जीवन परिचय
देकार्ते मनोवैज्ञानिक, वैज्ञानिक, गणितज्ञ एवं दार्शनिक थे।
इनका जन्म 31 मार्च, 1596 को ला हइ (La Haye), तुरेन (Touraine) फ्रांस
में हुआ था। इनके पिता सेना से सेवानिवृत्त होकर ब्रितानी (Brittany) संसद में परिषद रहे थे। 1604 में अपनी आयु के आठ वर्ष में देकार्ते मेन
में नव-संस्थापित ला फ्लेश (La Fleche) नामक जेसुइट कालेज
में 1612 तक पढ़ाई की। यहाँ उन्हें तत्कालीन विद्या-प्रणाली के अनुसार साहित्य, इतिहास तथा धर्मशास्त्र के अतिरिक्त तर्क, गणित और
दर्शन शास्त्र की शिक्षा प्राप्त हुई थी। 1614 में वे विधिशास्त्र पढ़ने के लिए
पोरतियर गए जहां सन 1616 में उन्होंने स्नातकीय स्तर की शिक्षा प्राप्त की।
लेकिन उन्हें किताबी शिक्षा में
मन नहीं लगा। वे दूसरे लोगों के विचारों और विश्वासों के बल पर अपना जीवन को ढालना
नहीं चाहते थे। वे खुद अपने आप को अपने जीवन का मार्गदर्शक बनाना चाहते थे। इस
ध्येय की पूर्ति हेतु पुस्तक का आश्रय छोड़कर, स्वयं
ही अपने आप के बारे में तथा अपने से इतर व्यक्तियों और वस्तुओं आदि के बारे में
ऐसे ज्ञान की खोज में निकल पड़ने का निश्चय किया जिस पर संदेह बिलकुल ही नहीं किया
जा सके। 1618 में हॉलैंड के नसाओं (Nassau) के शहजादा मौरिस
की सेना में भरती हो गए। सेना में रहते हुए खाली समय उन्होंने गणितीय अध्ययन में
लगाया। 1619 में उन्होंने हॉलैंड छोड़ा और विश्व-दर्शन की अपनी इच्छा की पूर्ति की तलाश
में वे, उन्हीं दिनों आरंभ हुए तीस वर्षीय युद्ध में भाग
लेने के लिए बेवेरिया के ड्यूक की सेना में भरती हो गए। इसी वर्ष के नवंबर मास में
उन्हें इस बात का अन्तर्ज्ञान हुआ कि, विश्लेषणात्मक
ज्यामिती की विधि प्रणाली को दूसरे विषयों के अध्ययन के लिए भी अपनाया जा सकता है।
इसी अन्तर्ज्ञान के अनुभव को उन्होंने अपने डिसकोर्स नामक ग्रंथ में उल्लेख किया
है। एक दिन कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी तो उन्होंने एक कुटी में आश्रय लिया और एक
अंगीठी के पास सट करके बैठ गए। जब उनका शरीर थोड़ा गरम हुआ तो वे दार्शनिक ध्यान
में मग्न हो गए। दिन ढलने तक उनके दार्शनिक सिद्धान्त की सम्पूर्ण रूपरेखा
स्पष्ट रूप से उनके सामने आ गया था। 1622 तक सेना में रहने के तत्पश्चात वे पेरिस
लौट आए।
1623 से 1625 तक ये इटली में
घूमते रहे। जब वे फ्रांस में वापिस आए तो उन्हें ऐसा महसूस हुआ कि शहरी जीवन में
दार्शनिक चिंतन के लिए अनेकानेक बाधाएँ और परेशानियाँ रहती हैं। इसलिए वे 1625 से
1628 तक कभी वे गाँव में रहे और कभी पेरिस में। 1628 से 1649 तक वे हॉलैंड में
रहे।
इन्होंने आजीवन विवाह नहीं
किया। तथापि उनकी अपनी संतान थी। 1640 में इनकी लड़की और इनके पिता का देहांत हो
गया। 1649 में स्वीडन की महारानी क्रिस्टीना के निमंत्रण पर ये हॉलैंड छोड़
स्टोकहोम (स्वीडन) चले गए। स्टोकहोम में वे स्वीडन की महारानी के गुरु बने।
स्वीडिश शीतकाल की कड़ी सर्दी और उस पर सवेरे के पाँच बजे उठकर महारानी को दार्शनिक
शिक्षा देने जाना-ये सब इनके शरीर को सहन नहीं हुआ और ये बीमार पड़ गए, जिसके चलते 11 फरवरी, 1650 को इनका
देहांत हो गया।
देकार्ते की रचना
Ø रुलज फॉर दि गाइडेंस ऑफ दि माइंड – 1628 में लिखी गई पुस्तक
Ø दि वर्ल्ड- 1633 में ईसाई जांच न्यायालय द्वारा
गेलीलियो को मृत्यु दंड मिलने के कारण 1634 में इन्होंने इस पुस्तक के प्रकाशन को
रोक लिया। भौतिकी विषयक इस कृति में कोपरनिकस के सिद्धान्त को अपनाया था। उन्हें
डर था कि यदि इस कृति को प्रकाशित करवाया गया तो गेलीलियो जैसी गति होगी। ये चर्च
से झगड़ा मोल लेना नहीं चाहते थे।
Ø मेडिटेशनज ऑन दि फर्स्ट फिलासाफी – 1641 में लैटिन भाषा में प्रकाशित।
Ø दि प्रिंसिपिल्ज़ ऑफ फिलासफी- 1644 में प्रकाशित।
मेडिटेशनज ऑन दि फर्स्ट फिलासफी एवं दि प्रिंसिपिल्ज़ ऑफ फिलासाफी शहजादी एलिज़ाबेथ
को समर्पित था।
Ø दि पैशन्स ऑफ दि सोल- यह कृति स्वीडन की
महारानी को समर्पित की थी।
देकार्ते के समय की सामाजिक परिस्थिति :
इनके दर्शन को समझने के लिए
उनके जीवन के तथ्यों के अतिरिक्त, सामाजिक और बौद्धिक
वातावरण को जानना आवश्यक हो जाता है। सत्रहवीं शताब्दी के विशेष रूप से
पूर्वार्द्ध में ईसाई धर्म का बहुत ज़ोर था। सामाजिक और राजनैतिक स्वतन्त्रता की
कल्पना करना संभव नहीं था। यदि किसी ने भी विज्ञान के क्षेत्र में वैज्ञानिक खोज
को प्रकाशित करवाया एवं जो चर्च को मान्य न हुई तो उस वैज्ञानिक को ईसाई जांच
न्यायालय ने कड़े से कडा, यहाँ तक कि फांसी का भी दंड दे दिया
जाता था।
देकार्ते का शिक्षा दर्शन:
अपने डिसकोर्स में देकार्ते ने
चार नियमों के तहत दार्शनिक रीति एवं शिक्षा को ग्रहण करने की बात की है-
पहला- जब तक किसी चीज की सत्यता का स्पष्ट ज्ञान नहीं हो जाए तब
तक उसे कभी-भी सत्य नहीं मानना चाहिए। अर्थात अपनी धारणा बनाते हुए
जल्दबाज़ी और पूर्वाग्रह को सतर्कतापूर्वक दूर करना चाहिए तथा अपनी धारणा में केवल
वही चीज ग्रहण करना चाहिए जो अपने मन: चक्षु के समक्ष इतनी स्पष्ट और विभेदपूर्ण
हो कि उसकी सत्यता में संदेह करने का मौका ही न मिले।
दूसरा- जब भी किसी समस्या पर विचार करना हो तो उसके उचित समाधान
के लिए उसका यथा संभव और यथेष्ट अवयवों में विश्लेषण करना चाहिए।
तीसरा- किसी भी प्रश्न पर व्यवस्थित ढंग से विचार करना चाहिए। सरल, सहज और सुगम्य चीजों के ज्ञान से शुरू करके, आहिस्ता-आहिस्ता एक निश्चित क्रम में बढ़ते हुए, उन
चीजों का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए जो सरल, सहज और सुगम्य
चीजों से बनी है और जटिलतर है। इस प्रकार के विचारों में एक तरह की क्रमबद्धता ले
आना यद्यपि स्वभावत: चीजों में इस प्रकार की क्रमबद्धता तथा व्यवस्था का अभाव है।
चौथा- अपने विचारों में कदम-कदम पर इस प्रकार की परिगणना और
सर्वेक्षण कर लेना चाहिए ताकि इस बात का पूर्ण निश्चय हो जाये कि मेरी विचार
श्रृंखला में कहीं कुछ छूट तो नहीं गयी।
देकार्ते ने जिस तरीके से इन
नियमों को अभिव्यक्त किया है इससे स्पष्ट है कि इनके नियम इतने अधिक व्यापक हैं कि
वे किसी भी समस्या के समाधान के लिए नियोजित विचार प्रक्रिया के संबंध में लागू हो
सकते हैं। यह दर्शन और गणित के अतिरिक्त विज्ञान की किसी भी समस्या के संबंध में
समान रूप से अपनाई जा सकती है। इनकी दार्शनिक विधि-प्रणाली स्वरूपत: विश्लेषणात्मक
है। उन्होंने इसे खोज करने की विधि भी कहा है। इस नियम के अनुसार दार्शनिक तब तक
किसी चीज को सत्य स्वीकार नहीं करे जब तक वह उस चीज को इतनी स्पष्टता और
विभेदपूर्ण दृष्टि के साथ न देख ले कि उसकी सत्यता में उसे शंका करने की कोई
गुंजाइश ही नहीं रहे। वे इस बात को मानकर चलते हैं कि जहां तक संभव हो प्रत्येक
चीज की सत्यता में शंका करे और उन तथ्यों पर पहुँचने का प्रयत्न करे जो शंका से
परे हो। यानि उनमें शंका करने की कोई गुंजाइश ही न रहे। शंका के साधनत्व के आधार
पर ही हम सत्य और असत्य में विवेक कर पाते हैं।
देकार्ते का दर्शनशास्त्र
देकार्ते के दर्शन निम्नलिखित
बिन्दुओं के आधार पर समझा जा सकता है।
1. ‘मैं सोचता हूँ, अत: मैं हूँ’:
देकार्ते ने प्रत्येक विश्वास की सत्यता में शंका की और उसे
सत्य स्वीकार करने से इंकार किया था। जब वे प्रत्येक विश्वास के असत्य होने के
विषय में सोच रहे थे तो उन्हें एहसास हुआ था कि मैं जो सोच रहा हूँ उसकी सत्ता
होना अनिवार्य है। डिसकोर्स में वे अपनी इस खोज का वर्णन करते हुए कहा है कि, ‘जब मैं प्रत्येक चीज के असत्य होने के
बारे में सोच रहा था, तो मैंने देखा (अनुभव किया) कि ऐसा
होना ही चाहिए कि मैं जो सोच रहा था, उसकी सत्ता है और इस
बात को समझते हुए कि यह सत्य मैं सोच रहा हूँ, अत: मेरी
सत्ता है, इतना ठोस और पक्का है कि इसे संशयवादियों के बड़े
से बड़े तर्क भी नहीं काट सकते, तो मैंने निश्चय कर लिया कि
इस सत्य को अपने दर्शन का आधारभूत सत्य स्वीकार करने करने में मुझे किंचित मात्र
भी शंका नहीं होनी चाहिए।' यदि कोई व्यक्ति अपने प्रत्येक
विश्वास की सत्यता में शंका करता है, और यदि वह कुछ भी सोचता
है तो शंका करने और सोचने के लिए उसकी अपनी सत्ता होना अनिवार्य है। यही बात
देकार्ते की प्रसिद्ध उक्ति 'मैं सोचता हूँ, अत: मैं हूँ' को प्रकट करता है। सोचना चैतन्य का एक
रूप है।
2. मन या आत्मा और शरीर में मौलिक विभिन्नता
इनका मत है कि, प्रत्येक व्यक्ति में
मन या आत्मा होती है जो चिंतन को प्रभावित करती है। मन को शरीर की यांत्रिक
क्रियाओं को निर्देशित करने तथा परिवर्तित करने का अधिकार होता है। मन और शरीर दो
भिन्न तत्वों के बने होते हैं। शरीर विस्तारित पदार्थ (Extended Matter) का जबकि मन अविस्तारित पदार्थ (Unextended Matter)
का बना होता है।
तर्क के आधार पर देकार्ते ने यह बाताया है कि मनुष्य लोग
त्रिगुट यानि ट्रिनिटी का ही एक प्रतिबिम्बित रूप है। वे मानते हैं कि मैं जो
सोचता हूँ वह एक अभौतिक पदार्थ है जिसमें दैहिकता का नितांत अभाव है। मैं सोचता
हूँ अत: मैं हूँ, के संबंध में वे दो तरह का दावा करते हैं:
एक तो यह कि ‘मैं’ जिसकी सत्ता
उन्होंने सिद्ध की है, एक ऐसा पदार्थ है जिसका स्वभाव ही
सोचना है। अर्थात ‘मैं’ यानि आत्म
स्वभावत: चैतन्यस्वरूप है। दूसरा, यह कि मैं अथवा आत्म शरीर
से नितांत भिन्न पदार्थ है। शरीर दैहिक पदार्थ है, जबकि आत्म
चैतन्य स्वरूप होने के नाते चेतन पदार्थ है।
3. ईश्वर की सत्ता का ज्ञान:
ये आत्मसत्ता के अनाशंक्य और निश्चयात्मक ज्ञान के आधार पर पहले
ईश्वर की सत्ता संबंधी अपने ज्ञान को प्रमाणित करते हैं, और तत्पश्चात, ईश्वर की सत्ता के ज्ञान
के आधार पर बाह्य भौतिक जगत की सत्ता को सिद्ध करते हैं। वे मानते हैं कि, ईश्वर शब्द से मेरा अर्थ उस पदार्थ से है जो अनंत,
स्वतंत्र, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और जो
मुझे और मेरे इतर दूसरी सभी सत्तावान चीजों को पैदा करने वाला है। मैं जितना
ज्यादा इन गुणों पर विचार करता हूँ, उतना ही मुझे यह कम
संभाव प्रतीत होता है कि इन सब चीजों का कारण मैं हूँ। अत: जो मैंने ऊपर कहा है
उसके आधार पर यह अनुमानित होता है कि ईश्वर की सत्ता है।
ईश्वर के अनेक गुणों में से तीन गुण देकार्ते द्वारा दी गयी
ज्ञान-मीमांसा के लिए विशेष रूप से महत्त्व के हैं- एक तो यह कि ईश्वर कभी-भी गलती
नहीं करता-वह सर्वत्र एवं पूर्ण है। ईश्वर न तो कोई गलती करता है और न ही उसमें
किसी प्रकार की अपूर्णता अथवा दोष ही है। दूसरा,
ईश्वर हमें कभी-भी धोखा नहीं देता-वह धोखेबाज नहीं है। तीसरा, ईश्वर दयानिधान है-वह सदैव हमें सदज्ञान की ओर ले जाता है।
4. आत्म और शरीर में परस्परिक संबंध:
इनके मतानुसार मनुष्य दो विभिन्न तत्त्वों द्वारा बना है- आत्म
अथवा मनस यानि मन और शरीर। शरीर प्रकृति का अंश है,
जबकि उसकी आत्मा एक विशुद्ध चेतन पदार्थ है। आत्म जीवन का तत्व नहीं है; जीवन का तत्त्व शरीर है जो एक पूर्णत: नियम बद्ध व्यवस्था अथवा संगठन है।
जीवित और मृत शरीर में केवल उतना ही भेद है जितना कि चल रही और बंद पड़ी घड़ियों में
भेद है। आत्मा को दु:ख, दर्द और अनेकानेक दूसरी संवेदनाओं का
अहसास होता है यह महसूस शरीर में रहते हुए करता है।
सारांश
देकार्ते आधुनिक युग के प्रतीक हैं। इन्होंने उस समय प्रचलित सार्वभौमिक
संदेह-विधि को नहीं अपनाया था। इन्होंने जो दार्शनिक विधि या ज्ञान विधि के चार
नियम दिए हैं, वह आज के समय में दर्शन की अभिव्यक्त
दृष्टि को सत्यता की ओर अग्रेषित करता है। आधुनिक युग का श्रीगणेश यह कह कर किया
था कि जिस किसी पर भी संदेह किया जा सकता है, उस पर संदेह
करना चाहिए। ज्ञान की भव्य इमारत की आधारशिला ऐसे ही आधार वाक्यों पर खड़ी की जा
सकती है। इनकी दार्शनिक विधि प्रणाली स्वरूपत: विश्लेषणात्मक है। वे किसी भी ज्ञान
में शंका जैसी भावना नहीं चाहते थे। वे केवल उन्हीं विश्वासों को ज्ञान मानते हैं
जिन विश्वासों में शंका करने का वास्तव में अवसर ही ना हो।
संदर्भ-ग्रंथ
भारद्वाज, वी. के.; रेने
डेकार्ट, पाश्चात्य दर्शन का इतिहास,
भाग-2, सं., प्रो. दयाकृष्ण, राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर, पाँचवाँ, 2014, पृ. 1-38.