Wednesday, 3 April 2019

गांधीजी द्वारा रचित पुस्तक मंगल प्रभात नामक पुस्तक से प्राप्त शिक्षा


गांधीजी द्वारा रचित पुस्तक मंगल प्रभात नामक पुस्तक से प्राप्त शिक्षा
                                                                         डॉ. चन्दन कुमार
लेखक परिचय
लेखक का नाम- गांधीजी,
पूरा नाम- मोहन दास करम चंद गांधी
अन्य नाम- बचपन में मनु/मोनिया, राष्ट्रपिता, महात्मा, बापू, गांधीजी
जन्म एवं मृत्यु- जन्म 2 अक्तूबर, 1869 एवं मृत्य 30 जनवरी, 1948
रचित पुस्तक- हिन्द स्वराज, मंगल प्रभात, सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा, दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास, रचनात्मक कार्यक्रम उसका रहस्य और स्थान.
अनुवादित पुस्तक- सर्वोदय    
मृत्यु का कारण- हत्या (नाथु राम गोटसे द्वारा)
शिक्षा- यूनिवर्सिटी कॉलेज, लंदन (वकालत)
प्रसिद्धि कारण- भारतीय स्वतंत्रता संग्राम, सत्याग्रह, अहिंसा, शांति
राजनैतिक पार्टी- भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस
राजनीतिक गुरु- गोपालकृष्ण गोखले
पुस्तक चुनाव के कारण
गांधीजी के एकादश व्रत के बारे में बहुत सुना था, लेकिन संक्षित रूप से ही जान पाया था। बी. एड. के दौरान जब कहा गया कि साहित्य में शिक्षा को पढ़ना है तो मैंने इस अवसर का लाभ लिया और गांधी साहित्य के प्रति रुचि होने के कारण मैंने गांधीजी द्वारा रचित पुस्तक मंगल प्रभात का चयन किया और उसका अध्ययन किया।
पुस्तक चयन का औचित्यता- 
वर्तमान समय में भी यह पुस्तक प्रत्येक मनुष्य के व्यवहारिक ज्ञान को उन्नत बनाता है, आज मनुष्य भोगवादी संस्कृति में लिप्त है, उसे यह नहीं पता है कि मनुष्य होने के नैतिक मूल्य क्या है? जिसकी समाज को अत्यंत आवश्यकता है। इस मूल्य को बचाने तथा सामाजिक सौहार्द के लिए मंगल प्रभात नामक पुस्तक का अध्ययन एवं मनन अतिआवश्यक है। व्रत जहां तक धार्मिकता से जुड़ा हुआ मामला है वहीं गांधीजी ने व्रत को सामाजिक एवं प्रत्येक मनुष्य के लिए आवश्यक एवं व्यवहारिक बनाया है।     
प्रस्तावना  
मंगल प्रभात नामक पुस्तक में एकादश व्रत की चर्चा मिलती है। इस पुस्तक में गांधीजी के 1930 में यरवडा जेल में लिखित प्रवचनों को संकलित किया गया है। लिखने की वजह यह थी कि उस समय साबरमती आश्रम के जीवन में ज्यादा जान फूंकने की जरूरत थी। ऐसी मांग आश्रमवासियों ने ही की थी। कोई भी काम शुरू किया जाय तो वह बराबर होता रहना चाहिए, ऐसा गांधीजी का आग्रह होने से प्रत्येक मंगल की सुबह को प्रार्थना के बाद एक प्रवचन लिख भेजने का उन्होंने संकल्प किया। उस संकल्प का पहला फल के रूप में आश्रमों के व्रतों पर उनका भाष्य था। पहले यह व्रत विचार के नाम से छपा था। स्वदेशी व्रत को जेल से निकलने के बाद व्रत के रूप में शामिल किया गया। चूंकि गांधीजी इस प्रवचन को गुजराती में प्रत्येक मंगलवार को लिखते थे, इसलिए इस पुस्तक का नाम मंगल प्रभात रखा गया। इस पुस्तक का हिंदी अनुवाद अमृतलाल ठाकोरदास नानावटी ने की है। यह पुस्तक नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद से प्रकाशित है। इस पुस्तक में मुख्य रूप से गांधीजी ने व्रत की आवश्यकता एवं एकादश व्रत की जरूरत की व्याख्या की है। जो चीज आत्मा का धर्म है, लेकिन अज्ञान या दूसरे कारणों से आत्मा को भान नहीं रहा, उसके पालन के लिए व्रत लेने की जरूरत होती है। गांधीजी ने बताया है कि हमारे जीवन में व्रत की आवश्यकता क्यों है। इसमें उन्होंने लिखा है कि, व्रत का अर्थ अडिग निश्चय होता है। अड़चनों को पार करने के लिए ही व्रतों की आवश्यकता होती है। अड़चन बरदाश्त करते हुए भी जो टूटता नहीं, वही अडिग निश्चय माना जाता है। ऐसे निश्चय के बगैर मनुष्य लगातार ऊपर चढ़ ही नहीं सकता है। व्रत लेना कमजोर की निशानी नहीं है, बल्कि बल की निशानी है। अमुक बात करना ठीक हो तो फिर उसे करना ही है, इसका नाम है व्रत। उदाहरण के तौर पर कहते है कि सूरज बड़ा व्रतधारी है, इसलिए जगत काल तैयार होता है और शुद्ध पंचांग बनाए जा सकते हैं। दूसरा, व्यापारी एक-दूसरे से बंधे हुए न रहें, तो व्यापार चल ही नहीं सकता है।
विश्लेषण
इस पुस्तक में प्रथम व्रत के रूप में गांधीजी ने सत्य को लिया है। गांधीजी सत्य के बारे में कहते हैं कि सत्य शब्द सत से बना है। सत यानि होना, सत्य यानि हस्ती, सत्य के सिवा और किसी चीज की हस्ती ही नहीं है। परमेश्वर का सही नाम ही सत यानि सत्य है। इसलिए परमेश्वर सत्य है, ऐसा कहने के बजाए सत्य ही परमेश्वर है ऐसा कहना ज्यादा ठीक है। जहां सत्य ज्ञान है वह शुद्ध ज्ञान है। जहां सत्य नहीं है वहाँ शुद्ध ज्ञान कभी नहीं हो सकता है। विचार में, बोलने में और बरतने में सच्चाई ही सत्य है। जहां सत्य ज्ञान है वहाँ आनंद होता है; शोक, रंजोगम नहीं होता है। सत्य की भक्ति के खातिर ही हमारी हस्ती है। उसी के लिए हमारा हर एक काम, हरेक प्रवृत्ति, हरेक सांस होना चाहिए। सत्य की प्राप्ति प्रत्येक दिन के अभ्यास और वैराग से संभव है। इस तरह सत्य ही गांधीजी का ईश्वर है।
    द्वितीय व्रत के रूप में गांधीजी अहिंसा को लेते हैं। इसमें वे कहते हैं कि, अहिंसा आज हम मोटे तौर पर जो समझते हैं, सिर्फ वही नहीं है। किसी को कभी नहीं मारना, यह तो अहिंसा है ही। तमाम खराब विचार हिंसा है। जल्दबाज़ी हिंसा है। झूठ बोलना हिंसा है। द्वेष-बैर-डाह हिंसा है। किसी का बुरा चाहना हिंसा है। जिस चीज की जगत को जरूरत है उसपर कब्जा रखना भी हिंसा है। सत्य और अहिंसा का रास्ता जितना सीधा है उतना ही संकरा-तंग है। तलवार की धार पर चलने जैसा है। नट लोग जिस डोर पर एक निगाह रखकर चल सकते हैं, उससे भी सत्य, अहिंसा की डोरी ज्यादा पतली है। जरा-सी चूक हुई की नीचे गिरे। पल-पल की साधना से ही उसके दर्शन हो सकते हैं। बगैर अहिंसा के सत्य की खोज नामुमकिन है। अहिंसा और सत्य ऐसे ओतप्रोत ताने-बाने की तरह एक-दूसरे में मिले हुए हैं कि जैसे सिक्के के दो रुख या चिकनी चकती के दो पहलू। उसमें उल्टा कौन है और सीधा कौन है कह पाना मुश्किल है। फिर भी अहिंसा साधन है और सत्य साध्य है। मार्ग में चाहे जितनी भी हार होता दिखाई दे हमें सत्य और अहिंसा का रास्ता नहीं छोड़ना चाहिए। प्रेम, करुणा, दया, क्षमा अहिंसा की शक्ति है।
    तृतीय व्रत के रूप में गांधीजी ब्रह्मचर्य को लेते हैं। ब्रह्मचर्य के मूल अर्थ में बताते हैं कि  ब्रह्मचर्य यानि ब्रह्म की सत्य की खोज में चर्या यानि उसके मुताबिक आचार, व्यवहार, बर्ताव करना। ब्रह्मचर्य सिर्फ जनन-इंद्रियों का संयम करना, अधूरा अर्थ है। जिसकी सारी प्रवृत्ति, सारा काम सत्य के दर्शन के लिए है, वह बच्चे पैदा करने या घर संसार, कुटुंब-कबीला चलाने के काम में नहीं लगता है क्योंकि उसका जीवन परिवार से अलग हो जाता है। अहिंसा के पालन को लिया जाए तो उसका पूरा-पूरा पालन करना ब्रह्मचर्य के बिना नामुमकिन है। अहिंसा यानि सब जगह फैला हुआ सर्वव्यापी प्रेम। जहां पुरुष ने एक स्त्री को या स्त्री ने एक पुरुष को अपना प्रेम दे दिया, वहाँ उसके पास दूसरों के लिए कुछ नहीं बचता है। पतिव्रता स्त्री पुरुष के लिए और पत्नीव्रती पुरुष स्त्री के लिए सब कुछ क़ुरबान करने को तैयार रहने वालों के लिए यह साफ है कि उसके द्वारा सर्वव्यापी प्रेम का पालन नहीं हो सकता है। अपना माना हुआ कुटुंब जितना बढ़ता है उतना ही सर्वव्यापी प्रेम में, विश्वप्रेम में खलल पहुंचता है। इस तरह अहिंसा व्रत का पालन करने वाला आदमी शादी नहीं करता है। गांधीजी फिर कहते हैं कि फिर शादी किए हुए स्त्री-पुरुष उसका क्या, वे अहिंसा व्रत नहीं कर पाएंगे? उसका भी रास्ता देते हैं और कहते हैं कि शादीशुदा विवाहित लोग अविवाहित जैसे बन जाना चाहिए। विवाहित स्त्री-पुरुष एक दूसरे को भाई-बहन समझने लगें, तो सारे जंजाल से छुट जाते हैं। दुनिया की तमाम औरतें बहनें हैं, माताएँ हैं, बेटियाँ हैं, इस तरह के ख्याल ही आदमी को एकदम ऊंचा ले जानेवाला, बंधन से मुक्ति देने वाला बन जाता है। भोग-विलास के लिए वीर्य को गंवाना और शरीर को निचोड़ना यह बेवकूफी भरा काम है। वीर्य का उपयोग दोनों की शरीर और मन की शक्ति को बढ़ाने के लिए है। विषय-भोग के लिए उसका उपयोग करना शरीर का बड़ा दुरुपयोग है, जिसके कारण बहुत सी बीमारियों का मूल कारण बन जाता है। ब्रह्मचर्य को मन, वचन और तन से बरतने की जरूरत है। जो शरीर को काबू में रखता है, लेकिन मन से विकार को पोसता रहता है, वह मूढ़ और मिथ्याचारी है। मन को विकारवाला रहने देना और शरीर को दबाने की कोशिश करना इससे नुकसान होता है। जहां मन है वहाँ शरीर आखिर घसीटे बिना नहीं रहता है। जो व्यक्ति जनन-इंद्रियों को रोकने की ठान ले उसको तमाम इंद्रियों के विकारों को रोकने की ठान लेना चाहिए। अगर सभी इंद्रियों को एक साथ बस में लाने की आदत डाला जाए तो जनन-इंद्रियों को बस में लाने की कोशिश तुरंत सफल होगी। इस तरह शरीर में वीर्य उस दीपक के समान है यदि दीपक को जला दिया जाए तो सारे तेल समाप्त हो जाने पर दीपक बुझ जाता है, उसी प्रकार शरीर से वीर्य को यों ही बहाया जाय तो शरीर का तेज समाप्त हो जाता है।
    चतुर्थ व्रत के रूप में गांधीजी अस्वाद को रखते हैं और कहते हैं कि इस व्रत का संबंध ब्रह्मचर्य के साथ नजदीक का है। स्वाद को बड़े से बड़ा मुनिवर भी जीत नहीं सके, इसलिए इस व्रत को अलग स्थान नहीं दिया जा सका। अस्वाद यानि स्वाद का न लेना। स्वाद यानि रस या मजा। उदाहरणस्वरूप दवा खाते समय यह नहीं देखते कि वह जायकेदार है या नहीं, शरीर की जरूरत है ऐसा समझकर उसकी मात्रा में ही खाते हैं, उसी तरह अन्न को भी समझना चाहिए, अन्न यानि खाने लायक तमाम चीजें। दवा कम मात्रा में ली जाय तो असर नहीं करती, कम असर करती है या ज्यादा मात्रा में ली जाय तो नुकसान करती है। उसी तरह अन्न का भी असर होता है। कोई भी चीज सिर्फ स्वाद के लिए खाना व्रत का भंग है। किसी चीज का स्वाद बढ़ाने या बदलने के लिए या अस्वाद मिटाने के लिए उसमें नमक मिलाना भी व्रत का भंग है। लेकिन खुराक में अमुक प्रमाण में नमक की जररूरत है ऐसा हम जानते हैं और इसलिए उसमें नमक डालें तो ऐसा करने में व्रत का भंग नहीं है। शरीर के पोषण के लिए जरूरत न हो, फिर भी मन को ठगने के लिए जरूरत है, ऐसा कहकर कोई चीज और जोड़ना यह मिथ्याचार, झूठा बरताव है। एक हंडिया तेरह चीजें मांगती है, पेट बेगार करवाता है, पेट नाच नचाता है, इन वचनों का बहुत बड़ा सार छिपा हुआ है। बचपन से ही माँ-बाप गलत दुलार करके अनेक तरह के स्वाद बच्चों को कराते हैं और उनके शरीर को बिगाड़ डालते है और जीभ को कुतिया बना डालते हैं, जिससे बड़े होने पर लोग शरीर से रोगी और स्वाद की दृष्टि से बड़े विकारी देखने में आते हैं। इससे हम बहुत खर्च में पड़ जाते हैं, वैद-डाक्टरों के दरवाजे पर जाते रहते हैं और शरीर तथा इंद्रियों को बस में रखने के बजाए उनके गुलाम बनकर पंगु-अपाहिज जैसे हो जाते हैं। इस तरह अस्वाद व्रत से डरकर उसे छोड़ने की भी जरूरत नहीं है। जब हम कोई व्रत लेते हैं तो उसका मतलब यह नहीं कि तभी से हम उसे पूरा-पूरा निभाने लग जाते हैं। व्रत लेना यानि उसको पूरा-पूरा निभाने की ईमानदारी से मन, वचन और कर्म से मरने तक पक्की कोशिश करना। जो खाना पका हुआ हो और हमारे लिए तजने लायक न हो, उसे ईश्वर की कृपा समझकर, मन में भी उसकी टीका-टिप्पणी न करते हुए, संतोष के साथ शरीर के लिए जितना जरूरी हो उतना खाकर उठ जाना, ऐसा करने से मनुष्य आसानी से आस्वाद व्रत का पालन करता है। रसोई बनाने वाला स्वाद की दृष्टि से कुछ न बनाए बल्कि समाज के शरीर के पोषण की दृष्टि से बनाए। आदर्श दशा में आग की जरूरत कम से कम या बिलकुल नहीं होना चाहिए, सूरज की महाग्नि में जो चीज पकती है उन्हीं से अपने खाने लायक चीजें हमें खोज निकालना चाहिए। क्योंकि प्रकृति हमारे लिए रोज उत्पन्न करती है।
    गांधीजी ने पंचम व्रत के रूप में अस्तेय को रखा है। अस्तेय का अर्थ होता है चोरी न करना। गांधीजी का मानना है कि सभी व्रत सत्य और अहिंसा के पेट में समाए हुए हैं, अर्थात सत्य और अहिंसा को मजबूत करते हैं। चोरी का थोड़ा-बहुत कसूर हम सब जाने-अनजाने करते हैं। बगैर इजाजत के किसी का कुछ लेना यह तो चोरी है ही, लेकिन जिसे अपना माना है उसकी भी चोरी इंसान करता है, जैसे कोई पिता अपने बच्चों को नहीं जनाते हुए, उनको न जताने के इरादे से, चोरी-चुपके कोई चीज खा लेता है। एक बालक दूसरे की कलम लेता है तो वह चोरी करता है। चाहे दूसरा आदमी जानता भी हो, लेकिन उसकी इजाजत के बगैर उसकी कोई चीज लेना यह भी चोरी है। रास्ते में पड़ी मिली वस्तु के हम मालिक नहीं हैं, उस प्रदेश का राजा या तंत्र उसका मालिक है। किसी एक चीज की हमें जरूरत नहीं है, फिर भी वह जिसके कब्जे में हो उससे, चाहे उसकी इजाजत लेकर ही, लेना चोरी है। जिसकी जरूरत न हो ऐसी एक भी चीज हमें नहीं लेना चाहिए। ऐसी चोरी जगत में ज़्यादातर खाने की चीजों के बारे में होती है। इस जगत में कंगाली अस्तेय के भंग के कारण हुई है। मन से हम किसी की चीज पाने की इच्छा करें या उसपर बुरी नजर डालें यह चोरी है। बड़े हो या बच्चे हों, अच्छी देखकर अगर ललचाए तो वह मन की चोरी है। उपवास करने वाला शरीर से नहीं खाये, लेकिन दूसरे को खाते देखकर मन से स्वाद का मजा ले, तो वह चोरी करता है और अपने उपवास का भंग करता है। अमुक अच्छा विचार अपने मन में न उठा हो, फिर भी खुद ने ही सबसे पहले वह विचार किया ऐसा जो आदमी अहंकार से कहता है, वह विचार की चोरी करता है। ऐसी चोरी दुनिया के बहुत से विद्वानों ने की है आज भी जारी है। अत: अस्तेय व्रत का पालन करने वाला बहुत नम्र, विचारशील, चौकन्ना एवं सादा जीवन व्यतीत करता है।
    गांधीजी षष्ठ व्रत के रूप में अपरिग्रह को लेते हैं। अपरिग्रह का अर्थ होता है जमा न करना अर्थात धन का संचय/इकट्ठा न करना। अपरिग्रह का संबंध अस्तेय से है। सत्य की खोज करने वाला, अहिंसा का पालन करने वाला परिग्रह नहीं करता है। अमीर के यहाँ जो वस्तु नहीं चाहिए वैसी वस्तु भरी पड़ी होती है, लापरवाही से खो जाती है, खराब हो जाती है। जबकि इन्हीं वस्तु की जररूरत की कमी के कारण करोड़ों लोग भटकते हैं, भूखों मर जाते हैं, ठंड से ठिठुर जाते हैं। सभी लोग अगर अपनी-अपनी जरूरत की वस्तु का ही संग्रह करे, तो किसी को तंगी महसूस नहीं होगा और सभी को संतोष की प्राप्ति होगी। आज तो अमीर और गरीब दोनों तंगी महसूस करते हैं। करोड़पति भी अरबपति होना चाहता है, फिर भी उसको संतोष नहीं होता है। इस तरह अमीर और अमीर होना चाहता है और गरीब अमीर होना चाहता है। कंगाल को भरपेट मिलने से संतोष हो ऐसा नहीं देखा जाता है। फिर भी कंगाल को भरपेट पाने का हक है और उसे उस लायक बनाना समाज का कर्त्तव्य है। इसलिए उस गरीब के और अपने संतोष के खातिर अमीर को पहल करनी चाहिए। सच्ची सभ्यता का लक्षण परिग्रह बढ़ाना नहीं है, बल्कि सोच-समझ कर और अपनी इच्छा से उसे कम करना है। ज्यों-ज्यों परिग्रह घटता है त्यों-त्यों सच्चा सुख और सच्चा संतोष बढ़ता जाता है, सेवा की शक्ति बढ़ती है। जो आदमी अपने दिमाग में बेकार का ज्ञान भरकर रखता है वह परिग्रही है। इस तरह परिग्रह करना समाज को नुकसान ही पहुंचाना है।
    सप्तम व्रत के रूप में गांधीजी अभय को रखते है। अभय का अर्थ होता है किसी भी प्रकार का भय का नहीं होना, तमाम बाहरी भयों से मुक्ति। अर्थात सत्य के आग्रही को निडर होना चाहिए। बिना अभय के सत्य की खोज, अहिंसा का पालन नहीं हो सकता है। कायर यानि डरा हुआ, बुजदिल; शूर यानि भय से मुक्त, तलवार इत्यादि से लैस नहीं। तलवार बहादुर की निशानी नहीं है, वह डरपोक की निशानी है। मौत का डर, धन-दौलत लूट जाने का डर, कुटुंब-कबीले के बारे में डर, रोग का डर, हथियार चलाने का डर, आबरू का डर, किसी को बुरा लगने का- चोट पहुंचाने का डर। इस तरह एक मौत का भय जीत लेने के बाद सब भयों को जीता जा सकता है, ऐसा आमतौर पर कहा जाता है लेकिन यह ठीक नहीं है। बहुत से लोग मौत का डर छोड़ देते हैं, फिर भी वे तरह-तरह के दुखों से भागते हैं। कुछ लोग खुद मरने को तैयार होते हैं, लेकिन सगे-संबंधियों का बिछोह बर्दाश्त नहीं कर सकते। कोई कंजूस यह यह सब छोड़ देगा, देह भी छोड़ देगा, लेकिन जमा जमा किया हुआ धन छोड़ने से झिझकता है। सत्य की खोज करने वाले को इन सभी भयों को छोड़ने के सिवा कोई चारा नहीं है। हरिश्चंद्र की तरह बरबाद होने की तैयारी होनी चाहिए। हरिश्चंद्र की कथा भले ही मनगढ़ंत हो, लेकिन उससे सीखना और गौर करना चाहिए। निश्चय करने से लगातार कोशिश करने से और आत्मा में श्रद्धा बढ़ने से अभय की मात्रा बढ़ सकती है। हमें बाहरी भयों से मुक्ति पानी है। अंदर जो दुश्मन है उनसे तो डरकर ही चलना है। काम, क्रोध, वगैरा का भय सच्चा भय है, उससे जीत लेना बाहरी भयों की परेशानी अपने-आप मिट जाएगी। इस तरह इस जगत में मेरा या तेरा ऐसा कुछ नहीं है, फिर भय का कोई सवाल ही नहीं है।
    गांधीजी ने अष्टम व्रत के रूप में अस्पृश्यता-निवारण को रखा है। अस्पृश्यता निवारण का अर्थ होता है छुआछुत से निजात पाना। जहां-तहां धर्म के नाम पर या धर्म के बहाने धर्म के काम में रुकावट डालता है और धर्म को बिगाड़ता है। अगर आत्मा एक ही है, ईश्वर एक ही है, तो अछूत कोई नहीं। जो नफरत के कारण भंगी, ढेढ़, चमार वगैरा नाम से पहचाना जाता है, उसे जन्म से अछूत माना जाता है। भले ही वह वैष्णव की पोशाक पहनता हो, माला-कंठी धारण करता हो; भले ही वह रोज गीता-पाठ करता हो और लेखक का धंधा करता हो, तो भी वह अछूत ही माना जाता है। इस प्रकार जो धर्म माना जाता है या बढता जाता है, वह धर्म नहीं है, अधर्म है और नाश होने लायक है। अछूतपन हिन्दू धर्म का अंग नहीं है, इतना ही नहीं बल्कि वह हिन्दू धर्म में पैठी हुई एक सड़न है, वहम है, पाप है और उसे मिटाना प्रत्येक हिन्दू का धर्म है, उसका परम कर्तव्य है। सड़न का स्वभाव है कि वह पहले राई के दाने के बराबर दिखती है बाद में पहाड़ का रूप ले लेती है और अंत में जिसमें दाखिल होती है उसका नाश कर देती है। अछूतपन का भी ऐसा ही है। कुछ लोग तो छुआछूत को पालते-पालते इस पृथ्वी पर भाररूप हो गए हैं। अछूतपन मिटाना यानि तमाम जगत के साथ दोस्ती रखना, उसका सेवक बनना। इस तरह अस्पृश्यता-निवारण और अहिंसा की जोड़ी बन जाती है और सचमुच है भी। अहिंसा का अर्थ है तमाम जीवों के साथ का भेद मिटाना, अछूतपन मिटाना है।
    गांधीजी ने नवम व्रत के रूप में जात-मेहनत (शरीरश्रम) को रखा है। गांधीजी कहते हैं कि जात-मेहनत तमाम मनुष्यों के लिए लाजिमी है, यह बात पहले-पहल टालस्टाय के निबंध पढ़कर मेरे मन बैठ गया। यह बात इतनी साफ जानने के पहले भी इस पर अमल रस्किन के अंटू दिस लास्ट पढ़कर तुरंत करने लग गया था। जात-मेहनत अंग्रेजी शब्द ब्रेड लेबर का अनुवाद है। ब्रेड लेबर का शब्द के मुताबिक अनुवाद है रोटी के लिए मजदूरी। रोटी के लिए प्रत्येक मनुष्य को मजदूरी करनी चाहिए, शरीर को कमर को झुकाना चाहिए। यज्ञ किए बिना जो खाता है वह चोरी का अन्न खाता है, ऐसा कठोर शाप यज्ञ नहीं करने वाले को दिया गया है। यहाँ यज्ञ का अर्थ जात-मेहनत या रोटी-मजदूरी से गांधीजी लेते हैं। जो मजदूरी नहीं करता उसे खाने का क्या हक है? बाइबल कहती है अपनी रोटी तू अपना पसीना बहाकर कमा और खा। करोड़पति भी अगर अपने पलंग पर लोटता रहे और उसके मुंह में कोई खाना डाले तब खाए तो वह ज्यादा समय तक खा नहीं सकेगा। इसमें उसे मजा भी नहीं आएगा। इसलिए वह कसरत वगैरा करके भूख पैदा करता है और खाता तो है अपने ही हाथ-मुंह हिलाकर। अगर किसी न किसी रूप में अंगों की कसरत राजा हो या रंक सबको करनी ही पड़ती है तो रोटी पैदा करने की कसरत ही सब क्यों न करें? यह सवाल कुदरती तौर पर लाजमी है। किसान को हवाखोरी या कसरत करने के लिए कोई कहता नहीं है और दुनिया के 90 प्रतिशत से भी ज्यादा लोगों की गुजारा खेती पर होता है। बाकी के दस फीसदी लोग अगर इनकी नकल करे तो जगत में सुख, शांति और तंदुरुस्ती आ जाएगी। अगर खेती के साथ बुद्धि भी मिल जाए, तो खेती से संबंध रखने वाली बहुत सी मुसीबतें आसानी से दूर हो जाएगी। सब लोग रोजी-रोटी के लिए मजदूरी करें, तो उंच-नीच का भेद नहीं रहेगा और फिर भी धनिक वर्ग रहेगा तो वह खुद को मालिक नहीं बल्कि उस धन का रखवाला या ट्रस्टी मानेगा और उसका ज़्यादातर उपयोग सिर्फ लोगों की सेवा के लिए करेगा। जिसे अहिंसा का पालन करना है, सत्य की भक्ति करनी है, ब्रह्मचर्य को कुदरती बनाना है, उसके लिए जात-मेहनत रामबाण की तरह हो जाती है। जात-मेहनत सचमुच खेती में ही होती है, लेकिन सभी लोग खेती नहीं कर सकते हैं ऐसी स्थिति में खेती के आदर्शों को ध्यान में रखते हुए खेती के बदले कताई, बुनाई, बढ़ईगिरी, इत्यादि कर सकते हैं। एक तरह से देखें तो हम सभी भंगी है यह भावना हमारे मन में बचपन से ही जम जानी चाहिए, इसलिए जात-मेहनत का आरंभ पाखाना सफाई से आरंभ करना चाहिए। बालक, बूढ़े और बीमारी से अपंग बने हुए लोग अगर मजदूरी न करें तो उसे कोई अपवाद नहीं समझना चाहिए, यदि कुदरत के कानून को भंग नहीं किया जाए तो बूढ़े अपंग नहीं बनेंगे, उन्हें बीमारी होगी ही नहीं।
    गांधीजी ने दशम व्रत के रूप में सर्वधर्मसंभाव को रखा है। काकासाहब ने सर्वधर्म समादर शब्द को सुझाया था, लेकिन गांधीजी को पसंद नहीं आया था। गांधीजी लिखते हैं कि सभी धर्म सच्चे हैं, लेकिन सब अपूर्ण हैं, इसलिए उनमें दोष हो सकते हैं। अपने-अपने धर्म में दोष देखना चाहिए, इन दोषों के कारण धर्म को नहीं छोड़ना चाहिए , उन दोषों को मिटाने का प्रयास करना चाहिए। समभाव के तहत दूसरे धर्मों से जो कुछ लेने लायक हो उसे अपने धर्म में जगह देने में हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए। धर्मांधता में और दिव्य दर्शन में उत्तर-दक्षिण का अंतर है। धर्म का ज्ञान होने पर अड़चनें दूर होती है और समभाव पैदा होता है। यह समभाव पैदा होने पर धर्म को ज्यादा पहचानेंगे। इस तरह सभी धर्मों का आदर करते हुए उसमें कही गई अच्छी बातों का मनन करना ही सर्वधर्मसंभाव है।
    गांधीजी ने ग्यारहवाँ व्रत के रूप में स्वदेशी को रखा है। गांधीजी कहते हैं कि स्वदेशी व्रत इस युग का एक महाव्रत है। अपने पास के लोगों की सेवा में लगे रहना, ओतप्रोत होना यह स्वदेशी धर्म है। स्वदेशी की शुद्ध सेवा करते हुए परदेशी की भी शुद्ध सेवा होती है। स्वदेशी का पालन करते हुए मौत हो जाए तो भी अच्छा है, परंतु परदेशी तो खतरनाक ही है। स्वदेशी का पालन करते हुए कुटुंब की कुर्बानी भी करनी पड़ती है। लेकिन ऐसा करना पड़े तो उसमें भी कुटुंब की सेवा होनी चाहिए। जैसे खुद को कुर्बान करके हम खुद की रक्षा कर सकते हैं, उसी तरह हो सकता है कि कुटुंब को कुर्बान करके हम कुटुंब की रक्षा करते हों। गांधीजी उदाहरणस्वरूप कहते हैं कि मन लीजिए कि मेरे गाँव में महामारी फैली है, उस बीमारी में फंसे हुए लोगों की सेवा में मैं अपने को, अपनी पत्नी को, पुत्रों को और पौत्रियों को अगर लगाऊँ और उस बीमारी में फँसकर सब मौत की शरण में चले जाएँ, तो मैंने कुटुंब का नाश नहीं किया, मैंने उसकी सेवा ही की है। स्वदेशी में कोई स्वार्थ नहीं है, अगर है तो वह शुद्ध स्वार्थ है। शुद्ध स्वार्थ यानि परमार्थ शुद्ध स्वदेशी यानि परमार्थ की आखिरी हद। इस विचारधारा के आधार पर गांधीजी ने खादी में सामाजिक शुद्ध स्वदेशी धर्म को देखते हैं। अयोग्य ढंग से जो अपना अर्थ साधते हैं, उनके उस अनर्थ का अगर नाश हो, तो उससे उन्हें और जगत को लाभ होता है। अगर पड़ोसी शराब या अफीम खाना छोड़ दे तो कलाल को या अफीम के दुकानदार को नुकसान नहीं लाभ है। स्वदेशी व्रत का पालन करने वाला हमेशा अपने आसपास का निरीक्षण करता है, जहां-जहां पड़ोसियों की सेवा की जा सके, यानि जहां-जहां उनके हाथ का तैयार किया हुआ जरूरत का माल होगा वहाँ दूसरा माल छोडकर उसे लेगा। भले ही स्वदेशी चीज पहले-पहल महंगी और घटिया दर्जे की हो, व्रतधारी उसे सुधारने की कोशिश करता है। इस तरह स्वदेशी चीज खराब है इसलिए कायर बनकर परदेशी का इस्तेमाल नहीं करने लगता है। स्वदेशी धर्म जाननेवाला कुएं में डूब नहीं मरता, बल्कि प्रयास करता है। जो चीज स्वदेश में नहीं बनती या बड़ी तकलीफ से बन सकती हो, उसे परदेश के द्वेष/डाह के कारण वह अपने देश में बनाने लग जाए, तो वह स्वदेशी धर्म नहीं है। इस तरह गांधीजी स्वदेशी व्रत के द्वारा भारत को आत्मनिर्भर, पड़ोसी से प्रेम की भावना को मजबूत तथा देश की आर्थिक स्थिति को संपन्न बनाने का प्रयास किया है।
शैक्षणिक तत्व
जो सत्य ज्ञान है वह शुद्ध ज्ञान है। विचार में, बोलने में और बरतने में सच्चाई ही सत्य है। सत्य के खातिर ही हमारी हस्ती है। सत्य की प्राप्ति प्रत्येक दिन के अभ्यास और वैराग से संभव है। सत्य ही गांधीजी का ईश्वर है।
    सत्य और अहिंसा का रास्ता जितना सीधा है उतना ही संकरा-तंग है। तलवार की धार पर चलने जैसा है। नट जिस डोर पर एक निगाह रखकर चलते हैं, उससे भी सत्य, अहिंसा की डोरी ज्यादा पतली है। जरा-सी चूक हुई की नीचे गिरे। पल-पल की साधना से ही उसके दर्शन होते हैं। बगैर अहिंसा के सत्य की खोज नामुमकिन है। अहिंसा और सत्य ऐसे ओतप्रोत ताने-बाने की तरह एक-दूसरे में मिले हुए हैं कि जैसे सिक्के के दो रुख या चिकनी चकती के दो पहलू। उसमें उल्टा कौन है और सीधा कौन है कह पाना मुश्किल है। अहिंसा साधन है और सत्य साध्य है। मार्ग में चाहे जितनी भी हार होता दिखाई दे हमें सत्य और अहिंसा का रास्ता नहीं छोड़ना चाहिए। प्रेम, करुणा, दया, क्षमा अहिंसा की शक्ति है।
    ब्रह्मचर्य, ब्रह्म की सत्य की खोज में चर्या यानि उसके मुताबिक आचार, व्यवहार, बर्ताव करना। ब्रह्मचर्य सिर्फ जनन-इंद्रियों का संयम करना, अधूरा अर्थ है। जिसकी सारी प्रवृत्ति, सारा काम सत्य के दर्शन के लिए है, वह बच्चे पैदा करने या घर संसार, कुटुंब-कबीला चलाने के काम में नहीं लगता है क्योंकि उसका जीवन परिवार से अलग हो जाता है। अहिंसा के पालन को लिया जाए तो उसका पूरा-पूरा पालन करना ब्रह्मचर्य के बिना नामुमकिन है। अहिंसा यानि सब जगह फैला हुआ सर्वव्यापी प्रेम। जहां पुरुष ने एक स्त्री को या स्त्री ने एक पुरुष को अपना प्रेम दे दिया, वहाँ उसके पास दूसरों के लिए कुछ नहीं बचता है। पतिव्रता स्त्री पुरुष के लिए और पत्नीव्रती पुरुष स्त्री के लिए सब कुछ क़ुरबान करने को तैयार रहने वालों के लिए यह साफ है कि उसके द्वारा सर्वव्यापी प्रेम का पालन नहीं हो सकता है। अपना माना हुआ कुटुंब जितना बढ़ता है उतना ही सर्वव्यापी प्रेम में, विश्वप्रेम में खलल पहुंचता है। इस तरह अहिंसा व्रत का पालन करने वाला आदमी शादी नहीं करता है। शादी किए हुए स्त्री-पुरुष उसका क्या, वे अहिंसा व्रत नहीं कर पाएंगे? उसका भी रास्ता देते हैं और कहते हैं कि शादीशुदा विवाहित लोग अविवाहित जैसे बन जाना चाहिए। विवाहित स्त्री-पुरुष एक दूसरे को भाई-बहन समझने लगें, तो सारे जंजाल से छुट जाते हैं। दुनिया की तमाम औरतें बहनें हैं, माताएँ हैं, बेटियाँ हैं, इस तरह के ख्याल ही आदमी को एकदम ऊंचा ले जानेवाला, बंधन से मुक्ति देने वाला बन जाता है। भोग-विलास के लिए वीर्य को गंवाना और शरीर को निचोड़ना यह बेवकूफी भरा काम है। वीर्य का उपयोग दोनों की शरीर और मन की शक्ति को बढ़ाने के लिए है। विषय-भोग के लिए उसका उपयोग करना शरीर का बड़ा दुरुपयोग है, जिसके कारण बहुत सी बीमारियों का मूल कारण बन जाता है। ब्रह्मचर्य को मन, वचन और तन से बरतने की जरूरत है। जो शरीर को काबू में रखता है, लेकिन मन से विकार को पोसता रहता है, वह मूढ़ और मिथ्याचारी है। मन को विकारवाला रहने देना और शरीर को दबाने की कोशिश करना इससे नुकसान होता है। जहां मन है वहाँ शरीर आखिर घसीटे बिना नहीं रहता है। जो व्यक्ति जनन-इंद्रियों को रोकने की ठान ले उसको तमाम इंद्रियों के विकारों को रोकने की ठान लेना चाहिए। अगर सभी इंद्रियों को एक साथ बस में लाने की आदत डाला जाए तो जनन-इंद्रियों को बस में लाने की कोशिश तुरंत सफल होगी। इस तरह शरीर में वीर्य उस दीपक के समान है यदि दीपक को जला दिया जाए तो सारे तेल समाप्त हो जाने पर दीपक बुझ जाता है, उसी प्रकार शरीर से वीर्य को यों ही बहाया जाय तो शरीर का तेज समाप्त हो जाता है।
    स्वाद को बड़े से बड़ा मुनिवर भी जीत नहीं सके। अस्वाद यानि स्वाद का न लेना। स्वाद यानि रस या मजा। उदाहरणस्वरूप दवा खाते समय यह नहीं देखते कि वह जायकेदार है या नहीं, शरीर की जरूरत है ऐसा समझकर उसकी मात्रा में ही खाते हैं, उसी तरह अन्न को भी समझना चाहिए, अन्न यानि खाने लायक तमाम चीजें। दवा कम मात्रा में ली जाय तो असर नहीं करती, कम असर करती है या ज्यादा मात्रा में ली जाय तो नुकसान करती है। उसी तरह अन्न का भी असर होता है। कोई भी चीज सिर्फ स्वाद के लिए खाना व्रत का भंग है। किसी चीज का स्वाद बढ़ाने या बदलने के लिए या अस्वाद मिटाने के लिए उसमें नमक मिलाना भी व्रत का भंग है। लेकिन खुराक में अमुक प्रमाण में नमक की जररूरत है ऐसा हम जानते हैं और इसलिए उसमें नमक डालें तो ऐसा करने में व्रत का भंग नहीं है। एक हंडिया तेरह चीजें मांगती है, पेट बेगार करवाता है, पेट नाच नचाता है, इन वचनों का बहुत बड़ा सार छिपा हुआ है। बचपन से ही माँ-बाप गलत दुलार करके अनेक तरह के स्वाद बच्चों को कराते हैं और उनके शरीर को बिगाड़ डालते है और जीभ को कुतिया बना डालते हैं, जिससे बड़े होने पर लोग शरीर से रोगी और स्वाद की दृष्टि से बड़े विकारी देखने में आते हैं। इससे हम बहुत खर्च में पड़ जाते हैं, वैद-डाक्टरों के दरवाजे पर जाते रहते हैं और शरीर तथा इंद्रियों को बस में रखने के बजाए उनके गुलाम बनकर पंगु-अपाहिज जैसे हो जाते हैं।
    चोरी का थोड़ा-बहुत कसूर हम सब जाने-अनजाने करते हैं। बगैर इजाजत के किसी का कुछ लेना यह तो चोरी है ही, लेकिन जिसे अपना माना है उसकी भी चोरी इंसान करता है, जैसे कोई पिता अपने बच्चों को नहीं जनाते हुए, उनको न जताने के इरादे से, चोरी-चुपके कोई चीज खा लेता है। एक बालक दूसरे की कलम लेता है तो वह चोरी करता है। चाहे दूसरा आदमी जानता भी हो, लेकिन उसकी इजाजत के बगैर उसकी कोई चीज लेना यह भी चोरी है। रास्ते में पड़ी मिली वस्तु के हम मालिक नहीं हैं, उस प्रदेश का राजा या तंत्र उसका मालिक है। किसी एक चीज की हमें जरूरत नहीं है, फिर भी वह जिसके कब्जे में हो उससे, चाहे उसकी इजाजत लेकर ही, लेना चोरी है। जिसकी जरूरत न हो ऐसी एक भी चीज हमें नहीं लेना चाहिए। ऐसी चोरी जगत में ज़्यादातर खाने की चीजों के बारे में होती है। इस जगत में कंगाली अस्तेय के भंग के कारण हुई है। मन से हम किसी की चीज पाने की इच्छा करें या उसपर बुरी नजर डालें यह चोरी है। बड़े हो या बच्चे हों, अच्छी देखकर अगर ललचाए तो वह मन की चोरी है। उपवास करने वाला शरीर से नहीं खाये, लेकिन दूसरे को खाते देखकर मन से स्वाद का मजा ले, तो वह चोरी करता है और अपने उपवास का भंग करता है।
    सत्य की खोज करने वाला, अहिंसा का पालन करने वाला परिग्रह नहीं करता है। अमीर के यहाँ जो वस्तु नहीं चाहिए वैसी वस्तु भरी पड़ी होती है, लापरवाही से खो जाती है, खराब हो जाती है। जबकि इन्हीं वस्तु की जररूरत की कमी के कारण करोड़ों लोग भटकते हैं, भूखों मर जाते हैं, ठंड से ठिठुर जाते हैं। सभी लोग अगर अपनी-अपनी जरूरत की वस्तु का ही संग्रह करे, तो किसी को तंगी महसूस नहीं होगा और सभी को संतोष की प्राप्ति होगी। आज तो अमीर और गरीब दोनों तंगी महसूस करते हैं। करोड़पति भी अरबपति होना चाहता है, फिर भी उसको संतोष नहीं होता है। इस तरह अमीर और अमीर होना चाहता है और गरीब अमीर होना चाहता है। कंगाल को भरपेट मिलने से संतोष हो ऐसा नहीं देखा जाता है। फिर भी कंगाल को भरपेट पाने का हक है और उसे उस लायक बनाना समाज का कर्त्तव्य है। इसलिए उस गरीब के और अपने संतोष के खातिर अमीर को पहल करनी चाहिए। सच्ची सभ्यता का लक्षण परिग्रह बढ़ाना नहीं है, बल्कि सोच-समझ कर और अपनी इच्छा से उसे कम करना है।
    बिना अभय के सत्य की खोज, अहिंसा का पालन नहीं हो सकता है। कायर यानि डरा हुआ, बुजदिल; शूर यानि भय से मुक्त, तलवार इत्यादि से लैस नहीं। तलवार बहादुर की निशानी नहीं है, वह डरपोक की निशानी है। मौत का डर, धन-दौलत लूट जाने का डर, कुटुंब-कबीले के बारे में डर, रोग का डर, हथियार चलाने का डर, आबरू का डर, किसी को बुरा लगने का- चोट पहुंचाने का डर। इस तरह एक मौत का भय जीत लेने के बाद सब भयों को जीता जा सकता है, ऐसा आमतौर पर कहा जाता है लेकिन यह ठीक नहीं है। बहुत से लोग मौत का डर छोड़ देते हैं, फिर भी वे तरह-तरह के दुखों से भागते हैं। कुछ लोग खुद मरने को तैयार होते हैं, लेकिन सगे-संबंधियों का बिछोह बर्दाश्त नहीं कर सकते। कोई कंजूस यह यह सब छोड़ देगा, देह भी छोड़ देगा, लेकिन जमा जमा किया हुआ धन छोड़ने से झिझकता है। सत्य की खोज करने वाले को इन सभी भयों को छोड़ने के सिवा कोई चारा नहीं है। हरिश्चंद्र की तरह बरबाद होने की तैयारी होनी चाहिए।
    अगर आत्मा एक ही है, ईश्वर एक ही है, तो अछूत कोई नहीं। जो नफरत के कारण भंगी, ढेढ़, चमार वगैरा नाम से पहचाना जाता है, उसे जन्म से अछूत माना जाता है। भले ही वह वैष्णव की पोशाक पहनता हो, माला-कंठी धारण करता हो; भले ही वह रोज गीता-पाठ करता हो और लेखक का धंधा करता हो, तो भी वह अछूत ही माना जाता है। इस प्रकार जो धर्म माना जाता है या बढता जाता है, वह धर्म नहीं है, अधर्म है और नाश होने लायक है। अछूतपन हिन्दू धर्म का अंग नहीं है, इतना ही नहीं बल्कि वह हिन्दू धर्म में पैठी हुई एक सड़न है, वहम है, पाप है और उसे मिटाना प्रत्येक हिन्दू का धर्म है, उसका परम कर्तव्य है। सड़न का स्वभाव है कि वह पहले राई के दाने के बराबर दिखती है बाद में पहाड़ का रूप ले लेती है और अंत में जिसमें दाखिल होती है उसका नाश कर देती है।
    रोटी के लिए प्रत्येक मनुष्य को मजदूरी करनी चाहिए, शरीर को कमर को झुकाना चाहिए। यज्ञ किए बिना जो खाता है वह चोरी का अन्न खाता है, ऐसा कठोर शाप यज्ञ नहीं करने वाले को दिया गया है। यहाँ यज्ञ का अर्थ जात-मेहनत या रोटी-मजदूरी से गांधीजी लेते हैं। जो मजदूरी नहीं करता उसे खाने का क्या हक है? बाइबल कहती है अपनी रोटी तू अपना पसीना बहाकर कमा और खा। करोड़पति भी अगर अपने पलंग पर लोटता रहे और उसके मुंह में कोई खाना डाले तब खाए तो वह ज्यादा समय तक खा नहीं सकेगा। इसमें उसे मजा भी नहीं आएगा। इसलिए वह कसरत वगैरा करके भूख पैदा करता है और खाता तो है अपने ही हाथ-मुंह हिलाकर। अगर किसी न किसी रूप में अंगों की कसरत राजा हो या रंक सबको करनी ही पड़ती है तो रोटी पैदा करने की कसरत करना चाहिए।
    सभी धर्म सच्चे हैं, लेकिन सब अपूर्ण हैं, इसलिए उनमें दोष हो सकते हैं। अपने-अपने धर्म में दोष देखना चाहिए, इन दोषों के कारण धर्म को नहीं छोड़ना चाहिए , उन दोषों को मिटाने का प्रयास करना चाहिए। समभाव के तहत दूसरे धर्मों से जो कुछ लेने लायक हो उसे अपने धर्म में जगह देने में हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए। धर्मांधता में और दिव्य दर्शन में उत्तर-दक्षिण का अंतर है। धर्म का ज्ञान होने पर अड़चनें दूर होती है और समभाव पैदा होता है। यह समभाव पैदा होने पर धर्म को ज्यादा पहचानेंगे। इस तरह सभी धर्मों का आदर करते हुए उसमें कही गई अच्छी बातों का मनन करना चाहिए।
    अपने पास के लोगों की सेवा में लगे रहना, ओतप्रोत होना स्वदेशी धर्म है। स्वदेशी की शुद्ध सेवा करते हुए परदेशी की भी शुद्ध सेवा होती है। स्वदेशी का पालन करते हुए मौत हो जाए तो भी अच्छा है, परंतु परदेशी तो खतरनाक ही है। स्वदेशी का पालन करते हुए कुटुंब की कुर्बानी भी करनी पड़ती है। लेकिन ऐसा करना पड़े तो उसमें भी कुटुंब की सेवा होनी चाहिए। अगर पड़ोसी शराब या अफीम खाना छोड़ दे तो कलाल को या अफीम के दुकानदार को नुकसान नहीं लाभ है। स्वदेशी व्रत का पालन करने वाला हमेशा अपने आसपास का निरीक्षण करता है, जहां-जहां पड़ोसियों की सेवा की जा सके, यानि जहां-जहां उनके हाथ का तैयार किया हुआ जरूरत का माल होगा वहाँ दूसरा माल छोड़कर उसे लेगा। भले ही स्वदेशी चीज पहले-पहल महंगी और घटिया दर्जे की हो, व्रतधारी उसे सुधारने की कोशिश करता है। इस तरह स्वदेशी चीज खराब है इसलिए कायर बनकर परदेशी का इस्तेमाल नहीं करने लगता है। जो चीज स्वदेश में नहीं बनती या बड़ी तकलीफ से बन सकती हो, उसे परदेश के द्वेष/डाह के कारण वह अपने देश में बनाने लग जाए, तो वह स्वदेशी धर्म नहीं है।
निष्कर्ष    
इस तरह गांधीजी मंगल प्रभात पुस्तक द्वारा व्यक्ति को मूल्य की शिक्षा प्रदान करते हुए व्यवहारिक सामाजिक प्राणी बनाते है। हम देखते हैं कि समाज में घृणा, असमानता, हिंसा, चोरी, डर, परिग्रह, सांप्रदायिकता, द्वेष, पड़ोसी से नफरत व्याप्त है। इसको जड़ से उखाड़ फेकने के लिए मंगल प्रभात में दिए गए एकादश व्रत का पालन सभी मनुष्यों के लिए अति आवश्यक बन जाता है। गांधीजी व्रत लेने की जरूरत पर मानते हैं कि व्रत की जरूरत हमें इसलिए होती है कि उसपर हम अडिग हो जाते है। इस तरह का निर्णय किसी भी कीमत पर नहीं टूटता है। हमारे पास कई प्रकार के ऐसे मौके आते हैं जो हमें विचलित कर देते हैं, लेकिन हमारा दृढ़ निर्णय कभी विचिल नहीं करता है। वास्तव में गांधीजी का एकादश व्रत पूरी मानव जाति के लिए आवश्यक व्रत है जो समाज में समरसता लाने में काफी हद तक कारगर साबित हो सकता है।

संपर्क: महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा. मो. नं.- 7972995751    
                                                    

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