Friday, 4 October 2013

विकास और ट्रस्टीशिप: वैचारिक विश्लेषण


- चन्दन कुमार, जेआरएफ(यूजीसी)
पी -एच. डी. ,अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा.
मो.-09763710526 ; ई मेल:chandankumarjrf@gmail.com 

विकास सामान्यत: सभी को प्रभावित करती है और जिस विकास के बल पर आज का पूंजीपति वर्ग अपने आपको गौरवान्वित महसूस कर रहा है, वह विकास सारे जीव-जगत के लिए घातक साबित हो रहा है। साथ ही साथ मौजूदा विकास का मॉडल शोषण पर आधारित है एवं मनुष्य के उपभोग को निरंतर बढ़ाते रहने पर आश्रित है।  अपने देश में विकास का सीधा-सादा मतलब पूँजी निवेश और उत्पादन में वृद्धि है। यह समझा जाता है कि इससे आय में भी वृद्धि होगी और आय में यह वृद्धि अठारहवीं शताब्दी में एडम स्मिथ द्वारा प्रस्तावित अदृश्य हाथ द्वारा समाज के निम्नतम स्तर तक स्वयमेव रिस-रिस कर पहुँच जाएगी। यही कारण है कि आज भी हम सकल राष्ट्रीय उत्पादन और सकल राष्ट्रीय आय में वृद्धि को ही विकास मानते हैं और आँकड़ों कि प्रस्तुति द्वारा बार-बार यह सिद्ध करने का प्रयास कराते रहते हैं कि विकास हो रहा है।”[1] जो कि विकास की अंधी और विवेकहीन स्पर्धा है। मनुष्य निरंतर भौतिक रूप से आरोहण के पथ पर है और इस आरोहण में यह लगातार प्रकृति कि शक्तियों पर विजय प्राप्त कर अपनी समृद्धि का विस्तार कर रहा है और समृद्धि का यह विस्तार सीमाहीन है। ठोस रूप से यह समृद्धि उपभोग कि नयी वस्तुओं का आविष्कार करने और उनका अम्बार लगाने में है।”[2] इस उपभोग में “उपभोगवाद का दर्शन आत्मकेंद्रित व्यक्तित्व को जन्म देता है जो निजी स्वार्थों से परे देख सकने में समर्थ नहीं होता। उसके सामाजिक सरोकार क्रमश: क्षीण हो जाते हैं।”[3] विकास संबंधी चिंतन ने वर्तमान समय में एक नया मोड़ लिया है।
यह स्पष्ट है कि सकल राष्ट्रीय उत्पाद और राष्ट्रीय आय के आँकड़े विकास के सूचक हो सकते हैं पर उससे पूरी मानव जाति कि वस्तुस्थिति का सही जायजा नहीं लगाया जा सकता है। इससे उलझन भरे सवाल उठ खड़े होते हैं। क्या वितरण कि यह व्यवस्था न्यायपूर्ण है? क्या जनसाधारण कि बुनियादी जरुरतें पूरी हो पा रही है? क्या यह विकास मानव केंद्रित है? क्या भविष्य में हम प्रकृति को बचा पायेगें? विकास कि प्रचलित अवधारणा की आलोचना करते हुए महबूब उल हक जैसे अर्थशास्त्री ने कहा है कि, “विकास जनता के लिए है, न कि जनता विकास के लिए और इसलिए वह बाजार कि जरुरत से नहीं, मानवीय जरुरत से निर्देशित होना चाहिए। महबूब उल हक के अनुसार वह तभी संभव है जब गरीबी पर सीधा प्रहार हो। बाजार का माध्यम होना बाजार को बढ़ाएगा और उस हद तक गरीबी और असमानता को भी।”[4] आज आर्थिक रूप में भारतीय समाज राजनेता, नौकरशाह एवं उद्योगपतियों के दुष्चक्र में फँसा हुआ है। इस चक्रव्यूह का भेदन करना मौजूदा पूंजीवादी या राज्यवादी व्यवस्था के वश का नहीं क्योंकि पूंजीपति एवं राज्य के नेता दोनों का इसमें निहित स्वार्थ है, जिसे अफसरशाही मजबूत कर रही है। ऐसी स्थिति में एक ऐसी गैर-सरकारी शोषण रहित व्यवस्था चाहिए जिससे यह दुष्ट व्यवस्था टूट सके।
                पृथ्वी पर मनुष्यों के उपयोग में आने वाली सारी संपत्ति पर किसी एक या सीमित व्यक्तियों का ही हक नहीं है, संपत्ति पर सबों का बराबर हक है, हम सिर्फ उस संपत्ति के न्यासी (रक्षक) हैं। जिस तरह सूर्य कि रोशनी और हवा पर अपना कोई अधिकार नहीं है, उसी तरह भूमि पर भी अपना कोई अधिकार नहीं है।  गांधीजी संपत्ति को समाज की धरोहर के रूप में देखते थे। “कोई भी व्यक्ति चाहे वह शाहजादा हो या व्यापारी वंशगत या स्वअर्जित संपत्ति का स्वंय मालिक नहीं हो सकता और न ही इस संपत्ति के मामले में उसका स्वैच्छिक अधिकार हो सकता है। वर्तमान असमानताएँ निश्चय ही लोगों के अज्ञान के कारण हैं। लोगों का अपनी स्वाभाविक शक्ति का ज्ञान जैसे ही बढ़ेगा असमानताओं का खात्मा होना लाजिमी है।”[5] ट्रस्टीशिप (न्यासिता) शब्द अंग्रेजी के ट्रस्ट शब्द से बना है। ट्रस्ट की अवधारणा जमीन और अन्य संपत्ति को सुरक्षित या संरक्षक के रूप में लिया जाता है। विनोबा जी ने संरक्षकता (ट्रस्टीशिप) का अनुवाद विश्वस्तवृत्ति किया है। संस्कृत भाषा के शब्दकोश में ट्रस्टीशिप का अर्थ विश्वासवृत्ति बताया गया है। गांधीजी ने सत्य के शोधक की तरह इस शब्द का अर्थ मौलिक रूप में रखने का प्रयास किया था। हरिजन सेवक में गांधी जी ने लिखा है कि, “ट्रस्टीशिप का अंतिम मसविदा इस बात का प्रमाण है कि इसमें पूंजीवाद की गुंजाइश ही नहीं है। बल्कि मौजूदा पूंजीवादी व्यवस्था को यह समतावादी व्यवस्था में बदलना चाहता है, जहाँ संपत्ति के व्यक्तिगत स्वामित्व का कोई अधिकार ही स्वीकार नहीं किया जाता है। राज्य द्वारा नियंत्रित संरक्षकत्व में कोई व्यक्ति अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए समाज के हित के विरुद्ध संपत्ति पर अधिकार रखने या उसके उपयोग करने के लिए स्वतंत्र नहीं होगा।”[6] गांधीजी ने भारतीय अर्थव्यवस्था के संकट को समझा था और साफ-साफ कहा था कि, “अहिंसा कि सफलता के क्षेत्र में सबसे बड़े बाधक हमारे देश में उपस्थित अमीर लोग, सट्टेबाज, भूस्वामी, दस्तावेज़ बनानेवाले, कारखानेदार, आदि हैं। वे सब शायद नहीं समझते हैं कि, वे जनता के खून चूस कर ही जी रहे हैं।[7] इस तरह प्रकृति मानव की कृति नहीं है, उसकी संपदा भी मानव कृत नहीं है। ट्रस्टी संपत्ति का स्वामी भी नहीं है।
            गांधीजी के ट्रस्टीशिप का आधार है- संपूर्ण संपत्ति भगवान की या समाज की है और व्यक्ति उसका मात्र संरक्षक या ट्रस्टी है। केवल भौतिक धन संपत्ति ही नहीं मानव की शारीरिक या बौद्धिक जो भी शक्तियाँ या गुण हैं, वह सब ईश्वर प्रदत्त हैं, समाज प्रदत्त हैं। इसलिए व्यक्ति अपने गुण और शक्ति का ट्रस्टी है, मालिक नहीं। ईश्वर ही सबका मालिक है, विश्व का सृजन किसी एक व्यक्ति के लिए नहीं किया है, बल्कि समस्त प्राणियों के लिए किया है। मनुष्य उसी ईश्वर का छोटा-सा रूप है, अत: उसे भी उत्पादन समाज-हित की भावना से करना चाहिए, स्वार्थ की भावना से नहीं। मानव के अस्तित्व का मुख्य उद्देश्य धन-संपत्ति नहीं और न वह कुछ सामाजिक कर्त्तव्यों की पूर्ति मात्र है। न्यासिता (ट्रस्टीशिप) समाज की वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था को समतावादी व्यवस्था में रूपांतरित करने का एक साधन है। न्यासिता पूंजीवाद को बख़्शती नहीं है, पर वह वर्तमान मालिक वर्ग को सुधार का एक अवसर प्रदान करती है। गांधीजी संपत्ति को समाज की धरोहर के रूप में देखते थे और इस तरह गांधी जी संपत्ति का सदुपयोग समाज-हित तथा राज्य -हित में करना चाहते थे।
            विनोबाजी के अनुसार, सही अर्थों में ट्रस्टीशिप-सिद्धांत का अभिप्राय है- “शरीर, बुद्धि और संपत्ति- तीनों में से जो भी प्राप्त हो, उसे सबके हित में लगाना।”[8]  विनोबाजी का मानना था कि, भूमि पर व्यक्तिगत स्वामित्व के आधार पर कुछ लोगों को भूमिहीन रखना एक प्रकार का अन्याय है। ईश्वर ने पृथ्वी, जल, तेज, वायु तथा आकाश जैसे पंचभूतों का निर्माण सभी प्राणियों के लिए किया है। अत: प्रकृति की चीजों पर सभी को समान अधिकार प्राप्त है। जल, तेज, वायु तथा आकाश का उपयोग सभी जीव स्वाभाविक रूप से करते हैं। इसी तरह पृथ्वी के उपभोग का भी सभी को समान अवसर मिलना चाहिए। यदि किसी को कुछ क्षण के लिए वायु से अलग कर दिया जाय तो उसके प्राण निकलने लगेंगे और ऐसा करना अन्याय होगा, उसी प्रकार जमीन के ऊपर मनुष्य को भोजन, वस्त्र तथा आवास की मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति निर्भर है। अत:उससे मानव समुदाय को वंचित रखना अन्याय है। प्रसिद्ध गांधीवादी चिंतक दादा धर्माधिकारी का मानना है कि, “केवल धनिक ही ट्रस्टी नहीं है, श्रमिक भी ट्रस्टी है। बहुत संपत्ति या धन संग्रहवाला ही नहीं, अल्प संग्रहवाला भी ट्रस्टी है। उसे भी अपने आपको ट्रस्टी मानना चाहिए। श्रमिक का काम समाज का काम है। उस काम के उपकरण भी समाज के हैं, उसके अपने नहीं हैं। उसका वह ट्रस्टी है, न्यासी है।”[9] इस प्रकार गरीब व्यक्ति या अल्प-संग्रहवान व्यक्ति का भी अपनी मेहनत की उपज पर और अपनी मेहनत के उपकरणों पर अपना स्वामित्व नहीं है।    
            “ट्रस्टीशिप के सिद्धांत में गांधीजी ने पूंजीवाद, समाजवाद,और संन्यासवाद की बुराई का परित्याग कर उनकी अच्छाइयों को ग्रहण किया है। पूंजीवादी व्यवस्था का व्यक्तिगत स्वामित्व और उसका अभिक्रम, समाजवादी-व्यवस्था का समाज-कल्याण और परलोकवादियों की अर्थविमुखता और त्यागमय जीवन-तीनों का एक साथ मिलन गांधीजी के ट्रस्टीशिप सिद्धांत में होता है।”[10] प्रो. वी. वेंकटराव ट्रस्टीशिप की व्यवहारिकता का प्रश्न उठाते हैं कि, “क्या ट्रस्टीशिप व्यावहारिक है? इसका उत्तर स्वंय वही देते हैं कि दृढ़ संकल्प एवं त्याग के समक्ष दुनिया में कोई चीज अव्यावहारिक नहीं है। यदि मनुष्य विचार से काम लेगा और अपनी सुख-सुविधा का त्याग करने की ओर प्रवृत्त होगा तो ट्रस्टीशिप संभव है।”[11] इससे समतामूलक समाज बनेगा।
             “अपरिग्रह ट्रस्टीशिप का पर्याय शब्द है।”[12] अपरिग्रह का अर्थ- संग्रह नहीं करना, परंतु वास्तविक अर्थ में अपने लिए पर की आवश्यकता न रखना है। परिग्रह में उपभोग है, अपरिग्रह में उपयोग। चारों ओर से परिग्रह करना ही परिग्रह है। संपत्ति की वासना सबसे बड़ी वासना है। मानव सभ्यता के विकास के साथ-साथ ज्यों-ज्यों विज्ञान और तकनीक का विकास हो रहा है, त्यों-त्यों परिग्रह और वस्तु-संग्रह की प्रवृत्ति भी बढ़ती ही जा रही है। इस प्रवृत्ति ने समाज में अनेक संकटों को जन्म दिया है, जो मानवकृत है। इस तरह ट्रस्टीशिप की कल्पना किसी स्वप्न-गगन में विहार की कल्पना मात्र नहीं, बल्कि वह तो समकालीन आर्थिक संकट का एक सैद्धान्तिक एवं व्यवहारिक विकल्प है। इसमें गीता के अपरिग्रह एवं समत्व भावना और ईषोपनिषद के तेन त्यक्तेन भूंजीथा: का समन्वय है। मनुष्य को जो साधन उपलब्ध होते हैं उनका वह दुरुपयोग न करे, सदुपयोग करना ही सभ्यता है और दुरुपयोग करना असभ्यता की निशानी है। राग और द्वेष का मुख्य कारण भोग की प्रवृत्ति है,भोग की कोई सीमा नहीं है। भोग भोगने से भोग की इच्छा और भी प्रबल होती चली जाती है। इस तरह भोग की प्रवृत्ति ही परिग्रह के लिए प्रेरित करती है।
            गांधीजी ने हरिजन सेवक में लिखा है कि, “उत्पादन का स्वरूप समाज कि जरूरत से निश्चित होगा न कि व्यक्ति की सनक या लालच से।”[13] गांधीजी ने 1946 में कहा था कि, “ट्रस्टीशिप संपत्ति के स्वामित्व एवं उपयोग के संबंध में कानून बनाने को कभी मना नहीं करता।”[14] ट्रस्टीशिप पर कानून बनाने के संबंध में गांधीजी ने अन्यत्र भी कहा है कि, “पूँजीपतियों को ट्रस्टी के रूप में परिवर्तन मात्र उनकी स्वेच्छा पर नहीं छोड़ा जाएगा। इसके  लिए आवश्यक कानून का भी सहारा लिया जाएगा। यदि वे तर्क एवं समझाने-बुझाने से भी स्वेच्छया ट्रस्टी बनने से इन्कार करते हैं तो अहिंसक असहकार के साधन का उपयोग करना ही पड़ेगा।”[15] 31 मार्च 1946 को भी गांधीजी ने कहा था कि, “यदि कल भारत स्वतंत्र हो जाता है तो सभी पूँजीपतियों को कानूनी ट्रस्टी बनने का अवसर आएगा।”[16] आजादी के बाद 1967 में सर्वप्रथम डॉ॰ राममनोहर लोहिया ने ‘indian trusteeship bill’ को संसद में रखा था, जिसमें उन्होंने 34 अनुच्छेद सम्मिलित किए, लेकिन किन्ही कारण बस पास नहीं हो पाया। 1967 में जार्ज फर्नांडीज़ ने, फिर लोहिया जी के बिल को संसद में रखा लेकिन बहस नहीं हो पाया। राज्यसभा में श्री भैरो सिंह शेखावत ने 13-12-1974 को रखा था, फिर वही विधेयक को 8-4-1975 को श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी ने रखा था। फिर 1978 को श्री अर्जुन सिंह भदोरिया ने इस बिल को प्रस्तुत किया था। इन सबके बावजूद 20 अप्रैल 1978 में डॉ॰ रामजी सिंह जी ने उसी बिल को जनता ट्रस्टीशिप बिल के नाम से प्रस्तुत किया था, कुछ सफलता भी मिली और पहली बार ट्रस्टीशिप बिल पर बहस भी हुआ। जब इस विधेयक पर संसद में निर्णायक बहस का अवसर आया तब तक संसद भंग हो गई। इस तरह आज तक यह विधेयक पास नहीं हो पाया है। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री डॉ. ई. एफ. शुमाखेर ने श्री वादी लाल भाई मेहता की पुस्तक की प्रस्तावना में लिखा है कि, “यदि भारत ट्रस्टीशिप के द्वारा समतावादी समाज के रास्ते पर बढ़े तो विश्व को एक प्रकाश दे सकता है। इस प्रकार वह अपने परंपरागत सिद्धान्तों को आधुनिक विश्व में अत्यधिक प्रगतिशील राष्ट्र के रूप में अपने को प्रस्तुत कर सकता है, साथ ही साथ अपनी प्राचीन परंपरा को भी बनाए रख सकता है।”[17] विकास के वर्तमान विषमतामूलक-प्रकृतिविरोधी दौर में समतामूलक समाज की लकीर खींचने के लिए जरुरी है कि गांधी जी के ट्रस्टीशिप सिद्धान्त पर अमल किया जाना चाहिए।















  संदर्भ-सूची
[1] आचार्य, नंदकिशोर ; संस्कृति कि सामाजिकी, वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर, 2005, पृ॰ 21
[2] सिन्हा, सच्चिदानंद ; वर्तमान विकास की सीमाएं, विकल्प प्रकाशन, मुजफ्फरपुर, 2000, पृ॰ 122
[3] दुबे, श्यामाचरण ; संक्रमण की पीड़ा, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, 1998, पृ॰ 64
[4] आचार्य, नंदकिशोर ; संस्कृति कि सामाजिकी, पृ॰ 23
[5] पटनायक, किशन; विकल्पहीन नहीं है दुनिया, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2000, पृ॰ 120 
[6] हरिजन सेवक, 25-10-1942
[7] यंग इंडिया, 6-5-1930
[8] भावे, विनोबा; सर्वोदय और स्वराज्यशास्त्र, अखिल भारतीय सर्व सेवा संघ प्रकाशन, काशी, पृ॰ 134
[9] पाण्डेय, जनार्दन; सर्वोदय का राजनीतिक दर्शन, जानकी प्रकाशन, नई दिल्ली 1986,पृ॰ 211
[10] वही,पृ॰ 181
[11] वी. वेंकटराव, ट्रस्टीशिप एंड द महात्मा, भारतीय गांधी विचार अध्ययन समिति के 14 वें अधिवेशन (सेवाग्राम) में आयोजित सम्मेलन में लेख, पृ॰ 6
[12] जैन, नेमिचन्द्र; अपरिग्रह ममत्व विसर्जन की कला, सम्यक ज्ञान प्रचारक मंडल, जिनवाणी, जयपुर, 1986, पृ॰ 106
[13] हरिजन सेवक, 25-10-1942
[14] तत्वमसि; महात्मा गांधी का ट्रस्टीशिप सिद्धान्त, राष्ट्रीय गांधी संग्रहालय एवं राधा पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली, 2003, पृ॰140
[15] वही
[16] वही
[17] मेहता, वादीलाल भाई; स्कूलवैलिसी गुरुकुल एम्पलायमेंट, भारतीय विद्या भवन, बंबई, द्वितीय, 1978, प्राक्कथन, पृ॰ 9

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