भारतीय समाज नामक पुस्तक श्यामाचरण दुबे द्वारा लिखित पुस्तक है। इसका अनुवाद
वंदना मिश्र ने की है। इस पुस्तक में कुल आठ अध्याय हैं। प्रथम अध्याय भारतीय समाज
का निर्माण से है। इस अध्याय में लेखक ने भारतीय समाज के निर्माण की पृष्ठभूमि पर
विस्तार से चर्चा की है। भारतीय समाज अत्यंत ही प्राचीन एवं जटिलताओं से भरा हुआ समाज
रहा है। प्रचलित अनुमान के अनुसार लगभग पाँच हजार वर्षों की अवधि आज के भारतीय
समाज निर्माण में लगी है। इस लंबी अवधि में विभिन्न प्रजातीय लक्षणों वाले तथा
विविध भाषा समुदायों के अप्रवासियों की कई लहरों ने यहाँ की भूमि और वातावरण को
सिंचित करने का काम किया है। लिखित वर्णन नहीं होने के कारण प्राचीनतम निवासियों
की पहचान करना कठिन है। कारण यह भी है कि उस समय लिपि का आविष्कार नहीं हो पाया
था। बी.एस.गुहा ने भारत की जनसंख्या में छ: मुख्य प्रजातीय तत्वों की पहचान की है
जिसमें नेग्रिटों, प्रोटो-आस्ट्रलायड,
मंगोलायड, भूमध्यसागरीय (मेडीटरेनियन),
पश्चिमी लघुशिरस्क (वेस्टर्न ब्रैसिसिफल) तथा नोर्डिक है। प्रथम तीन इस उपमहाद्वीप
के पुराने निवासी रहे हैं। जनसंख्या की दृष्टि से प्रोटो-आस्ट्रलायड समूह की
बहुलता अधिक थीं। मध्य भारत की अधिकतर जनजातियां इसी समूह की है। इन्हीं लोगों को
भारतीय आर्यों ने अनस, दास, दास्यु और
निषाद कहा है। सिंधु घाटी की सभ्यता आर्यों एवं भारत के आर्य पूर्व निवासियों की
संयुक्त कृति थी। इंडो-आर्य यहाँ बाद में आए थे और प्राचीन निवासियों के साथ उनकी
लंबी मुठभेड़ हुई थी। इंडो-आर्य तीन समूहों में विभाजित थे- राजन्य (क्षत्रिय), ब्राह्मण तथा वैश्य। ब्राह्मणों ने राजा को देवत्व प्रदान करने का अधिकार
प्राप्त कर अपनी स्थिति ऊंची कर ली थी। शूद्र चतुर्थ वर्ण के थे। ये इंडो-आर्य
समूह से बाहर थे। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ये तीनों
द्विज कहलाते थे अर्थात दो बार जन्म लेने वाला। शूद्र को द्विज का दर्जा प्राप्त
नहीं था। द्विज और शूद्र के बीच किसी भी तरह का शारीरिक संपर्क समाज में वर्जित
था।
भारतीय
समाज के अधिकतर सामान्य विवरणों में उत्तर-पूर्व के विषय का उल्लेख बहुत ही कम
मिलता है। उत्तर-पूर्व के मंगोल समूहों ने कुछ हद तक अपनी जनजातीय पहचान सुरक्षित रखा।
अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मिजोरम और
नागालैंड जैसे राज्यों के गठन से पूर्व यहाँ अनेक नृजातीय समूहों तथा वैविध्यपूर्ण
संस्कृतियों का घर था। बोड़ो या बोरो असम के जनजातीय समूह है।
हिन्दू
धर्म की उत्पत्ति विविध साहित्यिक स्त्रोतों से हुई है जिनमें वेद, आरण्यक, उपनिषद,
श्रौत, गृहय और धर्म सूत्र शामिल हैं। हिन्दू धर्म का विकास
पर्याप्त संघर्ष और बहुत ही अनुकूलन एवं समझौते की दोहरी प्रक्रियाओं से हुआ है।
हिन्दू शब्द आठवीं शताब्दी के आस-पास आए आक्रमणकारी अरबों द्वारा सिंधु के पार
रहने वाले लोगों के लिए गढ़ा गया शब्द है। उस समय इस शब्द का कोई धार्मिक अर्थ नहीं
था। हिन्दू धर्म में कई प्रकार के तांत्रिक संप्रदाय विकसित हुए। जैन और बौद्ध
धर्म की उत्पत्ति हिन्दू धर्म से असहमति के कारण हुआ। भारत में ईसाई धर्म पहले आया
लेकिन इस्लाम धर्म ने समाज पर व्यापक प्रभाव डाला। दोनों धर्म ने यहाँ शांति
पूर्वक प्रवेश जरूर किया था लेकिन बाद में शासकों के समर्थन से फलने-फूलने का मौका
मिला। माना जाता है कि सेंट थामस और उनके समकालीन सेंट बार्थोंलोम्यू ने ईसाई धर्म
को भारत में लाया था।
भारत
पर अनेक विदेशियों ने हमला कर अपना शासन स्थापित किया था। 712 ईसवीं में मुहम्मद
बिन कासिम ने सिंध पर विजय प्राप्त की थी तथा भड़ौच,
गुजरात और मालवा पर चढ़ाई का प्रयास किया था। 997-1030 में महमूद गजनवी (तुर्की
मूल) के हमले हुए और लूट-पाट किया। 1192 में मुहम्मद गौरी (तुर्की अफगान) ने
पृथ्वीराज चौहान को पराजित किया था। 1206 में तुर्की अफगान कुतुबुद्दीन ऐबक ने
गुलाम वंश की स्थापना की थी। 1296 से 1316 तक अलाउद्दीन खिलजी का शासन था। 1325 से
1351 तक मुहम्मद बिन तुगलक (तुर्की मूल) का शासन था। 1414 से 1450 तक दिल्ली में
सैयादों का शासन (पहला सैयद सुल्तान तैमूर द्वारा मनोनीत) था। 1451 में बहलुल लोदी
(अफगान मूल) की चढ़ाई (लोदीयों ने 1526 तक शासन किया), 1526
में पानीपत की पहली लड़ाई और बाबर द्वारा मुगल साम्राज्य की स्थापना की थी। गजनवी
के भारत पर आक्रमण किए जाने तक प्रचलित देश की सामाजिक व राजनीतिक स्थितियों में
काफी बदलाव आ गया था। दूसरी तरफ प्रतिद्वंद्वी राज्यों की आपसी लड़ाइयों ने भारतीय
प्रतिरोध को कमजोर किया था। अकबर जैसे शासकों ने विभिन्न समुदायों के बीच सेतु
बनाने का काम किया था। धीरे-धीरे एक संयुक्त संस्कृति का निर्माण हुआ था।
मध्य
एशिया से आने वाले विदेशियों के अतिरिक्त अन्य विदेशी शक्तियां भी भारत में आयी
थीं। पुर्तगाली 1499 में नौसैनिक शक्ति के रूप में भारतीय समुद्र में प्रविष्ट हुए
थे। सत्रहवीं शताब्दी के प्रारंभ में एक के बाद एक डच और अंग्रेज आए थे। कुछ समय
बाद फ्रांसीसी आए। अंग्रेजों ने स्वयं को भारत में स्थापित कर लिया और 14 अगस्त
1947 तक यहाँ बने रहे। अंग्रेजों ने अपने प्रति निष्ठावान व्यक्तियों का एक स्थायी
समूह सुनिश्चित करने के लिए भूस्वामी आभिजात्य वर्ग तथा प्रशासनिक सेवा के मध्य और
निम्न पद सोपान खड़ा किया था। अपने लोगों को खुश करने के लिए उपाधियों, खिताबों, सम्मानों और सनदों की एक जटिल
व्यवस्था का निर्माण किया था। अंग्रेजों ने ठगी एवं सती जैसी प्रथा को खत्म करने
के लिए हस्तक्षेप किया था। अंग्रेजों ने अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त निष्ठावान लोगों
को तैयार सेवक के रूप में किया था लेकिन ये ही ब्रिटिश हुकूमत के लिए फांसी का
फंदा बन गया और स्वतन्त्रता के लिए उठ खड़े हुए थे।
द्वितीय
अध्याय विविधता और एकता से संबंधित है। विविधता में एकता घिसा-पिटा मुहावरा
भारत की पहचान बन गया है। भारत विभाजन से सिंधु घाटी सभ्यता के अधिकांश प्रसिद्ध
केंद्र पाकिस्तान में चले गए। विविधता के स्त्रोत में नृजातीय (एथनिक) मूल, धर्म और भाषाएँ आते हैं। मुख्य प्रजातीय तत्व कुल छ्ह हैं।
भारतीय आबादी का बड़ा हिस्सा विविध अंशों में प्रजातीय अधिमिश्रण का उदाहरण है।
भारत में आठ मुख्य धार्मिक समुदाय हैं। प्रत्येक मुख्य धर्म धार्मिक सिद्धांतों, संप्रदायों और पंथों के आधार पर उपविभाजित हैं। कई मूल धर्मों के लोगों
ने अपनी सुविधानुसार धर्म का परिवर्तन भी किया है। संप्रदाय और पंथ के कारण कई धर्मों
में जटिलता बढ़ गयी है। फिर भी एकता का सूत्र अतीत और वर्तमान को जोड़ता है। यह
सूत्र जातीय और सांस्कृतिक विविधता का प्रतिनिधित्व करने वाले विविध भागों को भी
जोड़ता है। सभी धर्मों के लोगों में असहमति के बावजूद भी मनुष्यता से प्रेम की
भावना को बरकरार रखे हुए हैं। कुछ समस्याएँ पिछले कुछ दशकों में उत्पन्न हुई है
फिर भी भारतीय समाज उन चुनौतियों से संघर्ष करते हुए भी एकता बनाए हुए हैं।
तृतीय
अध्याय वर्ण और जाति से है। लेखक ने भारत की चार जातियों वाली व्यवस्था को
बहुत ही भ्रामक बताया है। भारत में जातियां असंख्य हैं, जिनमें से कुछ का वर्गिकरण तथा स्थिति बहुत ही अस्पष्ट तरीके
से परिभाषित कर आधा-अधूरा छोड़ दिया गया है। भारतियों की पहचान कई प्रकार से होती
है। अन्य स्थितियों में यहाँ के लोगों को अपनी जाति, गोत्र
और कुल का विवरण देना पड़ता है। पूरे वर्ण अथवा एक समान नाम वाले जाति समुच्चय अपने
समूह के भीतर विवाह करते हैं या गोत्र जाति का अपने समूह से बाहर विवाह करने की
व्यवस्था है। गोत्र सुदूर अतीत के समान पूर्वज की ओर इंगित करता है। लेखक का मानना
है कि हिंदू सामाजिक व्यवस्था में वर्ण केवल संदर्भ के काम आने वाला ही वर्ग है।
इसकी सामाजिक संरचना में सक्रिय इकाई नहीं होती है। यह विभिन्न जातियों की जन्मना
प्राप्त प्रस्थिति के बारे में सिर्फ जानकारी देता है। यह वर्गिकरण का काम करती
है। वर्ण के भीतर समान जन्मना अनुष्ठानिक परस्थिति वाली अनेक जातियां एक साथ
समूहबद्ध होती हैं तथा समाज में स्तर भी निर्धारित है। चौथा स्तर शूद्र के अंतर्गत
दस्तकारों और व्यवसाय विशेष में दक्ष जातियों की हैं, जो
स्वच्छ एवं साफ-सुथरे कामों में लगे हुए हैं। यहीं तक ही वर्ण हैं। लेकिन इसी में
एक पांचवा स्तर भी है जिसमें वे सारे आते है जिसके बारे में माना जाता है कि वे
अपवित्र या अस्वच्छ पेशों में लगे रहते हैं। इस स्तर की जातियों को अछूत/अस्पृश्य
कहा जाता है। संविधान के जरिये अस्पृश्यता उन्मूलन हुआ है लेकिन व्यवहार में यह
प्रथा देश के लगभग सभी भागों में विद्यमान है। अनुसूचित जातियां अंत्यज जिन्हें
गांधीजी ने हरिजन कहा है, जो वर्तमान में स्वयं को दलित
मानती है। इस तरह पाँच स्तर पर जातियों की बड़ी संख्या वर्गीकृत तथा समूहीकृत है।
जाति
की विलक्षणता पर विस्तृत चर्चा से स्पष्ट होता है कि ये वर्ण से सीधे संबंधित है
और ये सिद्धान्त जातियों की उत्पत्ति की नहीं वर्णों की उत्पत्ति की व्याख्या करता
है। भारत की जाति व्यवस्था की देश और विदेशों में बहुत आलोचना भी हुई है। भारतीय
चर्च भी स्वीकार करता है कि इसाइयों में भी भेदभावपूर्ण व्यवस्था है। नीची जातियों
से ईसाई बनने वालों के विवाह और अंतिम संस्कार के जुलूस मुख्य बस्ती मार्गों से
नहीं गुजरते हैं। अब ऐसा नहीं है। मुसलमानों में नमाज अदा करने के लिए मस्जिदों
में प्रवेश पर कोई प्रतिबंध नहीं है इसमें अछूत प्रथा स्पष्ट नहीं है। लेकिन
सामाजिक अंत:क्रिया में वर्ण तथा जाति जैसे विभेद हैं।
इस
तरह भारतीय समाज में वर्ण और जाति की धारणाओं की पकड़ ऐसी है कि उसने अपने धर्म से
आगे निकलकर अन्य धर्मों में भी अपनी जकड़ बना ली है। जाति और वर्ण भारतीय समाज के
सभी हिस्सों में मिलता है। वर्ण और जाति के राजनीतिकरण से निम्नतर जातियों पर
भांति-भांति के अत्याचार जारी हैं। कुछ क्षेत्रों में कमी देखने को मिलता है।
चतुर्थ
अध्याय परिवार तथा नातेदारी व्यवस्था पर आधारित है। इस अध्याय में लेखक ने
परिवार तथा नातेदारी के व्यापक संबंधों के रूपों तथा प्रकार्यों पर चर्चा की है।
परिवार द्योतक होता है एक सार्वभौमिक, स्थायी
तथा व्यापक संस्था का जिसकी विशेषता सामाजिक दृष्टि से अनुमत यौन संबंध तथा प्रजनन, समान घर, आवास और घरेलू सेवाएं तथा आर्थिक सहयोग पर
निर्भर । लेकिन यहीं से कठिनाई भी शुरू होती है। प्राचीन काल में नियोग व्यवस्था
के तहत प्रचलन था कि स्त्री अपने पति के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति के साथ यौन
संबंध स्थापित कर सकता है। नायरों में ताली संस्कार के माध्यम से अनेक पुरुष एक
स्त्री से यौन संपर्क बना सकते थे। स्त्री पर यौन अधिकार प्राप्त करने के लिए गले
में लाकेट एवं जंजीर (गले के लिए) बांधा जाता था, ये अधिकार
उच्चतर जाति के वैसे सदस्य को मिलता था जो उस स्त्री की ओर आकृष्ट होता था तथा उस
स्त्री को स्वीकार्य होता था।
भारतीय
समाज में परिवार के रूपों में बहुत ही विविधता है। भारत के अधिकतर समुदायों में
वंशनाम पिता की परंपरा में तलाशा जाता है। जनजातियों, हिंदुओं और मुसलमानों के बीच बहुपत्नी प्रथा का व्यापक चलन
था। हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के तहत हिंदुओं से एक विवाह का प्रचालन शुरू हुआ।
मुस्लिम पर्सनल ला एक संवेदनशील मुद्दा है। अनेक मुस्लिम देशों ने बहुपत्नी प्रथा
के उन्मूलन के लिए कानून बनाए हैं।
इस
तरह विवाह के परिणामस्वरूप ही परिवार अस्तित्व में आते हैं एवं विवाह के जरिए ही
आगे बढ़ता है। अनुलोम विवाह एक निम्नतर जाति की स्त्री के एक उच्चतर जाति के पुरुष
से विवाह की अनुमति देता है। प्रतिलोम विवाहों में उच्च जाति की स्त्री निम्नतर
जाति के पुरुष से विवाह कर सकती है। मुसलमानों एवं ईसायों में जाति को औपचारिक
मान्यता नहीं दी गयी है। सैद्धान्तिक दृष्टि से कोई मुसलमान किसी भी मुसलमान से
विवाह कर सकता है। यही स्थिति इसाइयों में भी पायी जाती है। यह भी देखा जाता है कि
धर्मांतरित व्यक्तियों ने अपनी मूल जाति को भुलाया नहीं है। हिंदू अपने गोत्र के
भीतर विवाह नहीं करते हैं। हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के अनुसार पिता के पक्ष से
पाँच पीढ़ियों के भीतर तथा माता के पक्ष से तीन पीढ़ियों के भीतर तक संबंधित दो
व्यक्तियों का विवाह नहीं हो सकता है। हिंदू विवाह अधिनियम 1955 विवाह विच्छेद को
स्वीकार करता है। मुस्लिम विवाह अधिनियम 1939 में नौ आधार का होना जरूरी माना गया है
जिसके कारण कोई स्त्री अपना विवाह खत्म कर सकती है। ईसाइयों पर भारतीय विवाह
विच्छेद अधिनियम 1869 लागू होता है। वर्तमान कानून के अंतर्गत विधवाओं तथा
तलाक़शुदा स्त्रियों के पुनर्विवाह को सभी समुदायों में लगभग अब मान्य माना गया है।
उत्तराधिकार
विरासत के कानून जटिल हैं। इसको व्यापक स्तर पर समझने के लिए पवित्र धर्मग्रंथों
तथा धार्मिक संहिताओं इत्यादि की भूलभुलैया से गुजरना पड़ता है। हिंदुओं (बौद्धों, जैनों तथा सिखों सहित) में उत्तराधिकार तथा विरासत के मामले
तीन भिन्न क़ानूनों-मिताक्षरा, दाय भाग तथा मरूमक्कट्टयम
कानून से संचालित होते हैं। आदिवासी अपने प्रथागत कानून को मानते हैं। मुसलमानों
में शरीयत के अनुसार स्त्री को उसी कोटि के पुरुष वारिस के मुक़ाबले आधा हिस्सा
मिलता है। दक्षिण भारत के कुछ ईसाई समुदायों में पिता की संपत्ति में स्त्री का
हिस्सा एक चौथाई अथवा पाँच हजार रुपये जो भी कम हो मान्य है। इन सब कार्यों के लिए
कानूनी मदद लेना आसान नहीं है, क्योंकि न्यायिक प्रक्रिया
खर्चीली है। विवाह के संबंध में अब भारत में क्षेत्र, धर्म
पंथ और जाति के अवरोध टूट रहे हैं। जीवन साथी चुनने में कुछ स्वतन्त्रता आई है।
विवाह की आयु बढ़ी है, साथ ही साथ तड़क-भड़क और आडंबर बढ़ा है
तथा दहेज का चुंगल व्याप्त है।
पंचम अध्याय ग्रामीण तथा नगरीय विषय से है। इस अध्याय में लेखक ने ग्रामीण तथा नगरीय
व्यवस्था को दिखाने का प्रयास किया है। सामाजिक संरचना की मुख्य इकाइयां- जाति, संप्रदाय अथवा धार्मिक समुदाय और परिवार तथा नातेदारी है।
सहयोग की भावना के साथ-साथ ग्राम संघर्ष का भी रंगमंच है। संघर्ष समाधान और
सामाजिक गोलबंदी के उसके अपने परंपरागत तरीके हैं। दूसरी ओर अनेक गांवों में
व्यापक गुटबंदी और लगातार चलते रहने वाले विवाद इनकी विशेषता है। विकास की इकाई
माने जाने वाले ग्राम में अब अनेक औपचारिक तथा कानूनी संस्थाएं हैं। गांवों में
राजनीतिक दलों के अपने अभिकर्त्ता एवं बड़े गांवों में उनके दल के अब कार्यालय खुल
गए हैं। गाँव एवं नगर की अपनी एक पहचान एवं सुनिश्चित सीमाएं हैं। भारतीय ग्राम
आत्मनिर्भर नन्हे गणतन्त्र है। यह प्रचारित जरूर है लेकिन ऐसा नहीं है। वस्तुओं की
आपूर्ति के लिए बाजार एवं एक गाँव से दूसरे गाँव का जुड़ाव है। प्रत्येक गाँव में अनेक
जातियों के लोग रहते हैं। अधिकतर जातियों के साथ कोई-न-कोई हस्तकला या व्यवसाय
जुड़ा हुआ है। नाई, धोबी, मजदूर, किसान अपने-अपने व्यवसाय में लगे हुए हैं। ये सब एक दूसरे की मदद करते
हैं। गाँव में दो तरह की पंचायते होती थीं- एक जाति पंचायत तथा दूसरा ग्राम पंचायत।
लगभग गाँव अब शहर से जुड़ गए हैं। शहरी सुविधा अब गांवों में भी धीरे-धीरे प्रवेश
कर गई है। लेकिन ग्रामीण बनाम शहरी जीवन में अंतर है और आज भी बहस जारी है।
षष्ठ
अध्याय नगरीकरण के संरूप विषय पर आधारित है। लेखक ने 1981 के जनगणना के आधार
पर नगरीकरण को परिभाषित किया है। प्राचीन तथा मध्य काल में नगरों तथा गांवों के
बीच का अंतर अस्पष्ट था। गाँव छोटे थे जबकि कस्बे और नगर बड़े थे। राजधानी
व्यापारिक केंद्र भी होती थी तथा वहाँ शैक्षिक तथा चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध थीं।
अंग्रेजों का भारत के नगरीकरण पर अधिक प्रभाव पड़ा था। 1981 की जनगणना अनुसार भारत
में 3,947 कस्बे तथा नगर थे। 1901 में कोलकाता
भारत का नगर मात्र था। मुंबई को महानगर का दर्जा 1911 में मिला था। लेखक ने नगरीय
जीवन की विशिष्टाओं का उल्लेख किया है। शहरी भारत की प्रमुख समस्याओं में लेखक ने
चार समस्याओं पर ध्यान आकृष्ट किया है निर्धनता, आवास, नागरिक सुविधाएं तथा गरीबों की महान सांस्कृतिक शून्यता। इस तरह शहरीकरण
की दर चिंताजनक नहीं बल्कि इस प्रक्रिया की विकृतियाँ और असंतुलन भयावह दिखते हैं।
सप्तम
अध्याय स्त्री-पुरुष संबंध विषय पर आधारित है। इसमें लेखक ने स्त्री-पुरुष संबंध
पर अपना विचार प्रकट किया है। भारतीय समाज में स्त्री की स्थिति अस्पष्ट है।
पवित्र ग्रन्थों में स्त्री को बहुत ऊंचा माना गया है। यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते
रमनते तत्र देवता कहकर ऊंचा स्थान दिया गया है। दूसरी तरफ स्त्रियों की एक अलग छवि
का भी निर्माण किया गया है जिसमें ऐंद्रिक, बहकाने
वाली, मिथ्यावादिता, मूर्ख, लालची, धूर्त, अपवित्र, बिना विचार करने वाली भी बताया गया है। इस तरह स्त्री की ये दोनों छवियाँ
परस्पर विरोधी है। स्त्रियों पर समाज में नियंत्रण रखा जाता है। लड़कियों का प्रथम
मासिक धर्म से पूर्व विवाह कर देने के प्रतिमान मिलते हैं। पितृसत्ता पुरुष के
प्रभुत्व और स्त्री की अधीनता को मान्यता देती है। भारत में मातृवंशी समाज के छोटे
सीमित केंद्र हैं। मातृवंशी व्यवस्था स्त्री को कुछ विशेष गरिमा तथा हैसियत प्रदान
करती है। एक ख़ासी कहावत है युद्ध और राजनीति पुरुषों के लिए है जबकि संपत्ति और
बच्चे औरतों के लिए है। अब ऐसा नहीं है।
हिन्दू
समाज का पितृवंशी भाग स्त्री में अनेक चारित्रिक गुणों की अपेक्षा करता है। जैसे-
पतिव्रत्य या सतीत्व, पति के प्रति समर्पण,
पति परमेश्वर, स्त्री व्रत रखे इत्यादि। वंश परंपरा चलाने के
लिए स्त्री से अपेक्षा किया जाता है कि स्त्री पुत्र को ही जन्म दे। आजादी के बाद
भी स्त्री के साथ अन्याय जारी ही है। दहेज हत्या, वधू दहन, अपमान करना, आराम का मौका न देना, पढ़ने की आजादी न देना, घर के चारदीवारियों के बीच
ही रहना इत्यादि। यह भी देखा जाता है कि शिक्षा प्राप्त तथा सुस्थापित स्त्रियाँ
भी इस तरह के दुर्व्यवहार से नहीं बच पायी है। धीरे-धीरे स्थिति में सुधार भी हो
रहे हैं। अंगजों ने समाज सुधारकों के दबाव में बड़े फैसले किए थे- सती प्रथा उन्मूलन
(1929), विधवा विवाह को विधि सम्मत (1856), कन्या शिशु हत्या पर प्रतिबंध (1870), विशेष विवाह
अधिनियम (1872), बाल विवाह के विरुद्ध कानून (1929), मद्रास प्रांत में महिलाओं को अधिकार (1921) में मिला। स्वतन्त्रता प्राप्ति
के बाद स्त्रियों को मत देने का अधिकार मिला और संपत्ति के स्वामित्व में भी कुछ
सुधार हुआ है। ज्योतिबा फुले का सत्यशोधक आंदोलन स्त्रियों में सुधार का आंदोलन
था। स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान स्त्रियों को गोलबंद कर उन्होंने अनेक बेड़ियों
से मुक्ति दिलाई थी।
वर्तमान
में स्त्रियों के लिए शिक्षा एवं समाज में भागीदारी बढ़ी है। फिर भी सामाजिक और
राजनीतिक व्यवस्था स्त्री-पुरुष असमानता को बरकरार रखने में मददगार हैं।
अष्टम
अध्याय परिवर्तन की प्रवृत्तियां विषय पर आधारित है। इस अध्याय में लेखक
समकालीन भारतीय समाज को अंतर्विरोध का पिटारा मानते हैं। यहाँ के समाज में
निर्धनता के साथ-साथ संपन्नता के भी द्वीप मौजूद है। ये लोग अपनी आध्यात्मिकता के
दम भरते हैं किन्तु इसका अभिजन- अमीर तथा शक्तिशाली वर्ग आडंबरपूर्ण उपभोग के ऐसे
मापदंड स्थापित करता है जो एक अनैतिक है। कुछ ऐसे कर्मकांड होते हैं जो अवैज्ञानिक
मिजाज को बढ़ावा देने के प्रति अपने समर्पण का दावा करता है। संविधान ने अस्पृश्यता
का उन्मूलन जरूर किया है लेकिन प्रभावशील लोगों द्वारा उनकी औकात बताने तथा पाशविक
शक्तियों का इस्तेमाल करने में ये जरा भी नहीं हिचकिचाते हैं। भारत विश्व का बड़ा
लोकतन्त्र होने के बावजूद यहाँ अपराध और राजनीति का गठबंधन है जिसके कारण अनेक
विकृतियाँ भी समा गई है। नए भारतीय समाज का महल टूटे वादों की आधारशिलाओं पर बनाया
जा रहा है।
देश
के विभिन्न भागों में संत कवियों ने असहमति के स्वर मुखरित कर व्यापक सुधारों की
दिशा में पहल की है। कबीर, रैदास, चोखा मेला
चंभार, गोरा, नरहरी नामदेव, सावंत इत्यादि और महिलाओं में मुक्ताबाई, सखुबाई, जनाबाई तथा बहिना बाई इत्यादि के नाम आते हैं। इनके संदेशों का जबर्दस्त
प्रभाव आज भी समाज को जागृत किए हुए हैं। संत कवियों ने भक्त और भगवान के बीच के
मध्यस्थों को हराया है और अनुष्ठानों को आसान बनाने का काम किया है।
इस तरह यह पुस्तक भारतीय समाज का
वृहत परिचय कराता है।
(दुबे, श्यामचरण; भारतीय
समाज, नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया)
No comments:
Post a Comment