- चन्दन कुमार, जेआरएफ(यूजीसी)
पी -एच. डी. ,अहिंसा
एवं शांति अध्ययन विभाग
महात्मा
गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा.
मो.-09763710526
; ई मेल:chandankumarjrf@gmail.com
भारत में सांप्रदायिकता धार्मिक जड़ता का परिणाम
है। अंग्रेजों ने अपनी शासन व्यवस्था को टिकाये रखने के लिए हिन्दू और मुसलमानों
की धार्मिक जड़ता का सहारा लिया था। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि मानव समाज में धर्म ने
मनुष्य-समाज को सहिष्णु बनाया, मानवीय बनाया, सामंजस्यवाद
और सम्मिश्रण पर जोर दिया है। इसके विपरीत धार्मिकता ने असहिष्णु, अमानवीय, दौलत का दास और उपभोक्ता बनाया। धर्म जोड़ता
है जबकि धार्मिकता मूलतः फूट पैदा करती है। ध्यान रहे यहाँ धर्म और धार्मिकता दो
अलग-अलग तत्व हैं। इन दोनों में टकराहट उन्नीसवीं सदी1 के आसपास शुरू
होती है, अंग्रेजों की बांटो और राज्य करो की नीति से। भारत हमेशा
से बहुजातीय, बहुसांस्कृतिक और बहुधार्मिक मान्यताओं में
विश्वास करनेवालों का देश रहा है। बहुलतावाद और साझी संस्कृति का सम्मिश्रण इसे
विरासत में प्राप्त हुआ है। यहाँ कभी भी धर्म की सत्ता का वर्चस्व नहीं रहा। इसके
विपरीत धर्म के जितने भी रूप हमारी परंपरा में हैं वे सभी स्वभावतः उदार और
एक-दूसरे के प्रति प्रतिस्पर्धा और घृणा के भाव से मुक्त रहे हैं। साथ ही, धर्म ने सत्ता से अधिकांश समय एक दूरी रखी है। यही वजह है कि समाज को
नियमित करने का काम धर्म नहीं करता रहा है बल्कि कम लोगों ने, प्रत्येक युग में, अपनी सुविधा के अनुसार जीवन शैली,
संस्कारों, धार्मिक मान्यताओं का विकास किया।2अपनी जरुरत और हुकूमत की सत्ता कायम करने के लिए।
प्रसिद्ध दार्शनिक टालस्टाय ने धर्म पर चर्चा
करते हुए धर्म के तीन हिस्से3 किए हैं- 1.इसेंसियल्स
ऑफ रिलीजन अर्थात् धर्म की बुनियादी बातें - सच बोलो, चोरी न
करो, गरीबों की सहायता करो, जीओ और
जीने दो, प्यार से रहो, आदि। 2.फिलासाफी ऑफ रिलीजन - यानि जन्म-मृत्यु-पुनर्जन्म,
संसार-रचना आदि का दर्शन, इसमें आदमी अपनी
मर्जी के अनुसार सोचने और समझने की कोशिश करता है। 3.रिचुअल्स
ऑफ रिलीजन - यानि संस्कार, रस्मो-रिवाज आदि।
उपरोक्त तथ्य को स्वीकार कर लेने पर प्रायः
सभी धर्म एक जैसे ठहरते हैं। सच बोलना, झूठ न बोलना, प्यार से रहना, जीव जगत से प्रेम करना आदि सम्मिलित
है।
दरअसल, धर्म कभी-भी किसी का
नुकसान नहीं करता है, सभी धर्म प्रेम और सदभाव का जीवन दर्शन
है। जब धर्म में पाखंड छल-प्रपंच का घिनौना रूप समाहित होने लगता है तब धर्म भ्रष्टता
की ओर उन्मुख होने लगता है और लोगों को
पाखंडी बना देता है। धर्म को जितना खतरा
धर्मांधता से है उतना अधर्म से नहीं। विधर्मी धर्म का खुला विरोधी है परंतु
धर्मांधता धर्म का उपासक होकर धर्म के भीतर अधर्म का बीज बोता है। धर्म एक प्रकाश
है, एक ज्योति
है। यह ज्योति अपने अनुयायी को प्रकाशमय करती है और उसकी आंखों को आलोकित करती है,
मार्गदर्शन देती है जिससे वह अच्छे-बुरे की पहचान कर सकता है। किसी
काम को करने से पहले उसमें अल्लाह या ईस्वर की पसंद और नापसंद को देख सकता है।
अपनी विवेचना स्वयं कर सकता है। अपनी अंतरात्मा के प्रदूषण को देख सकता है। किसी
प्रकार का अंधकार, अंधापन और दृष्टिहीनता उसे धर्म से
प्राप्त नहीं होती। बल्कि धर्म तो उसे इस रोग से बचाने वाला होता है। अगर कोई कहे
कि मुझे धर्म ने अन्धा नहीं किया बल्कि मैं तो आंख बन्द करके धर्म को मानता हूँ तो
यह उचित नहीं है। आंख बन्द करके उसी को माना जाता है, जिसे
आंख खोलकर मानने में कठिनाई हो। धर्म तो खुली आंख और खुले दिल से मानने की चीज है।4 सत्य की राह पर चलाने का दर्शन है। इसके विपरीत धर्म के यांत्रिक अनुष्ठान या कर्मकांड में तब्दील होने की समस्या नई नहीं हैं, निहित स्वार्थी तबके ने अपने
स्वार्थ की पूर्ति के लिए हमेशा धर्म के नाम पर इसका इस्तेमाल किया। सत्ताधारी
वर्ग, उसकी सेवा में रत बौद्धिक तबका और धार्मिक जड़ता की
गिरफ्त में पड़ चुके हिस्से में हर युग में अघोषित गठबंधन स्पष्टतः दिखलायी पड़ता
है। विश्व की कोई भी धार्मिक धारा अपवाद नहीं रही।5 क्योंकि समाज में एक ऐसा भी वर्ग है जो शोषितों का शोषण धर्म को हथियार
बनाकर करते है। धर्म के लिए जब तक बड़ी पूंजी और सत्ता का संरक्षण मिलता रहेगा तब
तक धर्म स्वार्थ साधन का उपकरण बना रहेगा।6 सत्ता
और पूंजी दोनों धर्म का अपने हित में इस्तेमाल करते हैं और अपनी जरूरत के हिसाब
से इसमें सांप्रदायिकता-संकीर्णता का मिश्रण करते हैं। धार्मिकता वस्तुतः पूंजीवाद
का प्रमुख वैचारिक अस्त्र है। यह धर्म के उपभोक्ताओं का भावात्मक तौर पर एकीकृत
समूह है। इसकी परिवर्तन में कम और प्रदर्शन में ज्यादा आस्था है।7
वस्तुत: धर्म
जब तक मन का क्रिया-व्यापार है तब तक वह संघर्ष का रूप ग्रहण नहीं करता, उत्पीड़न
का अस्त्र नहीं बनता, तब तक ही धर्म सहिष्णुता और सद्भाव का
प्रतीक होता है। किन्तु ज्यों ही धर्म मन के बजाय सामाजिक भूमिका अदा करने लगता है,
त्यों ही उसकी वैचारिक भूमिका बदल जाती है। वह प्रतिस्पर्धा,
प्रतिक्रिया, प्रतिष्ठा और सामाजिक डाह का
अस्त्र बन जाता है। इसलिए कहा जाता है धर्म गरीबों का होता है और धार्मिकता अमीरों
की होती है। धर्म गरीबों के मन की आह है तो धार्मिकता अमीरों के वर्चस्व का
विस्फोट है।8 यह विस्फोट अवसरवादी व कठमुल्ला
धार्मिक नेतृत्व भी पैदा करता है। धर्म जब तक हमारी मानसिक प्रकिया से जुड़ा है तब
तक धर्म रहता है। किन्तु ज्यों ही वह सामाजिक होने की कोशिश करता है उसका स्वरूप
और विचारधारा दोनों ही बदल जाते हैं।9 धर्म का
सामाजिक दिखावा व्यक्ति की प्रतिष्ठा का प्रतीक बन जाता है, जो
जितना बड़ा धार्मिक व्यक्ति उसका उतना ही बड़ा दिखावा। यह धर्म के धार्मिकता और धंधे
में बदल जाने की प्रक्रिया है।10 यह धर्म के अंदर
पैदा की गई खतरनाक व मनुष्यता विरोधी प्रवृत्ति है। जगदीश्वर चतुर्वेदी ने आस्था
के सवाल को इस रूप में भी देखा है कि, “आस्था सिर्फ आस्था है, वह न धर्म है, न ईश्वर है, न संस्कृति है। न वह मात्र राम ही है, वह आस्था है। आस्था एवं विश्वास के आधार पर आधुनिक युग की किसी भी समस्या
का समाधान संभव नहीं है।”11
जहाँ तक धर्म
के मार्क्सवादी दृष्टिकोण का प्रश्न है, 1844 में ही युवा
मार्क्स ने धार्मिक पृथकता पर विचार किया है। मार्क्स का कहना था कि, धर्म
की सृष्टि मनुष्य करता है, धर्म मनुष्य की सृष्टि नहीं करता।
उनकी दृष्टि में मनुष्य संसार के बाहर स्थित कोई अमूर्त हस्ती नहीं है। धर्म उस
मनुष्य की या तो आत्म-चेतना है या आत्म-श्लेषना है जो या तो अब तक खुद को ढूंढ ही
नहीं पाया हैः या यदि ढूंढ लिया है तो फिर से गंवा बैठा है।12 इस तरह मार्क्स ने अपनी टिप्पणी में धर्म को ‘अफीम’
की संज्ञा दी थी। हालांकि मार्क्स ने इसी चर्चा के क्रम में धर्म को
‘हृदयहीन क्रूर विश्व के हृदय’ और ‘बेकसों की कराह’ के रूप में भी देखा था।13
वास्तव में साम्प्रदायिकता आधुनिक राजनीति की एक खास प्रवृत्ति बन गई है जो
लोगों में धार्मिक पहचान के बहाने धार्मिकता का सहारा लेकर राजनीतिक रूप से गोलबंद
करना चाहती है इसलिए लोगों की धार्मिक भावना का दिनों-दिन संकीर्ण और आक्रामक होते
जाना साम्प्रदायिक राजनीति के फलने-फूलने की पहली शर्त है।14
दो या दो से अधिक धार्मिक समुदायों के मध्य तनाव और हिंसा
जिस मानसिकता या विचारधारा को जन्म देती है, उसे
साम्प्रदायिकता कहते हैं। ऐसी स्थिति में एक धार्मिक समुदाय के लोग अपने समूह के
स्वार्थ और हितों को अधिक महत्वपूर्ण मानने लगते हैं और धर्म का सहारा लेकर उसे
पूरा करने का प्रयास करते हैं।15 व्यापक
दृष्टिकोण से साम्प्रदायिकता उस विचारधारा या मानसिकता को कहते हैं जो भाषा, धर्म,
जाति, वर्ग और प्रजाति के आधार पर लोगों में
भेदभाव पैदा करती है एवं उन्हें हिंसा और संघर्ष के लिए उत्प्रेरित करती है।16 धर्म के नाम पर एक समुदाय को दूसरे समुदाय से अलग करना, उनमें मतभेद और द्वन्द्व पैदा करना तथा
संघर्ष की आग में झोंकना साम्प्रदायिकता का ही कार्य है।17 दि इंडियन स्टेच्यूटरी कमीशन ने दो
प्रतिद्वंद्वी समुदायों के बीच सत्ता-प्राप्ति के संघर्ष को साम्प्रदायिकता का
कारण बताया।18 के. पी. करूणाकरन ने लिखा है ,“भारत
में साम्प्रदायिकता का तात्पर्य उस विचारधारा से है जो किसी विशेष धार्मिक समुदाय
या जाति के हितों में बढ़ोतरी की पक्षधर थी।”19
चर्चित
साहित्यकार विभूति नारायण राय ने साम्प्रदायिकता की उपरोक्त परिभाषा के कुछ
विशिष्ट पहलुओं का जिक्र करते हुए लिखा है कि :२० 1.यह
बहुलवाद का पूरी तरह निषेध करती है। भारत जैसे समाज में, जहां
बहुत-सी स्पष्ट राष्ट्रीयताएं हैं, यदि इस परिभाषा में
विश्वास करें तो हमें मानना पड़ेगा कि भाषा, खान-पान, परिधान की विविधताओं अथवा क्षेत्रीय-आर्थिक असंतुलनों के बावजूद किसी
धार्मिक समूह के सदस्यों की पहचान और हित समान होते हैं। 2.साम्प्रदायिकता
को हमेशा एक शत्रु की जरूरत होती है और इस मामले में शत्रु दूसरा धर्मावलंबी ही हो
सकता है। इसके द्वारा एक समुदाय के सदस्यों को यह विश्वास दिलाया जाता है कि उनके
लौकिक और पारलौकिक हित दूसरे धर्मावलंबी समुदाय के हितों पर आघात पहुंचाकर ही
सुरक्षित रखे जा सकते हैं। साम्प्रदायिकता के दर्शन में आस्था रखने वाले यह मानते
हैं कि एक धार्मिक समुदाय के रूप में न सिर्फ उनके हित एक हैं, बल्कि इन हितों की रक्षा भी एक धार्मिक समुदाय के सदस्य बने रहने से ही हो
सकती है। 3.इस सबका लब्बोलुआब यह है कि हिन्दू, मुसलमान, ईसाई अथवा सिक्ख के रूप में रेखांकित
विभिन्न समूहों के हित भिन्न और परस्पर विरोधी हैं।
साम्प्रदायिकता मनुष्य और उसके समुदाय की राक्षसी प्रवृत्ति का परिचायक है।
जब द्वेष, हिंसा, घृणा की भावना,
प्रेम, सद्भाव एवं अहिंसा को पराजित कर देती
है तब साम्प्रदायिक तनाव और हिंसा के लिए अनुकूल परिस्थिति तैयार होती है। ऐसी
स्थिति में मनुष्य-मनुष्य नहीं बल्कि राक्षस बन जाता है तथा एक दूसरे के खून से
अपनी प्यास बुझाने लगता है। समाज श्मशान में बदल जाता है और जहाँ देखें वहाँ
मनुष्य के अस्थि-पंजर नजर आते हैं। यह समाज की दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है।21 सम्प्रदायवादी
या तो दूसरों को धोखा देता है या, जो कि अधिक संभव है, स्वयं भी धोखे का शिकार होता है। वह दूसरों को और अपने आपको भी धोखा इसलिए
दे रहा है कि जिन हितों का प्रतिनिधि होने का वह दावा करता है, यथार्थ जीवन में उनका अस्तित्व होता ही नहीं।22
हम कह सकते
है कि, जो साम्प्रदायिकता धार्मिक हठ और आडम्बर में जन्म लेती है, आधुनिक समाज में तनाव और हिंसा का एक प्रमुख हथियार बन गया है। धर्म और
संस्कृति जिसका आविष्कार मनुष्य ने अच्छा जीने और एकजुट होकर संघर्ष करने के लिए
किया था। वही समाज में आज गले का फंदा बन गया है। इसीलिए मानव समुदाय को चाहिए की
वह अपने-अपने धर्म में किसी भी प्रकार की धार्मिकता या बाह्य आडंबर समाहित न होने
दे ।
संदर्भ:
संपर्क: संस्कृति
विद्यापीठ, अहिंसा एवं
शांति अध्ययन विभाग , महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी
विश्वविद्यालय,
वर्धा, महाराष्ट्र. मो.- 09763710526 ; ई-मेल : chandankumarjrf@gmail.com