Wednesday, 11 January 2017

भारत में राज्‍य निर्माण एवं जन-आंदोलन


- चन्दन कुमार, एस आर एफ(यूजीसी)
पी -एच. डी., विकास एवं शांति अध्ययन विभाग
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा.
ब्रिटिश काल में अंग्रेजों ने प्रान्तों के निर्धारण में किसी सिद्धान्त एवं पद्धति को नहीं अपनाया था, जैसे-जैसे अंग्रेज विजित प्रदेशों पर कब्जा करता गया, उक्त प्रदेशों को अपनी सुविधानुसार जोड़ता चला गया था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा भाषा और संस्कृति की समानता के आधार पर प्रान्तों की परोक्ष मांग 1905 से ही प्रारम्भ हो गया था, जब इस संस्था द्वारा बंग-विभाजन को भारतीय राष्ट्रीयता के प्रतिकूल घोषित किया और उसे शीघ्रताशीघ्र एक करने की मांग की थी। लेकिन भाषा के आधार पर सभी प्रान्तों के पुनर्गठन को अपना स्पष्ट उद्देश्य इस संस्था ने पंद्रह वर्ष बाद बनाया था, जब 1920 में नागपुर अधिवेशन में इसके लिए प्रस्ताव स्वीकृत किए गए थे। 
            1927 में जब साइमन कमीशन नियुक्त हुआ उसी समय कांग्रेस ने पुन: यह प्रस्ताव पास किया कि प्रान्तों के पुनर्गठन का समय आ गया है और आंध्र, उत्कल, सिंध तथा कर्नाटक प्रान्तों के निर्माण द्वारा इस क्रम का प्रारम्भ किया जाएगा। 1928 के सर्वदलीय अधिवेशन में नियुक्त नेहरू कमिटी ने भी इसपर जोर दिया था कि, भाषा के आधार पर विभिन्न प्रान्तों का पुनर्गठन होने के बाद ही उनमें शिक्षा तथा अन्य विषयक विकास संभव है। क्योंकि किसी भी प्रांत की सामान्य प्रगति, उसकी संस्कृति, साहित्य और प्रचलित प्रथाओं के सहयोग पर ही निर्भर है और भाषा से इन तीनों का विशिष्ट योग सुलभ[1] होंगे। सन् 1936 में उड़ीसा और सिंध प्रांत बन चुकने के बाद 1937 के कलकत्ता अधिवेशन में कांग्रेस ने भाषा के आधार पर प्रान्तों के पुनर्गठन की मांग को फिर से दुहराया और आंध्र तथा कर्नाटक प्रान्तों के बनाए जाने की सिफारिश की थी। सन् 1938 में संस्था की कार्यकारिणी समिति की बैठक वर्धा में हुई, जिसमें आंध्र, कर्नाटक और केरल के बनाए जाने की मांग करने के लिए संबन्धित क्षेत्रों से प्रतिनिधि-मण्डल आए थे। उन्हें यह आश्वासन दिया गया था कि, प्रान्तों के पुनर्गठन का अधिकार मिलते ही कांग्रेस इस कार्य को प्रारम्भ कर देगी। इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि, कांग्रेस संस्था भाषा के आधार पर प्रान्तों के पुनर्गठन का सिद्धान्त बहुत पहले से ही मानती रही थी और उसके लिए प्रयासरत भी थी। द्वितीय महायुद्ध के पश्चात 1945-46 में अन्तरिम सरकार बनाए जाने के लिए जो चुनाव हुआ उसमें कांग्रेस ने अपने घोषणा-पत्र के अंतर्गत इस सिद्धान्त को पुन: प्रतिपादित किया था कि भाषा और संस्कृति के आधार पर प्रान्तों के पुनर्गठन का प्रयास जहां तक संभव[2] हो सकेगा करने का प्रयास किया जाएगा। लेकिन इस घोषणा-पत्र से जनता को कुछ संदेह मालूम होने लगा था। देश के विभाजन और स्वतन्त्रता मिलने के पश्चात कांग्रेस नेताओं का दृष्टिकोण भी बादल गया था। राष्ट्र की आर्थिक और सामाजिक उन्नति की आवश्यकता और विभाजन के पश्चात उपस्थित हुई विकट समस्याओं के सम्मुख इस प्रश्न को गौन[3] कर दिया गया। आजादी के बाद भारत को राष्ट्रीय एकता अथवा राष्ट्र के सुदृढ़ीकरण के लिए भारतीय जनता को एक राजनीतिक समुदाय के रूप में एकीकृत करने की समस्या कठिन थी, जो जनता की ओर से आवाजें उठ रही थी। हालांकि 1950 में जिस तरह का संवैधानिक ढांचा खड़ा किया गया उसमें विभिन्नता में एकता की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए मजबूत केंद्र के साथ-साथ राज्यों को स्वायत्तता देकर संघीय रूप प्रदान किया था। लेकिन 1950 के दशक के आरंभिक दिनों से ही सामाजिक सुधार की गति धीमी पड़ गई थी। सामाजिक शोषण और सामाजिक भेदभाव तथा जाति, धर्म, भाषा और मूल पर आधारित उत्पीड़न एवं विशाल आर्थिक असमानता राष्ट्रीय एकता के कार्यक्रम का सबसे कमजोर पक्ष बन चुका था। ये बुराइयां संयुक्त राष्ट्रीय अस्मिता[4] के निर्माण में अवरोधक का काम करने लगा था।
            आजाद भारत के पहले बीस वर्षों में सबसे बड़ा विभाजनकारी मुद्दा भाषा समस्या थी। कई लोगों में यह डर समा गया था कि देश की राजनीतिक और सांस्कृतिक एकता खतरे में है। लोग अपनी भाषा से प्यार करते हैं और उनकी संस्कृति भी भाषा से बहुत जुड़ी हुई है। परिणामस्वरूप, भाषाई पहचान की एक मजबूत अपील होती है और हर समाज में यह एक मजबूत शक्ति साबित हुई है। यह भारत के बहुभाषाई समाज के विषय में और भी सच है। यह भी अनिवार्य था कि भाषाई विभिन्नताएँ भाषा के मुद्दे के इर्द-गिर्द सशक्त राजनीतिक धाराओं को जन्म दे रही थी, खास तौर पर इसलिए कि शैक्षणिक और आर्थिक विकास, रोजगार एवं अन्य आर्थिक अवसर तथा राजनीतिक सत्ता तक पहुँच के प्रश्न भाषा के सवाल[5] से गहराई से जुड़े थे। इस आधार पर भी भाषाई विभिन्नता के आधार पर उत्पन्न राष्ट्रीय एकता में भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन ने आंदोलन का रूप ग्रहण कर लिया था।
            आजादी मिलते ही देश के सामने भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन का सवाल आ खड़ा हुआ। अंग्रेजों ने भारतीय प्रदेशों की जो सीमाएं बनाई थीं वह अस्वाभाविक और अतार्किक थीं। अंग्रेजों ने प्रदेशों के सीमा निर्धारण में भाषा या संस्कृति की समरूपता का कोई ध्यान नहीं रखा था। इसलिए ज्यादातर राज्य बहुभाषी और बहुसंस्कृति युक्त थे। बीच-बीच में पड़ने वाले देशी रियासत और रजवाड़ों ने प्रादेशिक विभाजनों को और भी बेमेल[6] कर दिया था। 
            हालांकि राष्ट्रीय नेतृत्व ने राज्य पुनर्गठन के भाषाई मुद्दे पर नए सिरे से सोचना आरंभ किया लेकिन कई कारणों से वे अपने वायदे को तुरंत लागू करने से कतराने लगे। भारत विभाजन ने बहुत गंभीर प्रशासनिक, आर्थिक और राजनीतिक समस्याएं उत्पन्न कर दी थीं। चूंकि आजादी दूसरे महायुद्ध के बाद आई थी, इसलिए उसके साथ कठिन आर्थिक एवं कानून और व्यवस्था संबंधी समस्याएं भी जुड़ी हुई थीं। ऊपर से उलझी कश्मीर समस्या, पाकिस्तान के साथ युद्ध के मँडराते खतरे, हिन्दू-मुस्लिम सांप्रदायिकता, देशी रियासतों का विलय और शरणार्थियों की समस्या। नेतृत्व का विचार यह था कि अभी कुछ समय के लिए पहला काम राष्ट्रीय एकता को मजबूत करना होना चाहिए क्योंकि देश की आंतरिक सीमाओं के पुनर्निर्धारण के जटिल कार्य को अभी हाथ में लेने का कोई भी प्रयास, प्रशासनिक और आर्थिक विकास को ठप्प कर दे सकता था। साथ ही यह क्षेत्रीय एवं भाषाई दुश्मनी को हवा दे सकता था या विभाजनकारी शक्तियों को उभार सकता था, देश की एकता में दरार डाल सकता था और राष्ट्रीय एकीकरण का मार्ग अवरुद्ध[7] कर सकता था। अतएव आंध्र, तेलंगाना, बंबई, मैसूर आदि स्थानों पर भाषा के आधार पर राज्यों की मांग को देखते हुए संविधान सभा के सभापति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने उत्तर प्रदेश के वकील श्री धर की अध्यक्षता में भाषावार प्रान्तों के गठन पर विचार-विमर्श करने के लिए धर आयोग का गठन किया था। धर समिति ने 19 दिसंबर 1948 को अपनी रिपोर्ट में क्षेत्रीय भाषाओं के आधार पर प्रान्तों के गठन के विचार को स्वीकृति प्रदान नहीं की। समिति का मानना था कि, क्षेत्रीय भाषायी आधार पर राज्यों का गठन राष्ट्रीय एकता को खतरे में डाल सकता है। इस तरह कांग्रेस के जयपुर अधिवेशन में इस प्रतिवेदन पर विचार हुआ और जे. वी. पी. समिति (1948) बनाई गयी जिसके सदस्य जवाहरलाल नेहरू, वल्लभ भाई पटेल, पट्टाभि सीतारमैया थे। इन्होंने रिपोर्ट में यह सुझाव रखा था कि, आंध्र प्रांत का अविलंब गठन किया जाए, किन्तु मद्रास शहर तमिलों के पास ही रहे। श्री प्रकाशम सहित आंध्र के अनेक सदस्यों एवं नेताओं ने इस रिपोर्ट का विरोध किया। मद्रास राज्य के तेलगू भाषियों ने प्रमुखता से भाषा के आधार पर आंध्र राज्य की मांग की। 19 अक्तूबर 1952 को एक विख्यात स्वतन्त्रता सेनानी पोट्टी श्रीरामालु ने अलग आंध्र राज्य की मांग पर आमरण अनशन शुरू किया और 58 दिनों के अनशन से उनकी मृत्यु हो गयी। उनकी मृत्यु के बाद पूरे आंध्र क्षेत्र में तीन दिनों तक लगातार दंगे, प्रदर्शन, हिंसा और हड़तालें चलती रहीं। पुलिस फायरिंग में कई व्यक्तियों की मृत्यु हो गई। सरकार तुरंत झुक गई और आंध्र राज्य की मांग[8] को स्वीकृति प्रदान करनी पड़ गयी।
            तत्कालीन राजनीतिक परिदृश्य को समझते हुए सरकार ने आंध्र राज्य अधिनियम 1953 के द्वारा विद्यमान मद्रास राज्य के 16 उत्तरी तेलगू जिलों का क्षेत्र निकालकर 1 अक्टूबर 1953 को भाषायी आधार पर आंध्र प्रांत को गठित किया। अलग-अलग क्षेत्रों में आंध्र राज्य की स्वीकृति से भाषायी आधार पर राज्यों की मांग ने जोर पकड़ लिया, जिसको देखते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहारलाल नेहरू ने 22 दिसंबर 1953 को तीन सदस्यीय राज्य पुनर्गठन आयोग कि नियुक्ति की। इसमें न्यायाधीश फजल अली, हृदयनाथ कुंजरू व सरदार के. एम. पाणिक्कर थे। सितंबर 1955 में अपने प्रतिवेदन में राज्यों के गठन के लिए कुछ कारकों को तय किया जिसमें भारतीय राज्यों की एकता व अखंडता को सुनिश्चित करना, भाषायी व सांस्कृतिक समरसता, वित्तीय, आर्थिक और प्रशासनिक कारकों का ध्यान रखना तथा राष्ट्रीय योजना का सफल अनुपालन करना शामिल था। 1 नवंबर 1956 को राज्य पुनर्गठन अधिनियम 1957, लागू किया किया गया।
            जिसमें चौदह राज्य एवं छह केंद्र शासित प्रदेशों की व्यवस्था की गई। हैदराबाद रियासत का तेलंगाना क्षेत्र आंध्र प्रदेश को दे दिया गया। ट्रावणकोर-कोचीन में पुराने मद्रास प्रेसीडेंसी के मालाबार जिले को मिलाकर केरल बनाया गया। बंबई, मद्रास, हैदराबाद और कुर्ग के कुछ कन्नड़ भाषी इलाकों को मैसूर रियासत में जोड़ दिया गया। कच्छ और सौराष्ट्र रियासतों के अलावा हैदराबाद रियासत के मराठी भाषी इलाकों को बंबई राज्य में मिलाकर विस्तार[9] किया गया। अक्तूबर 1953 में आंध्र प्रदेश के अस्तित्व में आ  जाने के साथ ही साथ तमिल भाषी राज्य के रूप में तमिलनाडु बनाया गया।[10] पंजाब जहां भाषाई आधार को नहीं अपनाया गया था, 1956 में पेप्सू राज्यों को पंजाब में मिला दिया गया, जिनमें पहले से ही तीन भाषाई समूह- पंजाबी, हिन्दी और पहाड़ी रहते थे। राज्य के पंजाबी भाषा बहुल इलाके में अलग पंजाबी भाषी राज्य की मांग काफी जोरों पर थी। दुर्भाग्य से यह मांग सांप्रदायिकता के साथ मिल गई। अकाली दल के नेतृत्व में सिख संप्रदायवादियों और जनसंघ के नेतृत्व में हिन्दू संप्रदायवादियों ने भाषा के मुद्दे का उपयोग अपनी सांप्रदायिक राजनीति को फैलाने के लिए किया। जहां हिन्दू संप्रदायवादियों ने पंजाबी सूबा की मांग का विरोध यह कहकर किया कि पंजाबी उनकी मातृभाषा नहीं है, वहीं सिख संप्रदायवादियों ने इसे सिख राज्य के रूप में मांग की और कहा कि गुरुमुखी में लिखी पंजाबी एक सिख भाषा है। हालांकि कम्युनिस्ट पार्टी ने मांग का समर्थन किया और कुछ कांग्रेसी भी साथ थे, फिर भी इसे धर्म के साथ घोल मट्ठा हो जाने से कोई रोक नहीं पाया। नेहरू के साथ-साथ पंजाब के ज्यादातर कांग्रेसी यह समझ रहे थे कि पंजाबी राज्य कि मांग, मूलत: सिख बहुल राज्य के लिए एक सांप्रदायिक मांग को भाषा के आवरण में लपेटकर सामने रखा जा रहा है। नेहरू और कांग्रेस नेतृत्व के सामने यह बिलकुल साफ था कि वे धर्म या संप्रदाय के आधार पर राज्य के निर्माण की बात किसी कीमत पर स्वीकार नहीं करेंगे। राज्य पुनर्गठन आयोग ने भी एक अलग पंजाबी भाषी राज्य के निर्माण की मांग को इस आधार पर अस्वीकार कर दिया था कि इससे न तो पंजाब की भाषा समस्या का समाधान होगा, न ही सांप्रदायिक समस्या का।....अंतत: 1966 में इंदिरा गांधी पंजाबी और हिन्दी भाषी दो राज्यों में पंजाब के विभाजन के लिए तैयार हो गई। पंजाब और हरियाणा दो अलग-अलग राज्य बना दिए गए तथा कांगड़ा के पहाड़ी भाषी क्षेत्र और होशियारपुर जिले का कुछ हिस्सा हिमाचल प्रदेश में मिला दिया गया। संयुक्त पंजाब की राजधानी और नवनिर्मित शहर चंडीगढ़ को केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया। पंजाब और हरियाणा दोनों को साझा राजधानी[11] के रूप में रहने दिया गया।
            राज्य पुनर्गठन आयोग और विधेयक के खिलाफ सबसे ज्यादा विरोध महाराष्ट्र में हुआ। बड़े पैमाने पर दंगे भड़क उठे और जनवरी 1956 में पुलिस फायरिंग के दौरान अकेले बंबई शहर में 80 लोग मारे गए। छात्रों, किसानों, मजदूरों, कलाकारों, व्यापारियों आदि की व्यापक जनभावना के आधार पर विपक्षी दलों ने एक शक्तिशाली विरोध आंदोलन खड़ा कर दिया। महाराष्ट्र के लोगों का यह गुस्सा था कि इतनी विशाल आबादी की आवाज अनसुनी की जा रही है। आखिरकार दबाव के सामने झुककर भारत सरकार ने जून 1956 में यह निर्णय लिया कि बंबई राज्य को दो हिस्सों में बांटकर दो भाषाई राज्य महाराष्ट्र और गुजरात बनाए जाएंगे तथा बंबई शहर केंद्र शासित प्रदेश बनेगा। महाराष्ट्र द्वारा इस कदम का घोर विरोध किया गया। नेहरू डगमगा गए थे। महाराष्ट्र के लोगों को ठेस पहुंचाने का उन्हें दु:ख था। उन्होंने जुलाई में अपने निर्णय को बदलते हुए ग्रेटर बंबई नामक द्विभाषी राज्य फिर से बना दिया। फिर इस कदम का विरोध महाराष्ट्र और गुजरात दोनों ही जगह हुआ। व्यापक आधार वाली संयुक्त महाराष्ट्र समिति और महागुजरात जनता परिषद राज्य के दो हिस्सों में अलग-अलग आंदोलन का नेतृत्व कर रही थी। महाराष्ट्र में बड़े पैमाने पर कांग्रेसियों ने भी बंबई राजधानी वाली एकभाषी महाराष्ट्र की मांग का समर्थन किया। केंद्रीय मंत्रिमंडल में वित्तमंत्री सी. डी. देशमुख ने इस सवाल पर अपने पद से इस्तीफा दे दिया। दूसरी तरफ गुजरातियों को लग रहा था कि नए राज्य में वे एक अल्पसंख्यक बनकर रह जाएंगे। वे बंबई सिटी भी महाराष्ट्र को देने के लिए तैयार नहीं थे। अब हिंसा और आगजनी अहमदाबाद और गुजरात के अन्य हिस्सों में फैल गया। पुलिस फायरिंग में 16 आदमी मारे गए और 200 घायल[12] हुए। आखिरकार 1960 में सरकार बंबई राज्य को महाराष्ट्र और गुजरात में बांटने के लिए तैयार हो गई, जिसमें बंबई सिटी महाराष्ट्र को मिला तथा गुजरात कि राजधानी अहमदाबाद[13] की गई। 
            भारतीय संघीय राज्य के लिए यह विडंबना ही रही कि 1956 में राज्य पुनर्गठन अधिनियम लागू होने के पश्चात भी जातीय, भाषायी, क्षेत्रीयतावाद तथा पृथकतावाद जैसे तत्वों के आधार पर राज्यों की सीमाओं में परिवर्तन और नए राज्यों के गठन का सिलसिला जारी ही रहा। 
            असम में नागा जाति ने भारतीय संघ से पृथक होने का आंदोलन किया एवं फिजों के नेतृत्व में नागा राष्ट्रीय परिषद का गठन किया गया जिसने अपने आंदोलन को प्रभावी एवं तीव्र करने के लिए गैर संवैधानिक उपकरणों का सहारा लिया। फिजों के पीछे नागा जाति का विश्वास इस कदर केंद्रीय राजनीति पर हावी हुआ कि 1960 में केंद्रीय सरकार को नागाओं से समझौता करना पड़ा। जिसके परिणाम स्वरूप नागालैंड राज्य अधिनियम 1962 अस्तित्व में आया और इस तरह 1 फरवरी 1962 में नागालैंड राज्य की स्थापना हुई। फिर असम में ही जनजातीय आधार पर पृथककरण एवं क्षेत्रीयतावाद की मांग इतनी बढ़ गई कि असम राज्य के मिजो पहाड़ी जिलों के नेता भी भारतीय संघ से पृथक स्वाधीन मिजो राज्य की मांग करने लगे। इस राजनीतिक लड़ाई के लिए मिजो राष्ट्रीय फ्रंट की स्थापना की गई। 1962 में इस फ्रंट को गैर-संवैधानिकता के प्रश्न को लेकर केंद्रीय सरकार द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया। लेकिन भूमिगत होकर आंदोलन जारी रखा। 1971 में मिजो नेता एवं फ्रंट, राज्य की मांग के प्रश्न पर जनमत संग्रह कराने पर अड़ा रहा। केंद्रीय सरकार ने उत्तर-पूर्वी क्षेत्र (असम) में की जा रही मांग के निवारण के लिए सात राज्यों, जिन्हें उत्तर-पूर्व की सात बहनें भी कहा जाता है- अरुणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड और त्रिपुरा का गठन किया।
            इन सबके वावजूद भी आंध्र प्रदेश में तेलंगाना, महाराष्ट्र में विदर्भ, गुजरात में सौराष्ट्र, असम में बोडोलैंड, पश्चिम बंगाल में गोरखालैंड, उत्तरप्रदेश में पूर्वांचल, हरित प्रदेश, उत्तराखंड, बुंदेलखंड, बिहार में झारखंड और मध्यप्रदेश में छत्तीसगढ़ जैसे क्षेत्र भी अपने लिए अलग राज्य की मांग करने लगे थे।
            छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण मंच, उत्तराखंड क्रान्ति दल और झारखंड मुक्ति मोर्चा ने लगातार केंद्रीय सरकार पर दबाव बनाकर इन राज्यों की मांग को बरकरार रखा। वस्तुत: 1 नवंबर 2000 को छत्तीसगढ़ राज्य मध्यप्रदेश में से बनाया गया। 9 नवंबर 2000 को उत्तरांचल (उत्तराखंड) राज्य उत्तरप्रदेश में से 16 जिलों को निकालकर बनाया गया और 15 नवंबर 2000 को झारखंड क्षेत्रीय विकास परिषद का उल्लंघन करते हुए बिहार के दक्षिणी हिस्से को काट कर झारखंड राज्य बनाया गया।
            आंध्र प्रदेश की तेलंगाना राष्ट्र समिति के अध्यक्ष कल्वकंवल चंद्रशेखर राव ने अपने पूर्ववर्ती नेता श्री रामूलु की भांति तेलंगाना राज्य की मांग को व्यावहारिक स्तर पर तीव्रता देने के लिए आमरण अनशन कर दिया, जिसके दबाव में केंद्रीय सरकार के गृहमंत्री ने प्रधानमंत्री को आधी रात को ही कैबिनेट के अन्य वरिष्ठ सदस्यों के साथ बैठक के बाद तेलंगाना को पूर्ण अलग राज्य का दर्जा देने की घोषणा[14] करनी पड़ी। इस राज्य को लेकर पक्ष एवं विपक्ष में तीव्र आंदोलन होने से केंद्रीय सरकार को अपने कदम आगे बढ़ाकर पीछे खींचने पड़े। आखिरकार तेलंगाना में भारी विरोध और चुनावी दबाव के चलते 2 जून 2014 को तेलंगाना देश का 29वाँ राज्य बना।  
            आज भी विभिन्न राज्यों में से अलग-अलग राज्य निर्माण करने की मांग जनांदोलनों के माध्यम से जारी है, महाराष्ट्र में विदर्भ, गुजरात में सौराष्ट्र, बिहार में मिथिलांचल और भोजपुर, उड़ीसा में महाकौशल, असम में बोडोलैंड, पश्चिम बंगाल में गोरखालैंड और कर्नाटक में कोडागू राज्य को लेकर।
            इस प्रकार राज्यों के पुनर्गठन ने भारत की एकता को कमजोर नहीं किया बल्कि भारतीय संघ को मजबूत ही किया है। एक तरफ विभाजन वाली शक्ति साबित होने के बजाए दूसरी तरफ एकता और समन्वय की शक्ति साबित की है।

संपर्क: विकास एवं शांति अध्ययन विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, पंचटीला, वर्धा, महाराष्ट्र, मो. नं. 9763710526,-मेल: chandankumarjrf@gmail.com






संदर्भ-सूची



[1] मिश्र, बाबूराम; स्वतंत्र भारत की एक झलक, प्रकाशन शाखा सूचना विभाग, उत्तर प्रदेश, लखनऊ, जनवरी, 1959, पृ. 113-14, देखें; रिपोर्ट ऑफ नेहरू कमिटी, ऑल पार्टीज़ कॉन्फ्रेंस, 1928, पृ. 62
[2] मिश्र, बाबूराम; स्वतंत्र भारत की एक झलक, प्रकाशन शाखा सूचना विभाग, उत्तर प्रदेश, लखनऊ, जनवरी, 1959, पृ. 114  
[3] वही, पृ. 114-15  
[4] चंद्र बिपिन, मुखर्जी मृदुला और मुखर्जी आदित्य; आजादी के बाद का भारत, हिन्दी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय दिल्ली विश्वविद्यालय, पुनर्मुद्रण, जुलाई, 2011, पृ. 118  
[5] वही, पृ. 119
[6] वही, पृ. 133
[7] वही, पृ. 134
[8] वही, पृ. 136
[9] वही, पृ. 137
[10] वही, पृ. 136
[11] वही, पृ. 138
[12] वही, पृ. 137
[13] वही, पृ. 138
[14] इंडिया टुडे, 30 दिसंबर, 2009, पृ. 25

गांव एवं गांधी


                               - चन्दन कुमार, एस आर एफ (यूजीसी)
पी -एच. डी., अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा.
भारत कृषि प्रधान गांवों का देश है और गांव का इतिहास मानव सभ्यता के विकास का इतिहास रहा है। गांव परिवारों या व्यक्तियों का समूह मात्र नहीं है। विभिन्न ऐतिहासिक काल-खण्डों में गांव के भिन्न-भिन्न रूप रहे हैं। गांव एक प्रशासनिक, उत्पादक एवं राजस्व इकाई के रूप में व्यवहृत हुए हैं। वेदों में परिवारों के समूह जो एक स्थान पर एक साथ रहते थे को, गांव कहा गया है।[1] 14वीं शताब्दी के आस-पास गांव के लिए मौजा शब्द का भी प्रयोग मिलता है। वित्तीय शब्दावली में इसका अर्थ निचली वित्तीय इकाई से है। जिसका मुखिया एक मण्डल (गांव प्रधान) होता था।[2] प्रशासनिक दृष्टि से भी, ग्राम वह आबाद क्षेत्र है जिसकी सीमा निश्चित हो और जिस ग्राम के अलग अभिलेख तैयार किए गए हों।[3] गुप्त वंश के शासनकाल में प्रशासन की छोटी इकाई ग्राम थी। वैदिक काल से लेकर हमारे सभी धार्मिक ग्रंथों और प्राधिकृत साहित्यिक रचनाओं में गांव की समृद्धि के बारे में चर्चा मिलती है। भारतीय गांव की आर्थिक समृद्धि के कारण ही भारत को सोने की चिडि़याँ कहा जाता था। भारतीय गांवों के आर्थिक समृद्धि के मूल में खेती, पशुपालन व ग्रामीण कारीगरी का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। वेद, रामायण, बुद्ध, कौटिल्य का अर्थशास्त्र आदि सभी ग्रंथों में किसानों और कारीगरों की सम्मानित स्थिति का उल्लेख देखने को मिलता है। 17वीं, 18वीं शताब्दी के अंग्रेजी दस्तावेजों में भारत के विज्ञान और प्रौद्योगिकी के बारे में जानकारी मिलती है। प्राचीन काल में भारत में लोहे और इस्पात के उत्पादन, उसकी श्रेष्ठता और विश्‍व प्रसिद्धि सर्वविदित थी। 1800 के आसपास भी देश में यह उद्योग ग्रामीण स्तर पर बहुत बड़े क्षेत्र में था और उत्पादन की तकनीक के मामले में बहुत उन्नत अवस्था में था। भारतीय कृषि की प्रौद्योगिकी, खेती के औजार उन्नत अवस्था में थे।                                                                         
            लेकिन, अंग्रेजों के दासत्व में गुलाम देश का गुलाम गांव बन गया। अंग्रेज यहां आए और उन्होंने यहां की ग्राम व्यवस्था को समाप्त कर दिया। परिणाम यह हुआ कि देश तो पराधीन बना ही, साथ ही साथ गांव भी पराधीन बन गया। पराधीन गांवों का पराधीन देश। इस प्रकार हिंदुस्तान कि ग्राम व्यवस्था को तोड़ने का काम अंग्रेजों ने किया और उसमें वे सफल भी रहे। अंग्रेजों के पूर्व अनेकों हमले हुए थे, लेकिन ग्राम व्यवस्था नहीं टूटी थी। आज भी अंग्रेजों से आजादी मिलने के 70 साल बाद भी गांवों की स्थिति में सुधार नहीं हो पाया है। कारण मानसिकता अंग्रेजों वाली ही रह गई है। गांधीजी चाहते थे, अंग्रेजियत चली जाय, भले ही अंग्रेज रह जाए। परन्तु स्वतन्त्रता के पश्चात अंग्रेज तो चले गए लेकिन हमलोगों ने अंग्रेजियत को गले लगा लिया है।
            गांधी ऐसे भारत की कल्पना नहीं करते थे जहां निर्धनता हो, जिसमें करोड़ों अज्ञानी लोगों का वास हो। गांधी की कल्पना में भारत अपनी प्रकृति के अनुरूप निरंतर प्रगति करने वाला देश बने। जिसमें कोई निरक्षर नहीं हो, कोई बेरोजगार नहीं हो, प्रत्येक के पास भरपूर काम हो एवं पौष्टिक भोजन मिले, हवादार मकान हो, तन ढकने के लिए प्रयाप्त कपड़े हो, सभी ग्रामवासियों को स्वास्थ्य-रक्षा तथा स्वच्छता के नियमों का ज्ञान हो। गांव में एक मंच, स्कूल और सार्वजनिक सभागार हो। इस तरह गांधी प्रत्येक गांव को अपने पैरों पर खड़ा होने की बात करते है एवं अपने गांव कि प्रत्येक जरूरत की चीजें गांव में ही पैदा करने को कहते हैं। विशेष परिस्थिति में ही आवश्यक चीजें बाहर से मंगाई जाये। हर गांव अपने पैसे से पाठशाला, सभा-भवन या धर्मशालाएं बनाए। संभव हो तो कारीगर उसी गांव के हों। गांव के प्रत्येक व्यक्ति को स्वच्छ अनाज, स्वच्छ पानी और स्वच्छ मकान मिले इसका ध्यान रखना जरूरी है। प्रत्येक प्रवृति सहकारी ढंग से चलाने चाहिए गांव के लोग सार्वजनिक काम को हाथ में लें और गांव ही कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका का काम करे।[4] इस तरह गांधीजी स्वतंत्र भारत को आत्मनिर्भर गांवों का महासंघ बनाना चाहते थे। गांधीजी ग्राम-सभ्यता को कभी-भी नष्ट नहीं होने देना चाहते थे। उनका कहना था कि, हम ऊँची ग्राम सभ्यता के उत्तराधिकारी हैं। हमारे देश की विशालता, आबादी की विशालता और हमारी भूमि की स्थिति तथा आबोहवा ने मेरी राय में मानों यह तय कर दिया है कि उसकी सभ्यता ग्राम सभ्यता होगी[5] और दूसरी कोई नहीं।  
            गांधीजी चाहते हैं, हमें गांवोंवाला भारत और शहरोंवाला भारत, इन दो में से एक को चुन लेना है। गांव उतने ही पुराने हैं जितना कि यह भारत पुराना है। शहरों को विदेशी आधिपत्य ने बनाया है। जब यह आधिपत्य मिट जाएगा, तब शहरों को गांवों के मातहत होकर रहना पड़ेगा। आज तो शहरों का बोलबाला है और वे गांवों की सारी दौलत खींच लेते हैं। इससे गांवों का ह्रास और नाश हो रहा है। गांवों का शोषण खुद एक संगठित हिंसा है। अगर हमें स्वराज कि रचना अहिंसा के पाये पर करनी है, तो गांवों को उनका उचित स्थान देना होगा।[6] इसी तरह की बात गांधीजी ने मनु से शहरों में मौजूद बड़े-बड़े कल-कारखानों के कारण ग्रामीण उद्योग के नष्ट हो जाने के संबंध में कहते हैं कि, मशीनों में जो रुपया लगाया गया है वह खाक भी हो जाये तो मुझे सहानुभूति नहीं होगी। सच्चा हिंदुस्तान तो सात लाख गांवों में बसता है। यूरोप के बड़े शहर लंदन आदि ने हिंदुस्तान को चूसा है और हिंदुस्तान के शहरों ने उसके गांवों को चूस लिया है। उसी से शहरों में ऐसे महल खड़े हुए हैं और गांव कंगाल बन गए हैं। मुझे तो इन गांवों को फिर से प्राणवान बनाना है। मैं यह नहीं कहना चाहता कि सब शहरों की सारी मिलों को तोड़-फोड़कर बर्बाद कर दो। लेकिन जहां भूले, वहां से फिर सावधान होकर चलना चाहिए। गांवों को चूसना बंद करना चाहिए और जितना अन्याय हुआ हो, उसकी बारीकी से जांच करके गांवों की आर्थिक स्थिति मजबूत बनानी चाहिए।[7] रवीन्द्र नाथ टैगोर का भी कहना  था, भारत माता (गांव) को पद से गिराकर गांव के साधनों को शहरों में खींचकर नौकरानी बना दिया है। शहरों द्वारा उत्पादित माल का उपयोग फिर ग्रामीण अधिक कीमत चुका कर करते हैं। ग्राम संस्कृति तो अब दरिद्रता, निरक्षरता एवं पिछड़ेपन का पर्याय है। शहरों का अतिविस्तार और श्रृंगार हो रहा है। समाज वैज्ञानिकों का मानना है कि यदि नगरीकरण का यही विस्तार रहा तो आने वाले समय में शायद भारत में गांव रहेंगे ही नहीं।
            गांधी नगरों की बढ़वार को एक बुराई तथा मानव जाति और दुनिया के लिए दुर्भाग्य का विषय मानते हैं। यह निश्चित रूप से, भारत के लिए दुर्भाग्य का विषय है। अंग्रेजों ने शहरों के माध्यम से भारत का शोषण किया। शहरों ने पलटकर गांवों का शोषण किया। शहरों का भवन-निर्माण गांवों के रक्त रूपी सीमेंट से हुआ है। जो रक्त आज नगरों की धमनियों में बह रहा है, वह फिर एक बार गांवों की रक्तवाहिकाओं[8] में बहने चाहिए। जब तक शहरवासी गांवों से प्राप्त शक्ति और पोषण के बदले उन्हें पर्याप्त प्रतिफल देना अपना कर्तव्य नहीं मान लेते और अपने स्वार्थवश उनका शोषण बंद न कर देते तब तक नगरवासी और ग्रामवासियों के बीच स्वस्थ और नैतिक संबंध जन्म नहीं ले पाएगा। यदि शहर के बच्चों को सामाजिक पुनर्निर्माण के इस महान कार्य में अपना योगदान करना है तो उन्हें जिन व्यवसायों के जरिये अपनी शिक्षा ग्रहण करनी है, वे प्रत्यक्ष रूप से गांवों की आवश्यकताओं से संबंधित होने चाहिए।[9] यानि बच्चों की शिक्षा भी ग्राम आधारित होने से गांव का विकास होगा।
            गांधी भारत को विनाश से बचाने के लिए, सीढ़ी के सबसे निचले भाग से काम शुरू करने की बात कहते हैं। यदि निचला भाग सड़ा हुआ है तो ऊपर और बीच के हिस्सों पर किया गया काम अंत में गिर पड़ेगा।[10] गांधी ने अनेक बार यह बात दोहराई है कि भारत उसके शहरों में नहीं बसता, बल्कि उसके 7 लाख गांवों में बसता है। लेकिन शहरवासी यह समझते हैं कि भारत शहर में बसता है और गांव केवल हमारी आवश्यकताओं  की पूर्ति करने के लिए हैं। शहरवासी कभी यह जानने का कष्ट नहीं करते कि उन निर्धन ग्रामवासियों के पास खाने और पहनने के लिए प्रयाप्त व्यवस्था है अथवा नहीं और उनके पास धूप और वर्षा से अपनी रक्षा करने के लिए कोई आश्रय-स्थली भी है या नहीं।[11] शहर अपनी देखभाल करने में स्वयं समर्थ हैं। इसलिए गांवों की ओर ध्यान देने की आवश्यकता है। उन्हें उनके पूर्वाग्रहों, अंधविश्वासों, संकीर्ण दृष्टिकोण आदि से मुक्त करना होगा। गांधी इसका उपाय देते हैं कि, हम उनके बीच में जाकर रहें, उसकी खुशियों और गमों में भागीदार बनें और उनके बीच शिक्षा और उपयोगी जानकारी का प्रसार करें।[12] गांधी के अनुसार नगरवासी ने आम तौर पर ग्रामवासी का शोषण किया है। सच पूछा जाए तो वह निर्धन ग्रामवासी की परवरिश पर जीता आया है। जहां तक भारतीय ग्रामवासी का संबंध है, उसके गंवारपन की पपड़ी के नीचे युगों पुरानी संस्कृति छिपी हुई है। उसकी यह पपड़ी उतार दिया जाए तथा उसकी जमाने से चली आ रही गरीबी और निरक्षरता को हटा दिया जाए, तो वह एक सुसंस्कृत, सभ्य और स्वतंत्र नागरिक का उत्तम नमूना[13] बन जाएगा।
            गांधी के अनुसार भारत को ग्राम गणतंत्रों का अनुभव है। ये अनजाने ही अहिंसा द्वारा शासित थे...अब एक जानी-बूझी अहिंसक योजना के तहत इनके पुनरुज्जीवन का प्रयास करना होगा।[14] गांधी ने ग्राम इकाई की जो धारणा बनाई उसे उन्होंने सुदृढ़तम इकाई माना है। ग्राम में लगभग 1000 की आबादी होगी। यदि ऐसी इकाई का संगठन आत्मनिर्भरता के आधार पर किया गया तो वह बहुत ही अच्छा परिणाम प्रदर्शित कर सकती है।[15] गांव का शासन पांच व्यक्तियों की पंचायत के द्वारा चलाने की बात करते हैं, जो न्यूनतम निर्धारित योग्यता रखने वाले वयस्क स्त्री-पुरुषों द्वारा प्रतिवर्ष चुनी जाए। इन पांचों के पास समस्त प्राधिकार और अपेक्षित क्षेत्राधिकार हों। वर्तमान में दंड का सामान्यतया जो अर्थ लगाया जाता है उस अर्थ में कोई दंड-प्रणाली लागू नहीं करने की बात करते हैं, इसलिए पंचायत ही अपने कार्यकाल के दौरान विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका, तीनों को स्वयं में समाविष्ट करते हुए उनके कर्तव्यों का निर्वाह करेगी।[16] गांव में पूर्ण लोकतन्त्र होगा जो व्यक्तिगत स्वतन्त्रता पर आधारित होगा। व्यक्ति ही अपनी सरकार का निर्माता होगा। उसपर और उसकी सरकार पर अहिंसा के नियम का शासन होगा। वह और उसका गांव सारी दुनिया की ताकत को चुनौती दे सकेंगे। कारण कि, प्रत्येक ग्रामवासी इस नियम से शासित होगा कि वह अपने और अपने गांव के सम्मान की रक्षा में अपने प्राणों की आहुति देने के लिए तैयार रहेगा।[17] गांधी असंख्य गांवों से बने इस ढांचे में एक के बाद एक विस्तारशील किन्तु कभी ऊर्ध्वगामी न होने वाले वलय की बात करते हैं एवं जीवन एक पिरामिड की तरह नहीं होने की बात करते है जो वर्तमान में है, जिसमें आधार को शीर्ष का भार वहन करना पड़ता है बल्कि वे एक समुद्री वलय की तरह होने की बात करते है, जिसके केंद्र में सिर्फ व्यक्ति होगा जो सदैव अपने गांव के लिए मर-मिटने के वास्ते तैयार रहेगा, गांव गांव-समूहों के वास्ते नष्ट हो जाने के लिए तैयार रहेगा, और यह प्रक्रिया वहां तक चलते रहने की बात करते है, जहां संपूर्ण विश्व एक जीवन का रूप धारण कर लेगा; सभी व्यक्ति इस एक जीवन के अंग होंगे, वे कभी आक्रामक रुख नहीं अपनाएँगे बल्कि सदा विनम्रता का व्यवहार करेंगे और उस समुद्री वलय के ऐश्वर्य में भागीदार होंगे जिसकी वे अंगभूत इकाइयां हैं। गांधी इस बात को स्वीकारते हैं कि एक आदर्श गांव का निर्माण उतना ही कठिन है जितना कि आदर्श भारत का निर्माण है। लेकिन जहां एक व्यक्ति के लिए एक-न-एक दिन एक गांव को आदर्श रूप प्रदान करने की अपनी आकांक्षा को पूरा करना संभव है वहीं सारे भारत को आदर्श देश बनाने के लिए किसी एक व्यक्ति का जीवनकाल बहुत थोड़ा है। लेकिन अगर एक आदमी एक गांव को आदर्श स्वरूप प्रदान कर सकता है तो वह न केवल सारे देश बल्कि पूरी दुनिया के सामने एक नमूना पेश करेगा। सत्यशोधक को इससे बड़ी उपलब्धि की आकांक्षा नहीं करनी चाहिए,[18] जो वास्तव में सबसे बड़ी उपलब्धि है।
            गांधी उस खतरे की ओर इंगित करते जो वास्तव में वर्तमान में है खतरा यह है कि, कहीं हम अपने हाथों का इस्तेमाल करना न भूल जाएं। यदि हम यह भूल गए, जमीन कैसे खोदी जाती है और मिट्टी की देखभाल किस तरह की जाती है तो समझिए हम स्वयं को भूल गए। नेता-मंत्री की तरफ भी गांधी इशारा करते हुए कहते हैं कि, यदि आप यह समझते हैं कि केवल शहरों की सेवा करके ही आप अपने मंत्री-पद को सफल सिद्ध कर सकते हैं तो आप यह भूलते हैं कि भारत वस्तुत: अपने 7 लाख गांवों में बसता है। आदमी को सारी दुनिया मिल जाए, लेकिन बदले में उसे अपनी आत्मा दे देनी पड़े तो उसके पास बचा ही क्या?[19] यदि भारतीय सभ्यता को एक स्थायी विश्व व्यवस्था के निर्माण में अपना पूरा-पूरा योगदान करना है तो गांवों में बसने वाली इस विशाल जनसंख्या को...फिर से जीना[20] सिखलाना होगा।
            गांधी गांव को व्यवस्थित करने के लिए गांवों का सर्वेक्षण कराने के पक्ष में दिखते हैं और उन चीजों की सूची तैयार कराने की बात करते हैं, जो कम से कम या किसी तरह की सहायता के बिना स्थानीय रूप से तैयार की जा सकती हैं और जो या तो गांवों के ही इस्तेमाल में आ जाएंगी या जिन्हें बाहर बेचा जा सकेगा।...इस प्रकार यदि पर्याप्त ध्यान दिया जाए तो ऐसे गांवों में जो निष्प्राण हो चुके हैं या निष्प्राण होने की प्रक्रिया में हैं, नवजीवन का संचार हो सकेगा तथा उनकी स्वयं अपने और भारत के शहरों और कस्बों के इस्तेमाल के लिए आवश्यकता की अधिकांश वस्तुओं के निर्माण की अनंत संभावनाओं का पता[21] हो सकेगा एवं ग्रामवासियों को अपने कौशल में इतनी वृद्धि कर लेनी चाहिए कि उनके द्वारा तैयार की गई चीजें बाहर जाते ही हाथों-हाथों बिक जाएं। जब हमारे गांवों का पूर्ण विकास हो जाएगा तो वहां ऊंचे दर्जे के कौशल और कलात्मक प्रतिभा वाले लोगों की कमी नहीं रहेगी। आज हमारे गांव गोबर के ढेर मात्र नजर आते हैं। कल वे सुंदर-सुंदर वाटिकाओं का रूप ले लेंगे जिनमें इतनी प्रखर बुद्धि के लोग निवास करेंगे जिन्हें न कोई धोखा दे सकेगा और न उनका शोषण कर सकेगा।...गांवों का पुनर्निर्माण अस्थायी नहीं, स्थायी आधार पर किया जाना[22] उचित होगा। गांधी चिंता व्यक्त करते हैं कि, अगर गांव नष्ट होते हैं तो भारत भी नष्ट हो जाएगा। तब भारत भारत नहीं रहेगा। दुनिया में भारत का अपना मिशन ही खत्म हो जाएगा। गांवों का पुनरुज्जीवन तभी संभाव है जब उनका शोषण समाप्त हो। बड़े पैमाने के औद्योगीकरण से अनिवार्यत: ग्रामवासियों का निष्क्रिय अथवा सक्रिय शोषण होगा, क्योंकि औद्योगीकरण के साथ प्रतियोगिता और विपणन की समस्याएँ जुड़ी रहती हैं। इसलिए गांवों को स्वत:पूर्ण बनाने पर ज़ोर देना होगा जो अपने इस्तेमाल की चीजें खुद बनाएँगे। यदि ग्राम उद्योगों के इस स्वरूप की रक्षा की जाती है तो फिर ग्रामवासियों द्वारा उन आधुनिक मशीनों और औजारों का इस्तेमाल करने पर भी कोई आपत्ति नहीं है जिन्हें वे बना सकते हों और जिनका इस्तेमाल करने की सामर्थ उनमें हो। यह जरूरी है कि उन्हें दूसरों के शोषण का साधन नहीं बनाया जाना चाहिए।[23] यानि बड़े उद्योगों द्वारा उसके रोजगार को न छिना जाए। गांधी प्रत्येक गांव के सभी घरों में बिजली व्यवस्था दिलाने के पक्ष में थे और उन्हें ग्रामवासियों द्वारा अपनी मशीनों और औजारों को बिजली से चलाए जाने पर कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन बिजली घरों का स्वामित्व या तो राज्य के पास या ग्राम समुदायों के पास रखने की बात करते हैं। लेकिन जहां न बिजली है, न मशीनें हैं, वहां खाली हाथ क्या करें?[24]   विचारणीय है।    
            हम देखते हैं कि, आजादी के बाद पंचवर्षीय योजनाओं और विकास कार्यक्रमों के माध्यम से ग्रामीण पुनर्निमाण के प्रयास किए गए। बावजूद इसके समस्याओं का समाधान नहीं हुआ। गांव के किसानों और मजदूरों के प्रति लापरवाही बरती गई, जिसके कारण आज भी गांव दरिद्र, मूढ़ और काहिल है। आज के उद्योगपतियों ने गांवों के लोगों को उत्पादों का उपभोक्ता बना दिया है। अपने को राष्ट्र का कर्णधार कहने वाले राजनेता गांवों से अपने लिए वोट तो पाना चाहते हैं, लेकिन गांव का विकास करना नहीं चाहते हैं। बुद्धिजीवी भी गांवों की बात तो करते हैं लेकिन वहां रहना नहीं चाहते है। वर्तमान भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था की सबसे बड़ी समस्या आर्थिक एवं सामाजिक बेकारी की है। उद्योग-धंधे उजड़ चुके है। लगातार पलायन जारी है। कृषि क्षेत्र में लगे प्रत्येक व्यक्ति काम करता हुआ ही दिखता है लेकिन उससे कुछ व्यक्तियों को निकाल बाहर कर दिया जाए तो कृषि कार्य सम्पन्न होने में कोई दिक्कत नहीं होगा। संयुक्त राष्ट्र विशेषज्ञ समिति के अनुसार इसे अदृश्य बेरोजगारी कहा जा सकता है। समिति के अनुसार, जो अपने ही धंधे में लगे हुए हैं और जो जिन संसाधनों पर काम करते हैं उनकी तुलना में इतने अधिक हैं कि यदि इनमें से कुछ किसी दूसरे क्षेत्र में काम करने के लिए खींच लिए जायें तो उसकी उत्पत्ति जरा भी नहीं घटेगी[25] एवं काम चलता रहेगा।    
            इस प्रकार हम देखते हैं की गांधी एक समर्थ-स्वावलंबी गांव की कल्पना करते हैं एवं स्वावलंबी गांवों के जरिये ही हिंदुस्तान की गरीबी-बेकारी और विषमता जैसे सवाल हल हो सकते हैं। गांधी की ग्राम दृष्टि की उपेक्षा का परिणाम देश भुगत रहा है। ऐसी परिस्थिति में गांधी की ग्राम-दृष्टि पर सतत चिंतन-मंथन की आवश्यकता है।





संपर्क: संस्कृति विद्यापीठ, अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय,           वर्धा, महाराष्ट्र. (442005) मो.- 09763710526, ईमेल:chandankumarjrf@gmail.com
संदर्भ-सूची





[1] भट्टाचार्य, विवेक रंजन; 20 सूत्री कार्यक्रम: ग्रामीण भारत का बदलता स्वरूप, शान प्रिंटर्स, दिल्ली, 1983, पृ. 34
[2] Buchanun, f. an; ancient district of purnia 1809-1810, patna, 1934, p. 474      
[3] वही, पृ. 40                                                                        
[4] सम्पूर्ण गांधी वाड्मय, खंड-87, प्रकाशन विभाग, सूचना और प्रसारण मंत्रालय भारत सरकार, पृ. 267
[5] पाण्डेय, प्रदीप कुमार; गांधी का आर्थिक एवं सामाजिक चिंतन, हिन्दी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, 1996, पृ. 29
[6] गांधीजी; हरिजन सेवक, 20-01-1940
[7] सम्पूर्ण गांधी वाड्मय, खंड-87,  पृ. 320
[8] हरिजन, 23-6-1946, पृ. 198
[9] हरिजन, 9-10-1937, पृ. 293
[10] गंगारडे, के. डी.; गांधी के आदर्श और ग्रामीण विकास, राधा पब्लिकेशन, नई दिल्ली, 2006, पृ. 11
[11] हरिजन, 4-4-1936, पृ. 63
[12] यंग इंडिया, 17-4-1924, पृ. 130
[13] हरिजन, 28-1-1939, पृ. 439
[14] हरिजन, 4-8-1940, पृ. 240
[15] हरिजन, 4-8-1946, पृ. 252
[16] हरिजन, 26-7-1942, पृ. 238
[17] हरिजन, 26-7-1942, पृ. 238
[18] हरिजन, 4-8-1940, पृ. 235
[19] हरिजन, 25-8-1946, पृ. 282
[20] हरिजन, 27-4-1947, पृ. 122
[21] हरिजन, 28-4-1946, पृ. 104
[22] हरिजन, 10-11-1946, पृ. 394
[23] हरिजन, 29-8-1936, पृ. 226
[24] हरिजन, 22-6-1935, पृ. 146
[25] जोशी, के. एन. एवं मिश्र, मंजुला; कृषि अर्थशास्त्र के सिद्धान्त एवं भारत में कृषि विकास, क़ॉलेज बुक डिपो, जयपुर, 2007, पृ. 26