Monday, 13 February 2017

सेवाग्राम आश्रम


        - चन्दन कुमार, एस आर एफ (यूजीसी)
पी-एच. डी., विकास एवं शांति अध्ययन विभाग
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा.
वर्तमान समय में सेवाग्राम आश्रम गांधीजी को समझने एवं उनके दर्शन को जानने का अच्छा माध्यम है। गांधीजी 12 मार्च, 1930 को साबरमती आश्रम से 78 साथियों के साथ सविनय अवज्ञा आंदोलन (नमक सत्याग्रह) के तहत दांडी यात्रा आरंभ किए थे और दांडी यात्रा पर निकलते समय गांधीजी ने संकल्प लिया था कि, स्वराज लिए बिना मैं अपने आश्रम में वापस नहीं लौटूँगा। 241 मील की यात्रा कर 6 अप्रैल, 1930 को गुजरात के दांडी नामक समुद्र तट पर गांधीजी ने नमक का कानून तोड़ा था और 5 मई, 1930 को उन्हें गिरफ्तार कर बिना मुकदमा चलाये उन्हें यरवदा जेल में डाल दिया गया। जेल से छूटने के बाद उन्होंने हरिजन यात्रा आरंभ किया था।
          जमनालाल बजाज व अन्य साथियों के अनुरोध पर गांधीजी ने वर्धा आने की अपनी सहमति व्यक्त की थी। अखिल भारत ग्राम उद्योग संघ की स्थापना के बाद एवं उसके विकास करने की दृष्टि से जनवरी 1935 के अंत में गांधीजी मगनवाडी में आकार बसे। वर्धा आते ही उन्होंने देश के समस्त कार्यकर्ताओं का ध्यान ग्रामसेवा की ओर आकर्षित किया। ग्रामोद्धार के लिए वे खुद देहातों में रहने के लिए उत्सुक थे और अपने साथियों को भी प्रत्साहित करते थे। गांधीजी हाथ में झाड़ू और बाल्टी लेकर मगनवाडी के पास के सिंदी गाँव में साफ-सफाई के लिए निकल जाया करते थे।
         
सेवाग्राम आश्रम भारत में गांधी जी द्वारा स्थापित तीसरा महत्वपूर्ण आश्रम है उन्होंने इससे पूर्व 1915 में पहला आश्रम कोचस या कोचरब में लेकिन, प्लेग जैसी भयंकर बीमारी फैल जाने कारण छोड़ना पड़ा था। दूसरा, 1917 में साबरमती नदी के किनारे अहमदाबाद में जिसे सत्याग्रह आश्रम के नाम से भी जाना जाता है।
          1936 में गांधीजी ने जमनालाल बजाज एवं वल्लभभाई पटेल से गाँव में बसने की चर्चा को रखा था। गांधीजी ने ग्राम-निवास संबंधी कल्पना में यह बताया था कि झोपड़ी बनाने में कम-से-कम खर्च किए जाए। 100 रुपये से ज्यादा खर्च नहीं आना चाहिए। आवश्यक सहायता सेगांव से ही प्राप्त किया जाए। 30 अप्रैल, 1936 को बापू मगनवाडी से सेगांव (सेवाग्राम) में रहने चले आए। सेगांव वासी को यहाँ रहने के उद्देश्य एवं ग्राम सेवा की संकल्पना से रूबरू कराया था। आश्रम में मकान का निर्माण कार्य पूर्ण नहीं हो पाने के कारण कुआँ के पास के अमरूद के बगीचे में रहना प्रारंभ किए, क्योंकि रहने के लिए मकान बनना प्रारंभ ही हुआ था। 5 मई, 1936 को यहाँ से खादी यात्रा के लिए प्रस्थान किए और फिर वापस 16 जून, 1936 को हुए। तबतक उनके कल्पनानुसार आदि-निवास बनकर तैयार हो चुका था। सेवाग्राम का नाम शुरू में सेगांव था, सेगांव बड़ा होने के कारण डाक आने में बहुत गड़बड़ी हो जाती थी, अत: सुविधा की दृष्टि से 1940 में सेगांव का नाम सेवाग्राम कर दिया गया।
          वर्धा शहर से 8 कि.मी. की दूरी पर 300 एकड़ की भूमि में सेवाग्राम आश्रम फैला है, सेवाग्राम आश्रम में कई कुटियाँ बनी हुई है। आश्रम को समझने पर गाँधीजी के व्यक्तित्व व कृतृत्व को भी समझ जा सकता है। यह आश्रम बापू के व्यक्तित्व का दर्पण है। जो स्थानीय संसाधनों एवं प्रकृति के भरपूर सहयोग से बनाया गया है। आश्रम में अवस्थित कुटियाँ का विवरण:  
आदि-निवास:
          16 जून, 1936 से गांधीजी इस कुटी में रहना प्रारंभ किए थे। गांधीजी के देहांत के बाद आदि-निवास नाम रखा गया। इसके निर्माण में जो भी सामाग्री लगाई गई 75 कि. मी. के दायरे के अंदर से प्राप्त की गई थी। आश्रम निर्माण में स्थानीय कारीगरों से इस पहले कुटी का निर्माण करवाया गया था। भारत छोड़ो आंदोलन की प्रथम सभा 1942 में इसी कुटी में हुई थी। यहाँ शुरुआत में गाँधीजी समेत सभी लोग रहा करते थे। यहाँ कस्तूरबा और बापू के अलावा प्यारेलाल जी, संत तुकड़ोजी महाराज, खान अब्दुल गफ्फार के साथ दूसरे आश्रमवासी तथा मेहमान ठहरते थे। गाँधीजी से मिलने आने वाले नेता भी उनसे यहीं मिलते थे।
बापू-कुटी:
          मीरा बहन ने अपने रहने तथा गाँव के लोगों को कताई-धुनाई सिखाने के लिए एक छोटी सी कुटी बनवाई थी। आदि-निवास की उत्तर दिशा में अवस्थित है। आदि-निवास में भीड़ ज्यादा बढ़ने के कारण गांधीजी को कार्य करने में असुविधा होने लगी जिस कारण से इस कुटी में रहने लगे। मीराबहन ने अपने लिए दूसरी कुटी बनवाई। बापू-कुटी प्रार्थना भूमि के निकट ही मिट्टी, बांस तथा अन्य प्राकृतिक संसाधनों से बना हुआ है। दीवाल पर लगाई गयी बांस की अलमारी आज भी आकर्षित करती है। खजूर की चटाई पर बैठकर गांधी काम करते थे। काँच की अलमारी में उनका चरखा, थूकदानी, पानी पीने के बर्तन रखे हुए हैं।
बापू का दफ्तर:
          बापू-कुटी के पूर्व दिशा में बापू का दफ्तर है, जहां महादेवभाई, प्यारेलाल और सुश्री राजकुमारी अमृताकौर एवं अन्य सहयोगी बापू के काम को देखते एवं करते थे। इसमें उस समय काम आने वाले टाइपराईटर मशीन, फोन एवं साँप को पकड़ने की कैंची एवं पकड़े हुए साँप को रखने के लिए बक्से हैं। वायसराय के आग्रह से टेलीफोन लगवाया गया था। साँपों को मारा नहीं जाता था, बल्कि पकड़कर पास के जंगलों में छोड़ दिया जाता था।       
बा-कुटी:
          आश्रम में अनेक पुरुषों का आना-जाना एवं रहना होता था। इस वजह से 'बा' की परेशानी को देखते हुए जमनालाल बजाज ने बा की सहमति से उनके लिए एक अलग कुटी बनवा दी। बा एवं अन्य बहने उसमें रहती था। आज वह 'बा कुटी' के नाम से जाना जाता है।
आखिरी-निवास:
          जमनालाल बजाज ने अपने रहने के लिए बापू-कुटी और बा-कुटी के नजदीक इसे बनवाया था। लेकिन जमनालाल बजाज को सुअवसर नहीं मिल सका। इस कुटी में मेहमानों को ठहराया जाता था। प्रारंभ में सुशीला नैयर गाँव के लोगों का उपचार करती थी। कस्तूरबा दवाखाना शुरू में पाँच-छ: साल तक इसी कुटी में चलता रहा। 1946 के अगस्त माह में बापू के स्वास्थ्य सुधार के लिए डाक्टरों के सलाह पर इस कुटी में रहने लगे। बापू बीमारी से ठीक होकर इसी कुटी से 25 अगस्त, 1946 को दिल्ली के लिए रवाना हुए फिर वापस नहीं आए, इसी कारण इसका नाम आखिरी-निवास रखा गया है।
प्रार्थना-भूमि:
          प्रार्थना भूमि पर छोटे-छोटे पत्थर बिछाए गए हैं। मीराबहन की कल्पना से किया गया था। पानी बरसते समय प्रार्थना आदि-निवास में किया जाता था। प्रार्थना स्थल के संबंध में बापू की कल्पना थी कि प्रार्थना स्थल खर्चीला न हो तथा सभी लोग बना सके। प्रार्थना के बाद ज्वलंत समस्याओं पर चर्चा एवं प्रश्नों के उत्तर देते थे। आज भी सुबह-शाम प्रार्थना हुआ करती है।
रसोई घर:
          प्रारंभिक समय में रसोई आदि-निवास में बनती थी। रहने वालों की संख्या बढ़ने पर आदि-निवास के दक्षिण-पूर्व में पाँच-छ: सादी खोलियाँ में प्रथम खोली में व्यवस्था की गई। लेकिन यहाँ भी समस्या होने के कारण सादा एवं कम खर्चीला रसोई घर बनवाया गया। रसोई घर में पाव-रोटी की भट्टी, देहाती कुकर, मक्खी-मच्छर से सुरक्षित जालीदार आलमारी, निर्धूर चूल्हा, रोटी बनाने वालों के लिए ऊंचा चबूतरा आदि की सुविधाएं थीं।
भोजन स्थान:
          आदि-निवास के बरामदे में आश्रम वासी भोजन ग्रहण करते थे। खुद गांधीजी भोजन परोसते थे। मक्खी आदि से बचने के लिए मच्छरदानी का प्रयोग होता था।
महादेव-कुटी:
          महादेव देशाई गांधीजी के प्रधान सचिव थे। बापू-कुटी के उत्तर-पश्चिम में महादेवभाई के रहने के लिए कुटी बनवाई गई थी। जिसे महादेव-कुटी से जाना जाता है। महादेवभाई परिवार समेत इस कुटी में रहते थे। 15 अगस्त, 1942 को आगा खां महल, पुणे में नजरबंद बापू के सानिध्य में इनकी मृत्यु हुई थी। गांधीजी के जेल से छूटने के बाद सामूहिक सूत्रयज्ञ महादेव कुटी में किया जाने लगा। गांधीजी भी प्रतिदिन सूत कातने आते थे। आज भी इसमें सूत कताई का काम होता है।
किशोर-निवास:
          1940 में व्यक्तिगत सत्याग्रह आंदोलन के समय महादेवभाई को जेल होने पर किशोरलालभाई सेवाग्राम आश्रम में बापू के मंत्री का कार्य करने आए थे। किशोरलालभाई दमे की बीमारी से पीड़ित होने के कारण एवं उनके स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए बापू ने उनके रहने के लिए पक्के का घर बनवाया था। जिसे किशोर-निवास के नाम से आज जाना जाता है।

परचुरे-कुटी:
          परचुरे शास्त्री साबरमती आश्रम में गांधीजी के साथ रह चुके थे एवं संस्कृत के विद्वान थे। ग्रामसेवा करते हुए कुष्टरोग हो गया था। 1938 के लगभग सेवाग्राम आए थे। आश्रम में रहने की अपनी इच्छा गांधीजी को प्रकट की थी। लेकिन उस समय कुष्ठ रोग से पीड़ित व्यक्तियों को लोग घृणा की दृष्टि से देखते थे तथा उसका तिरस्कार किया जाता था। बापू ने अपनी कुटी से नजदीक ही पूर्व में परचुरेजी के रहने के लिए कुटी बनवाई, क्योंकि ठीक से देखभाल हो सके। इसीलिए इसे परचुरे-कुटी के नाम से जाना जाता है। परचुरे की सेवा स्वयं गांधीजी किया करते थे। आश्रम में होने वाली शादियों में पुरोहित का काम इनके द्वारा करवाया जाता था। गांधीजी की कुष्ठ रोगियों के प्रार्थी सेवा भावना को देखकर समाज में कुष्ठ रोगियों के प्रति घृणा कम हुई। लोगों में छिपाने की प्रवृत्ति कम हुई। अनेक समाज सेवक कुष्ठ-सेवा की ओर प्रवृत्त हुए।
रुस्तम-भवन:
          आश्रम में आने वाले मेहमानों के लिए विशेष आवश्यकता की दृष्टि से रुस्तम-भवन बनवाया गया था। यह नयी तालिम परिसर में स्थित है। पारसी रुसतमजी की स्मृति में उनके सुपुत्र श्री जालभाई ने बापू की सहमति से करवाया था।
नयी तालीम परिसर:
          प्रचलित शिक्षा पद्धति में मूलभूत परिवर्तन लाने की दृष्टि से गांधीजी के मार्गदर्शन में श्री आर्यनायकमजी एवं उनकी पत्नी श्रीमती आशादेवीजी के प्रयास से बुनियादी शिक्षा पर प्रयोग किया गया। गौरी भवन का उपयोग शिक्षण के लिए आने वाली बहनों के निवास के उपयोग में लाया जाता था। 1941 में शांति-भवन का निर्माण प्रशिक्षणार्थियों के लिए किया गया था।
गौ-शाला:
          आश्रम के मुख्य फाटक और सड़क के समानान्तर शुरुआत में गौ-शाला थी, आश्रमवासियों की संख्या बढ़ने के कारण गायों की संख्या बढ़ाई गयी जिससे गौ-शाला का विस्तार करना जरूरी हो गया। आश्रम में ही पोष्ट-ऑफिस के सामने सड़क के पूर्व पक्की गौ-शाला बनवाई गयी। आज भी उसमें गायें है।
पीपल वृक्ष:
          1936 में जब गांधी सेवाग्राम आए थे तो पीपल वृक्ष अपने हाथों से लगाया था। प्रार्थना भूमि के किनारे एवं बापू-कुटी के मुख्य फाटक के पास आज भी है।
तुलसी का पौधा:
          बापू एवं बा को 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के समय नजरबंद कर आगाखां महल में रखा गया था बा तुलसी के पौधे को रोज जल डालती थी। बा की मृत्यु हो जाने एवं गांधी की रिहाई होने पर उनके सहयोगियों ने बा की स्मृति चिन्ह के तौर पर तुलसी का पौधा साथ लेते आए थे। 2 अक्तूबर, 1944 को गांधीजी ने अपने 75वें जन्म दिवस के अवसर पर बा-कुटी एवं बापू-कुटी के मध्य लगाया था। आज भी पौधा उस स्थान पर लगा हुआ है।  
आश्रम के लिए एकादश व्रत
          आश्रमवासी एकादश व्रत का पालन करते थे और गांधी विभिन्न प्रयोगों द्वारा अपने-आप को जाँचते भी रहते थे। गांधीजी द्वारा दिये गए एकादश व्रत हैं: सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अस्तेय, अपरिग्रह, अस्वाद, अभय, शरीर-श्रम, स्वदेशी, अस्पृश्यता-निवारण, सर्वधर्म समभाव।     
          गांधीजी आश्रमवासियों के लिए समय-समय पर सूचनाएँ लिखा करते थे और यह पोथी गांधी के सामने रहती थी। आश्रम वासियों को बातें याद रखने के लिए उसमें लिखा गया था, मुख्य इस प्रकार से है:
·       थूक भी माल है। इसलिए जिस जगह हम थुंके या मैले हाथ धोवें वहाँ बर्तन कभी साफ न करें।
·       मेरी सलाह है कि सब नियमपूर्वक सूत्रयज्ञ करें। उस बात में हमें बहुत सावधान रहना चाहिए।
·       खाने के बारे में हरएक को मर्यादा रखना आवश्यक है। गुड का, घी का, दूध का, भाजी का प्रमाण होना चाहिए। भाजी एक समय के लिए आठ औंस काफी समझी जाए। भोजन में कुछ बिगड़े तो उसकी टीका खाने के समय करना असभ्यता है, इसलिए हिंसा है। खाने के बाद चिट्ठी लिखकर व्यवस्थापक को बताया जाए। कोई चीज कच्ची रह जाय तो छोड़ देना। इतनी भूख रह जाय तो कोई हानी नहीं होगी, लेकिन गुस्सा न किया जाय।
·       नमक भी चाहिए उतना ही लेवें। पानी तक निकम्मा खर्च न करें। मैं आशा करता हूँ सब (लोग) आश्रम की हर एक चीज अपनी और गरीब की है ऐसा समझकर चलेंगे।
·       मेरी आशा है कि सब उबला हुआ पानी ही पीते हैं। वर्षा-ऋतु में हमारें कुवें के पानी में काफी खराबियाँ रहती हैं। मलेरिया से बचाने के लिए सब रात को हाथ पैरों पर मिट्टी का तेल लगाकर सोए। सिर पर भी तेल लगाना चाहिए। खाना चबाकर खाया जाय। दस्त हमेशा साफ आना ही चाहिए। न आए तो एरंडी के तेल का जुलाब लेवें। धूप से बचना, काम करते समय सर पर टोपी या कुछ कपड़ा होना चाहिए।
·       सब निवासी, स्थायी व अस्थायी, अपना एक भी क्षण निकम्मा नहीं जाने देंगे। आश्रम की सब सामाजिक सेवा में हिस्सा लें और जब आश्रम का कुछ काम नहीं रहता है तब कातेंगे या रुई की किसी क्रिया में अपना समय देंगे। स्वाध्याय रात को 8 से 9 तक कर सकते हैं और दिन में, जब आश्रम का कुछ कार्य नहीं दिया गया है और कम-से-कम एक घंटा तक कात लिया हो। बीमारी या अनिवार्य कारण के लिए कातने से मुक्ति होगी।
·       सब खाना औषध समझ कर और शरीर को आरोग्यवान रखने के लिए खाया जाय और शरीर की रक्षा भी सेवाकार्य के लिए ही की जाय। उस दृष्टि से मनुष्य को मिताहारी अथवा अल्पाहारी होना चाहिए।
·       खाने में आवाज न की जाय। आहिस्ते-आहिस्ते मर्यादा और स्वच्छतापूर्वक ईश्वर का अनुग्रह मानते हुए खाना चाहिए।
·       कोई चीज जिस पर मक्खी बैठ सकती है ढकना आवश्यक है।
नौकर संबंधी बातें:
          कौन-कौन कितने वेतन पर काम करते है? उनका परिवार क्या है? बच्चे पढ़ते हैं क्या? घर के सब लोग क्या करते हैं? सभी घर स्वच्छ हैं क्या? इन परिवारों को हमने अपनाया है क्या? अगर हम यह सब नहीं करते हैं और उन्हें सिर्फ नौकर के तौर पर रखते है तो यह ठीक नहीं।

रचनात्मक कार्यक्रम:
          गांधीजी सेवाग्राम आश्रम से भारतीय जन-जीवन को क्रियात्मक संदेश देते हुए, नव समाज निर्माण हेतु रचनात्मक कार्यक्रम के साथ-साथ साधक, समाज सेवक तैयार किए थे। गांधी के अठारह रचनात्मक कार्यक्रम इस प्रकार से है: कौमी एकता, अस्पृश्यता-निवारण, शराबबंदी, खादी, अन्य ग्रामोद्योग, गांवों की सफाई, नई या बुनियादी तालीम, बड़ों की तालीम, स्त्रियाँ, आरोग्य के नियम, प्रांतीय भाषा, राष्ट्र भाषा, आर्थिक समानता, किसान, मजदूर, आदिवासी, कोढ़ी और विद्यार्थी।
सेवाग्राम आश्रम में गांधीजी की कई उक्ति लिखी हुई है, जो गांधीजी के विचारों से अवगत कराता है।
कुछ उक्ति का उल्लेख इस तरह से है:  
पागल दौड़:
          अपनी आवश्यकता बढ़ाते रहने की पागल दौड़ में जो लोग आज लगे हैं वे निरर्थक मान रहे कि इस तरह खुद अपने सत्व में वृद्धि कर रहे हैं। उन सबके किए हम यह क्या कर बैठे, ऐसा पुछने का समय एक दिन आए बगैर नहीं रहेगा।
          एक के बाद एक अनेक संस्कृतियाँ आई और गईं, लेकिन प्रगति की हमारी बड़ी उपलब्धियों के बावजूद भी मुझे बार-बार पुछने का मन होता है कि यह सब किसलिए? उसका प्रयोजन क्या? डार्विन के समकालीन वालेस ने कहा कि तरह-तरह की नयी-नयी खोजों के पचास वर्षों में मानवजाति की नैतिक ऊंचाई एक इंच भी बढ़ी नहीं। तालस्टाय ने यही बात कही, ईसा मसीह, बुद्ध और मोहम्मद पैगंबर सभी ने एक ही बात कही है।
मेरे सपनों का भारत:
          मैं ऐसे भारत के लिए कोशिश करूंगा, जिसमें उंच-नीच का कोई भेद न हो और सब जातियाँ मिल-जुलकर रहती हों। ऐसे भारत में अस्पृश्यता व शराब तथा नशीली चीजों के अनिष्टों के लिए कोई स्थान न होगा। उसमें स्त्रियों को पुरुषों जैसे समान अधिकार मिलेंगे। सारी दुनिया से हमारा संबंध शांति और भाई चारे का होगा। यह है मेरे सपनों का भारत।
सात सामाजिक पातक
          तत्वहीन – राजनीति
          सदविवेकहीन विकास
          श्रमहीन – संपत्ति
          मानवताहीन – विज्ञान
          नीतिहीन – व्यापार
          त्यागहीन – पूजा
          चारित्रहीन – शिक्षक
          इस तरह से सेवाग्राम आश्रम प्रत्येक व्यक्ति को जीवन जीने की कला सिखाता है। एक तरफ आधुनिक दौर में व्यक्ति अपने-आप को भी समय नहीं दे पा रहा है। वहीं दूसरी तरफ पर्यावरण का अधिकाधिक हानि से अनेक समस्याओं का ईजाद हुआ है। जिस स्वराज्य की कल्पना करते हुए अंग्रेज से अहिंसक आंदोलन किया व जेल गए। उसके फलीभूत आजादी का कोई मायने नहीं रखता है। गांधी ने अंतिम व्यक्ति को केंद्र में रखकर स्वराज्य की कल्पना की थी। आश्रम व्यवस्था का भी यही उद्देश्य था कि जन-जन तक स्वराज्य फैलाया जाय और सेवाग्राम आश्रम में ग्रामीण विकास एवं जागृति के कामों में अपने आप को घोल लिया था। आश्रम से निम्न बातें समझ में आयी:
Ø सेवाग्राम आश्रम को स्थापित एवं गांधीजी ने क्रियान्वित खास उद्देश्य एवं लक्ष्य के लिए किया था। जिसमें भारत की आजादी के साथ-साथ देश को आजादी के लायक बनाना था। क्योंकि सबसे जरूरी होता है किसी वस्तु को टिकाए रखना। इसके लिए गांधीजी ने किसी भी तरह की सामाजिक बुराई से निजात पाने एवं ग्रामीण स्तर की सुधार के लिए रचनात्मक कार्यक्रम को प्रारंभ किया था।
Ø कहीं भी आश्रम बनाने के लिए जमीन उतना ही चाहिए जीतने में आश्रम व्यवस्था सुचारु रूप से चल सके। अपनी आवश्यक सारी जरूरतों को शरीर श्रम द्वारा आश्रम से ही पूरा करने चाहिए। बाहर से वही वस्तु मंगाई जाय जो असंभव एवं कठिन हो।  
Ø आश्रम में बनाए गए मकान नजदीकी प्राकृतिक संसाधनों से निर्मित साधारण होने चाहिए। कम-से-कम जगह में मकान बनाए जाए। खिड़की-झरोखे पर्याप्त होने चाहिए। जिसके कारण रोशनी एवं ताजी हवा प्रयाप्त आ जा सके।
Ø आश्रम में पर्यावरण एवं छांव की व्यवस्था की दृष्टि से पर्याप्त वृक्ष लगाया जाना चाहिए।
Ø  आश्रम से पता चलता है कि सभी आश्रम वासी नियम से एवं काम का बटवारा कर कार्य करते थे तथा एक-दूसरे की मदद कर काम को पूरा करते थे।
Ø यह आश्रम प्रकृति से जुड़ाव को बताता है।     
 
संपर्क :  विकास एवं शांति अध्ययन विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, पंचटीला वर्धा,                         महाराष्ट्र (442005), मो. नं. 9763710526,-मेल: chandankumarjrf@gmail.com