- चन्दन
कुमार, एस आर एफ(यूजीसी)
पी -एच. डी., विकास
एवं शांति अध्ययन विभाग
महात्मा
गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा.

1927 में जब साइमन कमीशन नियुक्त हुआ
उसी समय कांग्रेस ने पुन: यह प्रस्ताव पास किया कि प्रान्तों के पुनर्गठन का समय आ
गया है और आंध्र, उत्कल, सिंध तथा
कर्नाटक प्रान्तों के निर्माण द्वारा इस क्रम का प्रारम्भ किया जाएगा। 1928 के
सर्वदलीय अधिवेशन में नियुक्त नेहरू कमिटी ने भी इसपर जोर दिया था कि, भाषा के आधार पर विभिन्न प्रान्तों का पुनर्गठन होने के बाद ही उनमें
शिक्षा तथा अन्य विषयक विकास संभव है। क्योंकि किसी भी प्रांत की सामान्य प्रगति, उसकी संस्कृति, साहित्य और प्रचलित प्रथाओं के
सहयोग पर ही निर्भर है और भाषा से इन तीनों का विशिष्ट योग सुलभ[1]
होंगे। सन् 1936 में उड़ीसा और सिंध प्रांत बन चुकने के बाद 1937 के कलकत्ता
अधिवेशन में कांग्रेस ने भाषा के आधार पर प्रान्तों के पुनर्गठन की मांग को फिर से
दुहराया और आंध्र तथा कर्नाटक प्रान्तों के बनाए जाने की सिफारिश की थी। सन् 1938
में संस्था की कार्यकारिणी समिति की बैठक वर्धा में हुई,
जिसमें आंध्र, कर्नाटक और केरल के बनाए जाने की मांग करने के
लिए संबन्धित क्षेत्रों से प्रतिनिधि-मण्डल आए थे। उन्हें यह आश्वासन दिया गया था
कि, प्रान्तों के पुनर्गठन का अधिकार मिलते ही कांग्रेस इस
कार्य को प्रारम्भ कर देगी। इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि,
कांग्रेस संस्था भाषा के आधार पर प्रान्तों के पुनर्गठन का सिद्धान्त बहुत पहले से
ही मानती रही थी और उसके लिए प्रयासरत भी थी। द्वितीय महायुद्ध के पश्चात 1945-46
में अन्तरिम सरकार बनाए जाने के लिए जो चुनाव हुआ उसमें कांग्रेस ने अपने
घोषणा-पत्र के अंतर्गत इस सिद्धान्त को पुन: प्रतिपादित किया था कि भाषा और
संस्कृति के आधार पर प्रान्तों के पुनर्गठन का प्रयास जहां तक संभव[2] हो
सकेगा करने का प्रयास किया जाएगा। लेकिन इस घोषणा-पत्र से जनता को कुछ संदेह मालूम
होने लगा था। देश के विभाजन और स्वतन्त्रता मिलने के पश्चात कांग्रेस नेताओं का
दृष्टिकोण भी बादल गया था। राष्ट्र की आर्थिक और सामाजिक उन्नति की आवश्यकता और
विभाजन के पश्चात उपस्थित हुई विकट समस्याओं के सम्मुख इस प्रश्न को गौन[3] कर
दिया गया। आजादी के बाद भारत को राष्ट्रीय एकता अथवा राष्ट्र के सुदृढ़ीकरण के लिए
भारतीय जनता को एक राजनीतिक समुदाय के रूप में एकीकृत करने की समस्या कठिन थी, जो जनता की ओर से आवाजें उठ रही थी। हालांकि 1950 में जिस तरह का
संवैधानिक ढांचा खड़ा किया गया उसमें विभिन्नता में एकता की आवश्यकता को ध्यान में
रखते हुए मजबूत केंद्र के साथ-साथ राज्यों को स्वायत्तता देकर संघीय रूप प्रदान
किया था। लेकिन 1950 के दशक के आरंभिक दिनों से ही सामाजिक सुधार की गति धीमी पड़
गई थी। सामाजिक शोषण और सामाजिक भेदभाव तथा जाति, धर्म, भाषा और मूल पर आधारित उत्पीड़न एवं विशाल आर्थिक असमानता राष्ट्रीय एकता
के कार्यक्रम का सबसे कमजोर पक्ष बन चुका था। ये बुराइयां संयुक्त राष्ट्रीय
अस्मिता[4] के
निर्माण में अवरोधक का काम करने लगा था।
आजाद भारत के पहले बीस वर्षों में
सबसे बड़ा विभाजनकारी मुद्दा भाषा समस्या थी। कई लोगों में यह डर समा गया था कि देश
की राजनीतिक और सांस्कृतिक एकता खतरे में है। लोग अपनी भाषा से प्यार करते हैं और
उनकी संस्कृति भी भाषा से बहुत जुड़ी हुई है। परिणामस्वरूप, भाषाई पहचान की एक मजबूत अपील होती है और हर समाज में यह एक
मजबूत शक्ति साबित हुई है। यह भारत के बहुभाषाई समाज के विषय में और भी सच है। यह
भी अनिवार्य था कि भाषाई विभिन्नताएँ भाषा के मुद्दे के इर्द-गिर्द सशक्त राजनीतिक
धाराओं को जन्म दे रही थी, खास तौर पर इसलिए कि शैक्षणिक और
आर्थिक विकास, रोजगार एवं अन्य आर्थिक अवसर तथा राजनीतिक
सत्ता तक पहुँच के प्रश्न भाषा के सवाल[5] से
गहराई से जुड़े थे। इस आधार पर भी भाषाई विभिन्नता के आधार पर उत्पन्न राष्ट्रीय
एकता में भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन ने आंदोलन का रूप ग्रहण कर लिया था।
आजादी मिलते ही देश के सामने भाषा के
आधार पर राज्यों के पुनर्गठन का सवाल आ खड़ा हुआ। अंग्रेजों ने भारतीय प्रदेशों की
जो सीमाएं बनाई थीं वह अस्वाभाविक और अतार्किक थीं। अंग्रेजों ने प्रदेशों के सीमा
निर्धारण में भाषा या संस्कृति की समरूपता का कोई ध्यान नहीं रखा था। इसलिए
ज्यादातर राज्य बहुभाषी और बहुसंस्कृति युक्त थे। बीच-बीच में पड़ने वाले देशी
रियासत और रजवाड़ों ने प्रादेशिक विभाजनों को और भी बेमेल[6] कर
दिया था।
हालांकि राष्ट्रीय नेतृत्व ने राज्य पुनर्गठन
के भाषाई मुद्दे पर नए सिरे से सोचना आरंभ किया लेकिन कई कारणों से वे अपने वायदे
को तुरंत लागू करने से कतराने लगे। भारत विभाजन ने बहुत गंभीर प्रशासनिक, आर्थिक और राजनीतिक समस्याएं उत्पन्न कर दी थीं। चूंकि आजादी दूसरे
महायुद्ध के बाद आई थी, इसलिए उसके साथ कठिन आर्थिक एवं
कानून और व्यवस्था संबंधी समस्याएं भी जुड़ी हुई थीं। ऊपर से उलझी कश्मीर समस्या, पाकिस्तान के साथ युद्ध के मँडराते खतरे,
हिन्दू-मुस्लिम सांप्रदायिकता, देशी रियासतों का विलय और
शरणार्थियों की समस्या। नेतृत्व का विचार यह था कि अभी कुछ समय के लिए पहला काम राष्ट्रीय
एकता को मजबूत करना होना चाहिए क्योंकि देश की आंतरिक सीमाओं के पुनर्निर्धारण के
जटिल कार्य को अभी हाथ में लेने का कोई भी प्रयास, प्रशासनिक
और आर्थिक विकास को ठप्प कर दे सकता था। साथ ही यह क्षेत्रीय एवं भाषाई दुश्मनी को
हवा दे सकता था या विभाजनकारी शक्तियों को उभार सकता था, देश
की एकता में दरार डाल सकता था और राष्ट्रीय एकीकरण का मार्ग अवरुद्ध[7] कर
सकता था। अतएव आंध्र, तेलंगाना, बंबई, मैसूर आदि स्थानों पर भाषा के आधार पर राज्यों की मांग को देखते हुए
संविधान सभा के सभापति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने उत्तर प्रदेश के वकील श्री धर की
अध्यक्षता में भाषावार प्रान्तों के गठन पर विचार-विमर्श करने के लिए धर आयोग का
गठन किया था। धर समिति ने 19 दिसंबर 1948 को अपनी रिपोर्ट में क्षेत्रीय भाषाओं के
आधार पर प्रान्तों के गठन के विचार को स्वीकृति प्रदान नहीं की। समिति का मानना था
कि, क्षेत्रीय भाषायी आधार पर राज्यों का गठन राष्ट्रीय एकता
को खतरे में डाल सकता है। इस तरह कांग्रेस के जयपुर अधिवेशन में इस प्रतिवेदन पर
विचार हुआ और जे. वी. पी. समिति (1948) बनाई गयी जिसके सदस्य जवाहरलाल नेहरू, वल्लभ भाई पटेल, पट्टाभि सीतारमैया थे। इन्होंने
रिपोर्ट में यह सुझाव रखा था कि, आंध्र प्रांत का अविलंब गठन
किया जाए, किन्तु मद्रास शहर तमिलों के पास ही रहे। श्री
प्रकाशम सहित आंध्र के अनेक सदस्यों एवं नेताओं ने इस रिपोर्ट का विरोध किया।
मद्रास राज्य के तेलगू भाषियों ने प्रमुखता से भाषा के आधार पर आंध्र राज्य की
मांग की। 19 अक्तूबर 1952 को एक विख्यात स्वतन्त्रता सेनानी पोट्टी श्रीरामालु ने
अलग आंध्र राज्य की मांग पर आमरण अनशन शुरू किया और 58 दिनों के अनशन से उनकी
मृत्यु हो गयी। उनकी मृत्यु के बाद पूरे आंध्र क्षेत्र में तीन दिनों तक लगातार
दंगे, प्रदर्शन, हिंसा और हड़तालें चलती
रहीं। पुलिस फायरिंग में कई व्यक्तियों की मृत्यु हो गई। सरकार तुरंत झुक गई और
आंध्र राज्य की मांग[8] को स्वीकृति
प्रदान करनी पड़ गयी।
तत्कालीन राजनीतिक परिदृश्य को समझते
हुए सरकार ने आंध्र राज्य अधिनियम 1953 के द्वारा विद्यमान मद्रास राज्य के 16
उत्तरी तेलगू जिलों का क्षेत्र निकालकर 1 अक्टूबर 1953 को भाषायी आधार पर आंध्र
प्रांत को गठित किया। अलग-अलग क्षेत्रों में आंध्र राज्य की स्वीकृति से भाषायी
आधार पर राज्यों की मांग ने जोर पकड़ लिया, जिसको
देखते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहारलाल नेहरू ने 22 दिसंबर 1953 को तीन
सदस्यीय राज्य पुनर्गठन आयोग कि नियुक्ति की। इसमें न्यायाधीश फजल अली, हृदयनाथ कुंजरू व सरदार के. एम. पाणिक्कर थे। सितंबर 1955 में अपने
प्रतिवेदन में राज्यों के गठन के लिए कुछ कारकों को तय किया जिसमें भारतीय राज्यों
की एकता व अखंडता को सुनिश्चित करना, भाषायी व सांस्कृतिक
समरसता, वित्तीय, आर्थिक और प्रशासनिक
कारकों का ध्यान रखना तथा राष्ट्रीय योजना का सफल अनुपालन करना शामिल था। 1 नवंबर
1956 को राज्य पुनर्गठन अधिनियम 1957, लागू किया किया गया।
जिसमें चौदह राज्य एवं छह केंद्र
शासित प्रदेशों की व्यवस्था की गई। हैदराबाद रियासत का तेलंगाना क्षेत्र आंध्र
प्रदेश को दे दिया गया। ट्रावणकोर-कोचीन में पुराने मद्रास प्रेसीडेंसी के मालाबार
जिले को मिलाकर केरल बनाया गया। बंबई, मद्रास, हैदराबाद और कुर्ग के कुछ कन्नड़ भाषी इलाकों को मैसूर रियासत में जोड़
दिया गया। कच्छ और सौराष्ट्र रियासतों के अलावा हैदराबाद रियासत के मराठी भाषी
इलाकों को बंबई राज्य में मिलाकर विस्तार[9] किया
गया। अक्तूबर 1953 में आंध्र प्रदेश के अस्तित्व में आ जाने के साथ ही साथ तमिल भाषी राज्य के रूप में
तमिलनाडु बनाया गया।[10]
पंजाब जहां भाषाई आधार को नहीं अपनाया गया था, 1956 में
पेप्सू राज्यों को पंजाब में मिला दिया गया, जिनमें पहले से
ही तीन भाषाई समूह- पंजाबी, हिन्दी और पहाड़ी रहते थे। राज्य
के पंजाबी भाषा बहुल इलाके में अलग पंजाबी भाषी राज्य की मांग काफी जोरों पर थी।
दुर्भाग्य से यह मांग सांप्रदायिकता के साथ मिल गई। अकाली दल के नेतृत्व में सिख
संप्रदायवादियों और जनसंघ के नेतृत्व में हिन्दू संप्रदायवादियों ने भाषा के
मुद्दे का उपयोग अपनी सांप्रदायिक राजनीति को फैलाने के लिए किया। जहां हिन्दू
संप्रदायवादियों ने पंजाबी सूबा की मांग का विरोध यह कहकर किया कि पंजाबी उनकी
मातृभाषा नहीं है, वहीं सिख संप्रदायवादियों ने इसे सिख
राज्य के रूप में मांग की और कहा कि गुरुमुखी में लिखी पंजाबी एक सिख भाषा है।
हालांकि कम्युनिस्ट पार्टी ने मांग का समर्थन किया और कुछ कांग्रेसी भी साथ थे, फिर भी इसे धर्म के साथ घोल मट्ठा हो जाने से कोई रोक नहीं पाया। नेहरू
के साथ-साथ पंजाब के ज्यादातर कांग्रेसी यह समझ रहे थे कि पंजाबी राज्य कि मांग, मूलत: सिख बहुल राज्य के लिए एक सांप्रदायिक मांग को भाषा के आवरण में
लपेटकर सामने रखा जा रहा है। नेहरू और कांग्रेस नेतृत्व के सामने यह बिलकुल साफ था
कि वे धर्म या संप्रदाय के आधार पर राज्य के निर्माण की बात किसी कीमत पर स्वीकार
नहीं करेंगे। राज्य पुनर्गठन आयोग ने भी एक अलग पंजाबी भाषी राज्य के निर्माण की
मांग को इस आधार पर अस्वीकार कर दिया था कि इससे न तो पंजाब की भाषा समस्या का
समाधान होगा, न ही सांप्रदायिक समस्या का।....अंतत: 1966 में
इंदिरा गांधी पंजाबी और हिन्दी भाषी दो राज्यों में पंजाब के विभाजन के लिए तैयार
हो गई। पंजाब और हरियाणा दो अलग-अलग राज्य बना दिए गए तथा कांगड़ा के पहाड़ी भाषी
क्षेत्र और होशियारपुर जिले का कुछ हिस्सा हिमाचल प्रदेश में मिला दिया गया।
संयुक्त पंजाब की राजधानी और नवनिर्मित शहर चंडीगढ़ को केंद्र शासित प्रदेश बना
दिया गया। पंजाब और हरियाणा दोनों को साझा राजधानी[11] के
रूप में रहने दिया गया।
राज्य पुनर्गठन आयोग और विधेयक के खिलाफ
सबसे ज्यादा विरोध महाराष्ट्र में हुआ। बड़े पैमाने पर दंगे भड़क उठे और जनवरी 1956
में पुलिस फायरिंग के दौरान अकेले बंबई शहर में 80 लोग मारे गए। छात्रों, किसानों, मजदूरों,
कलाकारों, व्यापारियों आदि की व्यापक जनभावना के आधार पर
विपक्षी दलों ने एक शक्तिशाली विरोध आंदोलन खड़ा कर दिया। महाराष्ट्र के लोगों का
यह गुस्सा था कि इतनी विशाल आबादी की आवाज अनसुनी की जा रही है। आखिरकार दबाव के
सामने झुककर भारत सरकार ने जून 1956 में यह निर्णय लिया कि बंबई राज्य को दो
हिस्सों में बांटकर दो भाषाई राज्य महाराष्ट्र और गुजरात बनाए जाएंगे तथा बंबई शहर
केंद्र शासित प्रदेश बनेगा। महाराष्ट्र द्वारा इस कदम का घोर विरोध किया गया।
नेहरू डगमगा गए थे। महाराष्ट्र के लोगों को ठेस पहुंचाने का उन्हें दु:ख था। उन्होंने
जुलाई में अपने निर्णय को बदलते हुए ग्रेटर बंबई नामक द्विभाषी राज्य फिर से बना
दिया। फिर इस कदम का विरोध महाराष्ट्र और गुजरात दोनों ही जगह हुआ। व्यापक आधार
वाली संयुक्त महाराष्ट्र समिति और महागुजरात जनता परिषद राज्य के दो हिस्सों में
अलग-अलग आंदोलन का नेतृत्व कर रही थी। महाराष्ट्र में बड़े पैमाने पर कांग्रेसियों
ने भी बंबई राजधानी वाली एकभाषी महाराष्ट्र की मांग का समर्थन किया। केंद्रीय
मंत्रिमंडल में वित्तमंत्री सी. डी. देशमुख ने इस सवाल पर अपने पद से इस्तीफा दे
दिया। दूसरी तरफ गुजरातियों को लग रहा था कि नए राज्य में वे एक अल्पसंख्यक बनकर
रह जाएंगे। वे बंबई सिटी भी महाराष्ट्र को देने के लिए तैयार नहीं थे। अब हिंसा और
आगजनी अहमदाबाद और गुजरात के अन्य हिस्सों में फैल गया। पुलिस फायरिंग में 16 आदमी
मारे गए और 200 घायल[12] हुए।
आखिरकार 1960 में सरकार बंबई राज्य को महाराष्ट्र और गुजरात में बांटने के लिए
तैयार हो गई, जिसमें बंबई सिटी महाराष्ट्र को मिला तथा
गुजरात कि राजधानी अहमदाबाद[13] की
गई।
भारतीय संघीय राज्य के लिए यह विडंबना ही रही
कि 1956 में राज्य पुनर्गठन अधिनियम लागू होने के पश्चात भी जातीय, भाषायी, क्षेत्रीयतावाद तथा पृथकतावाद जैसे तत्वों
के आधार पर राज्यों की सीमाओं में परिवर्तन और नए राज्यों के गठन का सिलसिला जारी
ही रहा।
असम में नागा जाति ने भारतीय संघ से
पृथक होने का आंदोलन किया एवं फिजों के नेतृत्व में नागा राष्ट्रीय परिषद का गठन
किया गया जिसने अपने आंदोलन को प्रभावी एवं तीव्र करने के लिए गैर संवैधानिक
उपकरणों का सहारा लिया। फिजों के पीछे नागा जाति का विश्वास इस कदर केंद्रीय
राजनीति पर हावी हुआ कि 1960 में केंद्रीय सरकार को नागाओं से समझौता करना पड़ा।
जिसके परिणाम स्वरूप नागालैंड राज्य अधिनियम 1962 अस्तित्व में आया और इस तरह 1
फरवरी 1962 में नागालैंड राज्य की स्थापना हुई। फिर असम में ही जनजातीय आधार पर
पृथककरण एवं क्षेत्रीयतावाद की मांग इतनी बढ़ गई कि असम राज्य के मिजो पहाड़ी जिलों
के नेता भी भारतीय संघ से पृथक स्वाधीन मिजो राज्य की मांग करने लगे। इस राजनीतिक
लड़ाई के लिए मिजो राष्ट्रीय फ्रंट की स्थापना की गई। 1962 में इस फ्रंट को
गैर-संवैधानिकता के प्रश्न को लेकर केंद्रीय सरकार द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया।
लेकिन भूमिगत होकर आंदोलन जारी रखा। 1971 में मिजो नेता एवं फ्रंट, राज्य की मांग के प्रश्न पर जनमत संग्रह कराने पर अड़ा रहा।
केंद्रीय सरकार ने उत्तर-पूर्वी क्षेत्र (असम) में की जा रही मांग के निवारण के
लिए सात राज्यों, जिन्हें उत्तर-पूर्व की सात बहनें भी कहा
जाता है- अरुणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड और
त्रिपुरा का गठन किया।
इन सबके वावजूद भी आंध्र प्रदेश में
तेलंगाना, महाराष्ट्र में विदर्भ, गुजरात में सौराष्ट्र, असम में बोडोलैंड, पश्चिम बंगाल में गोरखालैंड, उत्तरप्रदेश में
पूर्वांचल, हरित प्रदेश, उत्तराखंड, बुंदेलखंड, बिहार में झारखंड और मध्यप्रदेश में
छत्तीसगढ़ जैसे क्षेत्र भी अपने लिए अलग राज्य की मांग करने लगे थे।
छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण मंच, उत्तराखंड क्रान्ति दल और झारखंड मुक्ति मोर्चा ने लगातार
केंद्रीय सरकार पर दबाव बनाकर इन राज्यों की मांग को बरकरार रखा। वस्तुत: 1 नवंबर
2000 को छत्तीसगढ़ राज्य मध्यप्रदेश में से बनाया गया। 9 नवंबर 2000 को उत्तरांचल
(उत्तराखंड) राज्य उत्तरप्रदेश में से 16 जिलों को निकालकर बनाया गया और 15 नवंबर
2000 को झारखंड क्षेत्रीय विकास परिषद का उल्लंघन करते हुए बिहार के दक्षिणी
हिस्से को काट कर झारखंड राज्य बनाया गया।
आंध्र प्रदेश की तेलंगाना राष्ट्र
समिति के अध्यक्ष कल्वकंवल चंद्रशेखर राव ने अपने पूर्ववर्ती नेता श्री रामूलु की
भांति तेलंगाना राज्य की मांग को व्यावहारिक स्तर पर तीव्रता देने के लिए आमरण
अनशन कर दिया, जिसके दबाव में केंद्रीय सरकार के
गृहमंत्री ने प्रधानमंत्री को आधी रात को ही कैबिनेट के अन्य वरिष्ठ सदस्यों के
साथ बैठक के बाद तेलंगाना को पूर्ण अलग राज्य का दर्जा देने की घोषणा[14] करनी
पड़ी। इस राज्य को लेकर पक्ष एवं विपक्ष में तीव्र आंदोलन होने से केंद्रीय सरकार
को अपने कदम आगे बढ़ाकर पीछे खींचने पड़े। आखिरकार तेलंगाना में भारी विरोध और
चुनावी दबाव के चलते 2 जून 2014 को तेलंगाना देश का 29वाँ
राज्य बना।
आज भी विभिन्न राज्यों में से अलग-अलग
राज्य निर्माण करने की मांग जनांदोलनों के माध्यम से जारी है, महाराष्ट्र में विदर्भ, गुजरात में
सौराष्ट्र, बिहार में मिथिलांचल और भोजपुर, उड़ीसा में महाकौशल, असम में बोडोलैंड, पश्चिम बंगाल में गोरखालैंड और कर्नाटक में कोडागू राज्य को लेकर।
इस प्रकार राज्यों के पुनर्गठन ने
भारत की एकता को कमजोर नहीं किया बल्कि भारतीय संघ को मजबूत ही किया है। एक तरफ
विभाजन वाली शक्ति साबित होने के बजाए दूसरी तरफ एकता और समन्वय की शक्ति साबित की
है।
संपर्क: विकास एवं शांति अध्ययन विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी
विश्वविद्यालय, पंचटीला, वर्धा, महाराष्ट्र, मो. नं. 9763710526, ई-मेल: chandankumarjrf@gmail.com
संदर्भ-सूची
[1] मिश्र, बाबूराम; स्वतंत्र भारत की एक झलक, प्रकाशन शाखा सूचना
विभाग, उत्तर प्रदेश, लखनऊ, जनवरी, 1959, पृ. 113-14, देखें; रिपोर्ट ऑफ नेहरू कमिटी,
ऑल पार्टीज़ कॉन्फ्रेंस, 1928, पृ. 62
[2] मिश्र, बाबूराम; स्वतंत्र भारत की एक झलक, प्रकाशन शाखा सूचना
विभाग, उत्तर प्रदेश, लखनऊ, जनवरी, 1959, पृ. 114
[4] चंद्र बिपिन, मुखर्जी मृदुला और मुखर्जी आदित्य; आजादी के बाद का भारत, हिन्दी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय दिल्ली विश्वविद्यालय, पुनर्मुद्रण, जुलाई, 2011, पृ. 118
[5] वही, पृ. 119
[12] वही, पृ. 137