतिरिक्त आकार, विकास की स्थिति, सामाजिक एकता, शासन की सुविधा तथा राजनीतिक व्यवहारिकता पर ध्यान देना चाहिए। यों तो राज्य की मांग विकेन्द्रीकरण का मार्ग है। फिर भी जनता एवं क्षेत्र की स्थिति को ध्यान में रखते हुए एवं राजनीति न करते हुए जनता की आकांक्षा को नकारना विकास की स्वतंत्र मानसिकता को लाभ के बदले हानि पहुंचाना है। इसलिए जन-आकांक्षा को भी नकारा नहीं जा सकता है।  

संपर्क :  विकास एवं शांति अध्ययन विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, पंचटीला वर्धा,                         महाराष्ट्र (442005), मो. नं. 9763710526,-मेल: chandankumarjrf@gmail.com


संदर्भ-सूची



[1] सेंगर, शैलेन्द्र; भारतीय राजनीति उभरते मुद्दे, पुष्पांजलि प्रकाशन, दिल्ली, 2006, पृ. 178
[2] जैन, राजेश; क्षेत्रीयतावाद और भारतीय राजनीति, भावना प्रकाशन, दिल्ली, 2004, पृ. 11
[3] सिंह, विरकेश्वर प्रसाद; भारतीय राजनीतिक व्यवस्था, ज्ञानदा प्रकाशन (पी. एंड डी.), नई दिल्ली, 2010, पृ. 300
[4] शर्मा, सुरेन्द्र कुमार; संविधान और सरकार, डिस्कवरी पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, 2007, पृ. 123
[5] पाण्डेय, गणेश; भारतीय समाज, राधा पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली, 2008, पृ. 229
[6] वही;
[7] शर्मा, संजय; संघवाद और क्षेत्रीय आकांक्षाएँ, भारत में राजनीतिक प्रक्रियाएं,  सं., बी. एन. चौधरी एवं युवराज कुमा, हिन्दी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय दिल्ली विश्वविद्यालय, अप्रैल, 2013, पृ. 76 
[8] वही, पृ. 90  
[9] जैन, राजेश; उपरिवत, पृ. 18 
[10] वही, पृ. 18-19
[11] सेंगर, शैलेन्द्र; उपरिवत, पृ. 185
[12] वही;
[13] वही;
[14] वही, पृ. 186   
[15] सेंगर, शैलेन्द्र; उपरिवत, पृ. 188

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