Saturday, 2 August 2014

रचनात्मक कार्यक्रम और समाज परिवर्तन


                    - चन्दन कुमार, जेआरएफ(यूजीसी)
पी -एच. डी. ,अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा.
मो.-09763710526 ; ई मेल:chandankumarjrf@gmail.com   
   गांधी का रचनात्मक कार्यक्रम आदर्श-समाज निर्माण का साधन भी है और साध्य भी। इसका उद्देश्य समाज परिवर्तन के द्वारा एक नए समाज की रचना करना है, आंदोलन करना उसका उद्देश्य कभी-भी नहीं रहा है। इस संबंध में गांधी स्वयं कहते हैं कि, “लड़ाई के द्वारा देश जीता जा सकता है, किन्तु उसे समृद्ध तो रचनात्मक कार्य के द्वारा ही किया जा सकता है।”[1] इस तरह रचनात्मक कार्यक्रम समाज परिवर्तन के लिए सामूहिक प्रयत्न और लोक शिक्षण का काम करता है। गांधी की मान्यता के मुताबिक समाज परिवर्तन हिंसक जन आंदोलन के द्वारा कभी-भी नहीं किया जा सकता है और न ही इसके जरिए टिकाऊ समाज परिवर्तन ही हो सकता है। रचनात्मक कार्यक्रम समाज में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने का बेहतर तरीका है। इस कार्यक्रम के द्वारा समाज को सिर्फ जगाने की जरूरत है। यदि समाज, रचनात्मक कार्यक्रम के उद्देश्य और फायदों के बारे में जानेगा तो अवश्य समाज में सम्पूर्ण क्रांति एवं  समाज परिवर्तन की लहर फैलने लगेगी। रचनात्मक कार्यक्रम में लगे व्यक्ति को प्रतिपक्षी से संघर्ष करने के लिए परस्पर सहयोग आदि से आत्म-शुद्धि के द्वारा आत्म-बल पैदा करने के लिए हमेशा तत्पर रहना पड़ता है। जिन दुर्गुणों के खिलाफ हम समाज में संघर्ष करेंगे उन दुर्गुणों को अपने में पालन करना न तो सत्य हो सकता और न ही अहिंसा, बल्कि वह पाखंड के घिनौने रूप में क्रियान्वित हो जाएगी।
        गांधीजी ने 1941 में अपनी पुस्तक रचनात्मक कार्यक्रम” की  प्रस्तावना में लिखा है कि, रचनात्मक कार्यक्रम ही पूर्ण स्वराज्य या मुकम्मल आजादी को हासिल करने का सच्चा और अहिंसक रास्ता है। उसकी पूरी–पूरी सिद्धि ही संपूर्ण स्वतंत्रता है। गांधी जी ने कुल 18 प्रकार के रचनात्मक कार्यक्रम समाज परिवर्तन हेतु दिये और उनका मानना था कि, मेरी यह सूची पूर्ण होने का दावा नहीं करती यह तो महज मिसाल के तौर पर पेश की गई है।”[2] समाज की जरूरत के हिसाब से बढ़ाये भी जा सकते हैं। गांधी जी के द्वारा दक्षिण अफ्रीका में ही सत्याग्रह के दरमियान रचनात्मक कार्यक्रम की प्रारंभिक झलक देखने को मिलती है। जूलु विद्रोह, बोअर युद्ध और प्लेग जैसी बीमारी में घायलों की सेवा-सुश्रुषा एवं गाँवों की साफ-सफाई आदि के रूप में। गांधीजी कहते हैं कि “दक्षिण अफ्रीका में समाज सेवा करना आसान नहीं था, लेकिन वहाँ जो कठिनाइयाँ सामने आती थीं, वे भारत की कठिनाइयों के मुक़ाबले में कुछ नहीं थीं। यहाँ समाज सेवक को अंधविश्वास, पूर्वाग्रह और रूढ़िवादिता की जिन बाधाओं से लड़ना पड़ता है, उनका परिमाण बहुत ज्यादा है। रूढ़िवादी व्यक्ति बुराइयों से दूर रहकर सही रास्ते पर चलता है। लेकिन जब रूढ़िवादिता में अज्ञान, पूर्वाग्रह और अंधविश्वास आ मिलते हैं तब वह सर्वथा अवांछनीय हो जाती है।”[3] भारत में भी गांधी जी ने आजादी की लड़ाई के दरम्यान रचनात्मक कार्यक्रम को साथ-साथ रखा था और उनका मानना था कि सच्ची आजादी तभी मिल पाएगी जब हम उस लायक बनेंगे। सन् 1920 में गांधी जी ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के द्वारा रचनात्मक कार्यक्रम भारत के सामने रखा था। उस समय से इस कार्यक्रम की आवश्यकता और प्रभावोत्पादकता में उनकी श्रद्धा बढ़ती गई और इस बात पर वे अधिकाधिक ज़ोर देने लगे कि संग्राम के पहले नैतिक शक्ति को विकसित करने और अनुशासन को दृढ़ करने तथा संग्राम के बाद सुसंगठित होने के लिए और जीत के नशे या हार की उदासी से बचने के लिए रचनात्मक कार्यक्रम सत्याग्रही के लिए आवश्यक है।[4] चूँकि सत्याग्रह में निषेधात्मक तत्वों के साथ-साथ भावात्मक मूल्य जुड़े होते हैं। इसीलिए रचनात्मक कार्यक्रम सत्याग्रही के लिए भावात्मक पक्ष हैं। गांधी की ही तरह विनोबाजी असत्य को सत्य से, शस्त्र को वीणा से, चिल्लानेवाले को गायन और भजन से और विध्वंस के कार्य को रचनात्मक कार्य से जीतने की तकनीक देते हैं। गांधीजी कहते हैं कि “लड़ाई के अंत में हममें निडरता आनी चाहिए और रचनात्मक कार्य के अंत में योजना-शक्ति और कार्य-शक्ति। यदि हममें योजना-शक्ति और कार्य-शक्ति न आये तो हम राज्य नहीं चला सकते। यदि हम अहिंसा से राज्य प्राप्त करें तो वह सेवा-वृत्ति से ही कायम रखा जा सकता है। किन्तु यदि हम सत्ता प्राप्त करने के उद्देश्य से राज्य लेंगे तो वह केवल हिंसा से ही टिकेगा। उचित यह है कि हम अहिंसा की शक्ति को पुष्ट करें और सत्ता के बल त्यागें। जबतक हममें मिलकर रहने की शक्ति नहीं आती तबतक अहिंसा से स्वराज्य प्राप्त करना असंभव है। मैंने इसीलिए लोगों के सम्मुख त्रिविध कार्यक्रम रखा है।”[5] रचनात्मक कार्यक्रम से सत्याग्रह आंदोलन पूर्ण, अहिंसक और सृजनशील बनता है। सत्याग्रह और रचनात्मक कार्यक्रम समाज परिवर्तन तथा सामाजिक नियंत्रण की पूरक पद्धति हैं। एक तरफ समाज में अंतर्निहित बुराई, शोषण, अन्याय और अत्याचार को सत्याग्रह द्वारा दूर किया जा सकता है वहीं दूसरी तरफ रचनात्मक कार्यक्रम द्वारा समतामूलक समाज संगठित कर सकते हैं। गांधीजी बराबर इस बात पर ज़ोर देते हैं कि स्वराज प्राप्त करने के साधन के रूप में रचनात्मक काम करते रहना जरूरी है।[6]          
जिस तरह समाज परिवर्तन का लक्ष्य समाज का सृजन या रचना है उसी तरह रचनात्मक कार्यक्रम का भी उद्देश्य नए समाज की रचना है और यही समाज परिवर्तन का मुख्य साधन हो सकता है। गांधी जी लिखते हैं कि रचनात्मक कार्यक्रम को दूसरे शब्दों में और अधिक उचित रीति से सत्य और अहिंसात्मक साधनों द्वारा पूर्ण स्वराज्य की यानि पूरी–पूरी आजादी की रचना कहा जा सकता है।[7] विद्यार्थियों की सभा में 18 सितंबर 1925 को भाषण में गांधीजी कहते हैं कि, “समाज-सेवा के लिए सबसे पहली जरूरत चरित्र-बल कि है और समाज-सेवा करने के इच्छुक व्यक्ति में यदि चरित्र नहीं है तो वह समाज-सेवा करने योग नहीं है।”[8] रचनात्मक कार्यक्रम सत्य एवं  अहिंसा पर आधारित सामाजिक बदलाव है। इस संबंध में गांधी जी कहते हैं कि, यदि रचनात्मक कार्यक्रम में जीवंत श्रद्धा नहीं है तो समूहिक अहिंसा कि बात करना बेईमानी है।[9] समाज में रचनात्मक कार्यक्रम को कार्यरूप में लाना आपसी सहमती से होता है। इस काम के लिए अहिंसक पुरुषार्थ की आवश्यकता है। रचनात्मक कार्यक्रम का कार्य समाज में समझा–बुझाकर एवं  स्वंय उस दिशा में संघर्षरत एवं कार्यरत होकर करने और कराने की होती है। समाज-परिवर्तन की प्रक्रिया के बारे में विनोबा और धर्माधिकारी के विचारों को जिन तीन धारणाओं के आधार पर समझा जा सकता है- वे हैं ह्रदय-परिवर्तन, विचार-परिवर्तन और स्थिति-परिवर्तन। जो रचनात्मक कार्यक्रम के द्वारा संभव है। गांधी जी के लिए रचनात्मक कार्यक्रम का लक्ष्य सर्वोदय समाज की स्थापना करना था, केवल अंग्रेजी सत्ता की समाप्ति नहीं।    
            गांधी जी ने हरिजन पत्रिका में लिखा है कि, “मेरी राय में जिसे रचनात्मक कार्यक्रम में विश्वास नहीं है,  उसे भूख से पीड़ित करोड़ों देशवासियों के प्रति कोई ठोस भावना नहीं है और जिसमें यह भावना नहीं है, वह अहिंसक लड़ाई नहीं लड़ सकता है।[10] सच्चे सत्याग्रही की पहचान के लिए रचनात्मक कार्यक्रम वरदान स्वरूप है, उनमें अनुशासन, आत्मसंयम एवं सेवा का प्रशिक्षण ग्रहण करने या कराने की प्रयोगशाला बन जाती है। जब तक आधार सुदृढ़ नहीं होता है, उस पर अधिकार दिवास्वप्न जैसा ही प्रतीत होता है। रचनात्मक कार्यक्रम जन संपर्क का सबसे अधिक विश्वसनीय और उचित माध्यम है। गांधी की दृष्टि में, सेवा के बिना सच्ची राजनीतिक सेवा भी संभव नहीं है।[11] प्रत्यक्ष सेवा का जनता के ह्रदय पर जितना असर होता है उतना और किसी भी माध्यम का नहीं हो सकता है। यह कार्यकर्त्ताओं की सच्चाई का स्वतः सिद्ध सबूत भी है, क्योंकि यहाँ पाखंड, प्रवचन या नाटक नहीं बल्कि प्रत्यक्ष सेवा का क्रियान्वयन, मार्गदर्शन एवं कर्तव्यनिष्ठा का पालन है। गांधीजी के अनुसार, “यज्ञमय जीवन कला कि पराकाष्ठा है, सच्चा रस उसी में है, क्योंकि उसमें से रस के नित्य नए झरने प्रकट होते हैं। मनुष्य उन्हें पीकर अघाता नहीं है, न वे झरने कभी सूखते है। यज्ञ यदि भाररूप जान पड़े तो यज्ञ नहीं है।”[12] वे तो यहाँ तक कहते हैं की, इस शरीर के अंदर रहने वाली आत्मा जो सेवा करने को उत्कंठित है यदि उसके लिए इस शरीर का उपयोग नहीं किया जा सकता तो मुझे उसके परिरक्षण में कोई दिलचस्पी नहीं रह सकती।[13] वे सेवक को अभिमान मुक्त रहना आवश्यक बताते हैं। सेवक को स्वप्न तक में यह खयाल नहीं आना चाहिए कि अगर वह नम्रता से, आदरपूर्वक या जी-जान से देहातियों कि सेवा करता है, तो किसी पर कोई उपकार करता है।[14] “शुद्ध हृदय से किए गए सभी कार्यों का मूल्य एक जैसा ही होता है। हमें जो काम दिया गया है उससे प्राप्त होने वाला संतोष ही सच्ची भक्ति या साधना है। हमें जो सेवा करने का अवसर मिला है उसमें तन्मय हो जाना ही सच्ची समाधि है।”[15] गांधीजी कहते है कि, “जो गरीबों कि सेवा करता है, वह अपने ऋण का हिस्सा अदा करता है।”[16] नारायण मोरेश्वर खरे (10 फरवरी 1932) को पत्र में गांधीजी लिखते हैं कि, “जो एक को सत्य लगता है, वह बहुत बार दूसरे को वैसा नहीं लगता, यह बात हम समय-समय पर देखते रहते हैं। किन्तु जो व्यक्ति इस तरह अपने माने हुए सत्य के अनुसार चलता है, उसे तलवार कि धार पर चलना पड़ता है।....सत्यशोधक इस चक्कर में नहीं पड़ेगा की अमुक कार्य से समाज का कल्याण होगा अथवा नहीं। वह तो कहेगा कि मैं कल्याण-अकल्याण की बात में नहीं पड़ता ; सत्य में ही सबका कल्याण है क्योंकि सत्य ही साक्षात, पूर्ण पुरूषोत्तम है।”[17] गांधीजी कहते हैं कि, “जब मनुष्य में से अहंकार-वृत्ति और स्वार्थ का नाश हो जाता है तब उसके सारे कर्म स्वाभाविक और निर्दोष हो जाते हैं। वह बहुत से जंजालों से छूट जाता है।”[18] गांधीजी ने यज्ञ का अर्थ माना है, अपने लिए नहीं, बल्कि दूसरे के लिए, परोपकार के लिए किया हुआ श्रम अर्थात संक्षेप में `सेवा`। और जहाँ सेवा के निमित्त ही सेवा कि जाएगी वहाँ आसक्ति, राग-द्वेष नहीं होगा। ऐसी सेवा तू करता रह। ब्रह्मा ने जगत उपजाने के साथ-ही-साथ यज्ञ भी उपजाया; मानो हमारे कान में यह मंत्र फूंका कि पृथ्वी पर जाओ, एक-दूसरे कि सेवा करो और फूलो-फलो, जीवमात्र को देवता रूप जानो। इन देवों की सेवा करके तुम उन्हें प्रसन्न रखो, वे तुम्हें प्रसन्न रखेंगे।[19] गांधीजी की नजर में, “समाज-सेवा का काम रोचक और तड़क-भड़कवाला काम नहीं है। उसमें परिश्रम, घोर परिश्रम करना पड़ता है। यह भी सच है कि उसमें आर्थिक दृष्टि से कोई आकर्षण नहीं होता। समाज-सेवा को मुश्किल से गुजारे लायक पैसों से ही संतोष करना पड़ता है और कभी तो वह भी नसीब नहीं होता।”[20]             
            रचनात्मक कार्य द्वारा जनता के बीच जाने का अच्छा तरीका है। इसके  माध्यम से जनता के सुख–दु:ख के हम सहभागी बन सकते है। आंदोलनकारी एक दूरवर्ती काल्पनिक राज–व्यवस्था या समाज व्यवस्था का चित्र भले ही दिखाते हो, लेकिन वह टिकाऊ समाज व्यवस्था नहीं हो सकता है। गांधी जी ने लिखा है कि, रचनात्मक कार्यक्रम का नक्शा अपने मन में खीचकर देखेंगें,तो उन्हें मेरी यह बात माननी होगी कि जिस कार्यक्रम को कामयाबी के साथ पूरा किया जाय तो उसका नतीजा आजादी या स्वतन्त्रता ही होगी, जिसकी हमें जरूरत है।[21] अहिंसक समाज रचना के लिए गांधी जी के द्वारा चलाये गए रचनात्मक कार्यक्रम में सूमार है- कौमी एकता, अस्पृश्यता–निवारण, शराबबंदी, खादी, दूसरे ग्रामोद्योग, गांवों की सफाई, नयी या बुनियादी तालिम, बड़ों की तालिम, स्त्रियाँ, आरोग्य के नियमों की शिक्षा, प्रांतीय भाषाएँ, राष्ट्रभाषा, आर्थिक समानता, किसान, मजदूर, आदिवासी, कोढ़ी और विध्यार्थी। इन सभी रचनात्मक कार्यक्रम का अपना विशेष महत्व (स्थान) है। भाषण अनकापल्लीकी सार्वजनिक सभा में देते हुए गांधीजी कहते हैं कि, “स्वराज्य के चार स्तंभों को हमेशा अपने में ध्यान रखिए। केवल खद्दर पहनिए, शराब तथा मादक वस्तुओं कि बुराई का उन्मूलन कीजिए, अस्पृश्यता निवारण कीजिए तथा हिन्दू-मुस्लिम एकता और अन्तर्साम्प्रदायिक एकता के लिए काम करिए।”[22] गांधी जी का मानना है कि, जिस कार्यक्रम से समाज में रचना हो वही रचनात्मक कार्य है। गांधीजी कहते हैं कि, “जो अनासक्तिपूर्वक कर्म का आचरण करते है वह ईश्वर का साक्षात्कार करता है।”[23]  गांधी जी इन रचनात्मक कार्यक्रमों के द्वारा भारत को स्वावलम्बी बनाना चाहते थे। गांधी जी ने कहा था कि, “रचनात्मक कार्यक्रम के क्रियान्वयन का मतलब स्वराज्य का ढ़ाचा खड़ा करना है।”[24] और उनको विश्वास भी था कि यदि सभी देशवासी रचनात्मक कार्यक्रम को पूरा करने में अपनी पूरी शक्ति लगा दें तो छ: महीने में नया भारत उपस्थित हो सकता है। गांधी जी का मानना था कि, देश स्वराज के लायक बनेगा तभी वह स्वराज का उपभोग कर सकता है। अगर सभी आर्थिक दृष्टि से समान नहीं होगें, तथा समाज से वंचित एवं पिछड़े वर्गों को हम नहीं अपनाएँगें तब तक राष्ट्र ऐसे ही सुलगता रहेगा चाहें वो संप्रदायिकता की आग हो चाहे गरीबी की, चाहे भ्रष्टाचार की और इस आग को बुझाना एवं एक नए राष्ट्र की रचना रचनात्मक कार्यों के द्वारा संभव है। रचनात्मक कार्यक्रम मानवाधिकारों एवं कर्तव्यों की चेतना का सूत्रपात करता है। इस तरह रचनात्मक कार्यक्रम ही शांत मूक और शुभ सामाजिक बदलाव की क्रांति हो सकती है।
                        
संपर्क: संस्कृति विद्यापीठ, अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र । मो.- 09763710526,                                        ई-मेल : chandankumarjrf@gmail.com





[1]  सम्पूर्ण गांधी वाड्मय, खंड-37, प्रकाशन विभाग, सूचना और प्रसारण मंत्रालय भारत सरकार, पृ.172  
[2] गांधी जी; रचनात्मक कार्यक्रम, नवजीवन ट्रस्ट, अहमदाबाद, पुनर्मुद्रण, 2004, पृ.3
[3] सम्पूर्ण गांधी वाड्मय, खंड-28, पृ.207
[4] धवन, गोपीनाथ; सर्वोदय तत्त्व दर्शन, नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद, 1983, पृ. 210
[5] सम्पूर्ण गांधी वाड्मय, खंड-26, पृ.141 
[6] यंग इडिया, 2-7-1931
[7] गांधी जी; रचनात्मक कार्यक्रम, पृ.9
[8] सम्पूर्ण गांधी वाड्मय, खंड-28, पृ.206-7   
[9] सम्पूर्ण गांधी वाड्मय, खंड-75, पृ.151
[10] हरिजन, 12- 4- 1942
[11] सम्पूर्ण गांधी वाड्मय, खंड-28, पृ.207     
[12] वही, खंड-44, पृ.258     
[13] वही, खंड-44, पृ.156      
[14] हिन्दी नवजीवन, 24-10-1929
[15] वही, खंड-44, पृ.17      
[16] हिन्दी नवजीवन, 24-10-1929
[17] सम्पूर्ण गांधी वाड्मय, खंड-49, पृ.79      
[18] सम्पूर्ण गांधी वाड्मय, खंड-49, पृ.117     
[19] सम्पूर्ण गांधी वाड्मय, खंड-49, पृ.115      
[20] सम्पूर्ण गांधी वाड्मय, खंड-28, पृ.207     
[21] गांधी जी; रचनात्मक कार्यक्रम, पृ.10
[22] सम्पूर्ण गांधी वाड्मय, खंड-40, पृ.330      
[23] सम्पूर्ण गांधी वाड्मय, खंड-49, पृ.116      
[24] सम्पूर्ण गांधी वाड्मय, खंड-75, पृ.151

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