Monday, 13 February 2017

सेवाग्राम आश्रम


        - चन्दन कुमार, एस आर एफ (यूजीसी)
पी-एच. डी., विकास एवं शांति अध्ययन विभाग
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा.
वर्तमान समय में सेवाग्राम आश्रम गांधीजी को समझने एवं उनके दर्शन को जानने का अच्छा माध्यम है। गांधीजी 12 मार्च, 1930 को साबरमती आश्रम से 78 साथियों के साथ सविनय अवज्ञा आंदोलन (नमक सत्याग्रह) के तहत दांडी यात्रा आरंभ किए थे और दांडी यात्रा पर निकलते समय गांधीजी ने संकल्प लिया था कि, स्वराज लिए बिना मैं अपने आश्रम में वापस नहीं लौटूँगा। 241 मील की यात्रा कर 6 अप्रैल, 1930 को गुजरात के दांडी नामक समुद्र तट पर गांधीजी ने नमक का कानून तोड़ा था और 5 मई, 1930 को उन्हें गिरफ्तार कर बिना मुकदमा चलाये उन्हें यरवदा जेल में डाल दिया गया। जेल से छूटने के बाद उन्होंने हरिजन यात्रा आरंभ किया था।
          जमनालाल बजाज व अन्य साथियों के अनुरोध पर गांधीजी ने वर्धा आने की अपनी सहमति व्यक्त की थी। अखिल भारत ग्राम उद्योग संघ की स्थापना के बाद एवं उसके विकास करने की दृष्टि से जनवरी 1935 के अंत में गांधीजी मगनवाडी में आकार बसे। वर्धा आते ही उन्होंने देश के समस्त कार्यकर्ताओं का ध्यान ग्रामसेवा की ओर आकर्षित किया। ग्रामोद्धार के लिए वे खुद देहातों में रहने के लिए उत्सुक थे और अपने साथियों को भी प्रत्साहित करते थे। गांधीजी हाथ में झाड़ू और बाल्टी लेकर मगनवाडी के पास के सिंदी गाँव में साफ-सफाई के लिए निकल जाया करते थे।
         
सेवाग्राम आश्रम भारत में गांधी जी द्वारा स्थापित तीसरा महत्वपूर्ण आश्रम है उन्होंने इससे पूर्व 1915 में पहला आश्रम कोचस या कोचरब में लेकिन, प्लेग जैसी भयंकर बीमारी फैल जाने कारण छोड़ना पड़ा था। दूसरा, 1917 में साबरमती नदी के किनारे अहमदाबाद में जिसे सत्याग्रह आश्रम के नाम से भी जाना जाता है।
          1936 में गांधीजी ने जमनालाल बजाज एवं वल्लभभाई पटेल से गाँव में बसने की चर्चा को रखा था। गांधीजी ने ग्राम-निवास संबंधी कल्पना में यह बताया था कि झोपड़ी बनाने में कम-से-कम खर्च किए जाए। 100 रुपये से ज्यादा खर्च नहीं आना चाहिए। आवश्यक सहायता सेगांव से ही प्राप्त किया जाए। 30 अप्रैल, 1936 को बापू मगनवाडी से सेगांव (सेवाग्राम) में रहने चले आए। सेगांव वासी को यहाँ रहने के उद्देश्य एवं ग्राम सेवा की संकल्पना से रूबरू कराया था। आश्रम में मकान का निर्माण कार्य पूर्ण नहीं हो पाने के कारण कुआँ के पास के अमरूद के बगीचे में रहना प्रारंभ किए, क्योंकि रहने के लिए मकान बनना प्रारंभ ही हुआ था। 5 मई, 1936 को यहाँ से खादी यात्रा के लिए प्रस्थान किए और फिर वापस 16 जून, 1936 को हुए। तबतक उनके कल्पनानुसार आदि-निवास बनकर तैयार हो चुका था। सेवाग्राम का नाम शुरू में सेगांव था, सेगांव बड़ा होने के कारण डाक आने में बहुत गड़बड़ी हो जाती थी, अत: सुविधा की दृष्टि से 1940 में सेगांव का नाम सेवाग्राम कर दिया गया।
          वर्धा शहर से 8 कि.मी. की दूरी पर 300 एकड़ की भूमि में सेवाग्राम आश्रम फैला है, सेवाग्राम आश्रम में कई कुटियाँ बनी हुई है। आश्रम को समझने पर गाँधीजी के व्यक्तित्व व कृतृत्व को भी समझ जा सकता है। यह आश्रम बापू के व्यक्तित्व का दर्पण है। जो स्थानीय संसाधनों एवं प्रकृति के भरपूर सहयोग से बनाया गया है। आश्रम में अवस्थित कुटियाँ का विवरण:  
आदि-निवास:
          16 जून, 1936 से गांधीजी इस कुटी में रहना प्रारंभ किए थे। गांधीजी के देहांत के बाद आदि-निवास नाम रखा गया। इसके निर्माण में जो भी सामाग्री लगाई गई 75 कि. मी. के दायरे के अंदर से प्राप्त की गई थी। आश्रम निर्माण में स्थानीय कारीगरों से इस पहले कुटी का निर्माण करवाया गया था। भारत छोड़ो आंदोलन की प्रथम सभा 1942 में इसी कुटी में हुई थी। यहाँ शुरुआत में गाँधीजी समेत सभी लोग रहा करते थे। यहाँ कस्तूरबा और बापू के अलावा प्यारेलाल जी, संत तुकड़ोजी महाराज, खान अब्दुल गफ्फार के साथ दूसरे आश्रमवासी तथा मेहमान ठहरते थे। गाँधीजी से मिलने आने वाले नेता भी उनसे यहीं मिलते थे।
बापू-कुटी:
          मीरा बहन ने अपने रहने तथा गाँव के लोगों को कताई-धुनाई सिखाने के लिए एक छोटी सी कुटी बनवाई थी। आदि-निवास की उत्तर दिशा में अवस्थित है। आदि-निवास में भीड़ ज्यादा बढ़ने के कारण गांधीजी को कार्य करने में असुविधा होने लगी जिस कारण से इस कुटी में रहने लगे। मीराबहन ने अपने लिए दूसरी कुटी बनवाई। बापू-कुटी प्रार्थना भूमि के निकट ही मिट्टी, बांस तथा अन्य प्राकृतिक संसाधनों से बना हुआ है। दीवाल पर लगाई गयी बांस की अलमारी आज भी आकर्षित करती है। खजूर की चटाई पर बैठकर गांधी काम करते थे। काँच की अलमारी में उनका चरखा, थूकदानी, पानी पीने के बर्तन रखे हुए हैं।
बापू का दफ्तर:
          बापू-कुटी के पूर्व दिशा में बापू का दफ्तर है, जहां महादेवभाई, प्यारेलाल और सुश्री राजकुमारी अमृताकौर एवं अन्य सहयोगी बापू के काम को देखते एवं करते थे। इसमें उस समय काम आने वाले टाइपराईटर मशीन, फोन एवं साँप को पकड़ने की कैंची एवं पकड़े हुए साँप को रखने के लिए बक्से हैं। वायसराय के आग्रह से टेलीफोन लगवाया गया था। साँपों को मारा नहीं जाता था, बल्कि पकड़कर पास के जंगलों में छोड़ दिया जाता था।       
बा-कुटी:
          आश्रम में अनेक पुरुषों का आना-जाना एवं रहना होता था। इस वजह से 'बा' की परेशानी को देखते हुए जमनालाल बजाज ने बा की सहमति से उनके लिए एक अलग कुटी बनवा दी। बा एवं अन्य बहने उसमें रहती था। आज वह 'बा कुटी' के नाम से जाना जाता है।
आखिरी-निवास:
          जमनालाल बजाज ने अपने रहने के लिए बापू-कुटी और बा-कुटी के नजदीक इसे बनवाया था। लेकिन जमनालाल बजाज को सुअवसर नहीं मिल सका। इस कुटी में मेहमानों को ठहराया जाता था। प्रारंभ में सुशीला नैयर गाँव के लोगों का उपचार करती थी। कस्तूरबा दवाखाना शुरू में पाँच-छ: साल तक इसी कुटी में चलता रहा। 1946 के अगस्त माह में बापू के स्वास्थ्य सुधार के लिए डाक्टरों के सलाह पर इस कुटी में रहने लगे। बापू बीमारी से ठीक होकर इसी कुटी से 25 अगस्त, 1946 को दिल्ली के लिए रवाना हुए फिर वापस नहीं आए, इसी कारण इसका नाम आखिरी-निवास रखा गया है।
प्रार्थना-भूमि:
          प्रार्थना भूमि पर छोटे-छोटे पत्थर बिछाए गए हैं। मीराबहन की कल्पना से किया गया था। पानी बरसते समय प्रार्थना आदि-निवास में किया जाता था। प्रार्थना स्थल के संबंध में बापू की कल्पना थी कि प्रार्थना स्थल खर्चीला न हो तथा सभी लोग बना सके। प्रार्थना के बाद ज्वलंत समस्याओं पर चर्चा एवं प्रश्नों के उत्तर देते थे। आज भी सुबह-शाम प्रार्थना हुआ करती है।
रसोई घर:
          प्रारंभिक समय में रसोई आदि-निवास में बनती थी। रहने वालों की संख्या बढ़ने पर आदि-निवास के दक्षिण-पूर्व में पाँच-छ: सादी खोलियाँ में प्रथम खोली में व्यवस्था की गई। लेकिन यहाँ भी समस्या होने के कारण सादा एवं कम खर्चीला रसोई घर बनवाया गया। रसोई घर में पाव-रोटी की भट्टी, देहाती कुकर, मक्खी-मच्छर से सुरक्षित जालीदार आलमारी, निर्धूर चूल्हा, रोटी बनाने वालों के लिए ऊंचा चबूतरा आदि की सुविधाएं थीं।
भोजन स्थान:
          आदि-निवास के बरामदे में आश्रम वासी भोजन ग्रहण करते थे। खुद गांधीजी भोजन परोसते थे। मक्खी आदि से बचने के लिए मच्छरदानी का प्रयोग होता था।
महादेव-कुटी:
          महादेव देशाई गांधीजी के प्रधान सचिव थे। बापू-कुटी के उत्तर-पश्चिम में महादेवभाई के रहने के लिए कुटी बनवाई गई थी। जिसे महादेव-कुटी से जाना जाता है। महादेवभाई परिवार समेत इस कुटी में रहते थे। 15 अगस्त, 1942 को आगा खां महल, पुणे में नजरबंद बापू के सानिध्य में इनकी मृत्यु हुई थी। गांधीजी के जेल से छूटने के बाद सामूहिक सूत्रयज्ञ महादेव कुटी में किया जाने लगा। गांधीजी भी प्रतिदिन सूत कातने आते थे। आज भी इसमें सूत कताई का काम होता है।
किशोर-निवास:
          1940 में व्यक्तिगत सत्याग्रह आंदोलन के समय महादेवभाई को जेल होने पर किशोरलालभाई सेवाग्राम आश्रम में बापू के मंत्री का कार्य करने आए थे। किशोरलालभाई दमे की बीमारी से पीड़ित होने के कारण एवं उनके स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए बापू ने उनके रहने के लिए पक्के का घर बनवाया था। जिसे किशोर-निवास के नाम से आज जाना जाता है।

परचुरे-कुटी:
          परचुरे शास्त्री साबरमती आश्रम में गांधीजी के साथ रह चुके थे एवं संस्कृत के विद्वान थे। ग्रामसेवा करते हुए कुष्टरोग हो गया था। 1938 के लगभग सेवाग्राम आए थे। आश्रम में रहने की अपनी इच्छा गांधीजी को प्रकट की थी। लेकिन उस समय कुष्ठ रोग से पीड़ित व्यक्तियों को लोग घृणा की दृष्टि से देखते थे तथा उसका तिरस्कार किया जाता था। बापू ने अपनी कुटी से नजदीक ही पूर्व में परचुरेजी के रहने के लिए कुटी बनवाई, क्योंकि ठीक से देखभाल हो सके। इसीलिए इसे परचुरे-कुटी के नाम से जाना जाता है। परचुरे की सेवा स्वयं गांधीजी किया करते थे। आश्रम में होने वाली शादियों में पुरोहित का काम इनके द्वारा करवाया जाता था। गांधीजी की कुष्ठ रोगियों के प्रार्थी सेवा भावना को देखकर समाज में कुष्ठ रोगियों के प्रति घृणा कम हुई। लोगों में छिपाने की प्रवृत्ति कम हुई। अनेक समाज सेवक कुष्ठ-सेवा की ओर प्रवृत्त हुए।
रुस्तम-भवन:
          आश्रम में आने वाले मेहमानों के लिए विशेष आवश्यकता की दृष्टि से रुस्तम-भवन बनवाया गया था। यह नयी तालिम परिसर में स्थित है। पारसी रुसतमजी की स्मृति में उनके सुपुत्र श्री जालभाई ने बापू की सहमति से करवाया था।
नयी तालीम परिसर:
          प्रचलित शिक्षा पद्धति में मूलभूत परिवर्तन लाने की दृष्टि से गांधीजी के मार्गदर्शन में श्री आर्यनायकमजी एवं उनकी पत्नी श्रीमती आशादेवीजी के प्रयास से बुनियादी शिक्षा पर प्रयोग किया गया। गौरी भवन का उपयोग शिक्षण के लिए आने वाली बहनों के निवास के उपयोग में लाया जाता था। 1941 में शांति-भवन का निर्माण प्रशिक्षणार्थियों के लिए किया गया था।
गौ-शाला:
          आश्रम के मुख्य फाटक और सड़क के समानान्तर शुरुआत में गौ-शाला थी, आश्रमवासियों की संख्या बढ़ने के कारण गायों की संख्या बढ़ाई गयी जिससे गौ-शाला का विस्तार करना जरूरी हो गया। आश्रम में ही पोष्ट-ऑफिस के सामने सड़क के पूर्व पक्की गौ-शाला बनवाई गयी। आज भी उसमें गायें है।
पीपल वृक्ष:
          1936 में जब गांधी सेवाग्राम आए थे तो पीपल वृक्ष अपने हाथों से लगाया था। प्रार्थना भूमि के किनारे एवं बापू-कुटी के मुख्य फाटक के पास आज भी है।
तुलसी का पौधा:
          बापू एवं बा को 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के समय नजरबंद कर आगाखां महल में रखा गया था बा तुलसी के पौधे को रोज जल डालती थी। बा की मृत्यु हो जाने एवं गांधी की रिहाई होने पर उनके सहयोगियों ने बा की स्मृति चिन्ह के तौर पर तुलसी का पौधा साथ लेते आए थे। 2 अक्तूबर, 1944 को गांधीजी ने अपने 75वें जन्म दिवस के अवसर पर बा-कुटी एवं बापू-कुटी के मध्य लगाया था। आज भी पौधा उस स्थान पर लगा हुआ है।  
आश्रम के लिए एकादश व्रत
          आश्रमवासी एकादश व्रत का पालन करते थे और गांधी विभिन्न प्रयोगों द्वारा अपने-आप को जाँचते भी रहते थे। गांधीजी द्वारा दिये गए एकादश व्रत हैं: सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अस्तेय, अपरिग्रह, अस्वाद, अभय, शरीर-श्रम, स्वदेशी, अस्पृश्यता-निवारण, सर्वधर्म समभाव।     
          गांधीजी आश्रमवासियों के लिए समय-समय पर सूचनाएँ लिखा करते थे और यह पोथी गांधी के सामने रहती थी। आश्रम वासियों को बातें याद रखने के लिए उसमें लिखा गया था, मुख्य इस प्रकार से है:
·       थूक भी माल है। इसलिए जिस जगह हम थुंके या मैले हाथ धोवें वहाँ बर्तन कभी साफ न करें।
·       मेरी सलाह है कि सब नियमपूर्वक सूत्रयज्ञ करें। उस बात में हमें बहुत सावधान रहना चाहिए।
·       खाने के बारे में हरएक को मर्यादा रखना आवश्यक है। गुड का, घी का, दूध का, भाजी का प्रमाण होना चाहिए। भाजी एक समय के लिए आठ औंस काफी समझी जाए। भोजन में कुछ बिगड़े तो उसकी टीका खाने के समय करना असभ्यता है, इसलिए हिंसा है। खाने के बाद चिट्ठी लिखकर व्यवस्थापक को बताया जाए। कोई चीज कच्ची रह जाय तो छोड़ देना। इतनी भूख रह जाय तो कोई हानी नहीं होगी, लेकिन गुस्सा न किया जाय।
·       नमक भी चाहिए उतना ही लेवें। पानी तक निकम्मा खर्च न करें। मैं आशा करता हूँ सब (लोग) आश्रम की हर एक चीज अपनी और गरीब की है ऐसा समझकर चलेंगे।
·       मेरी आशा है कि सब उबला हुआ पानी ही पीते हैं। वर्षा-ऋतु में हमारें कुवें के पानी में काफी खराबियाँ रहती हैं। मलेरिया से बचाने के लिए सब रात को हाथ पैरों पर मिट्टी का तेल लगाकर सोए। सिर पर भी तेल लगाना चाहिए। खाना चबाकर खाया जाय। दस्त हमेशा साफ आना ही चाहिए। न आए तो एरंडी के तेल का जुलाब लेवें। धूप से बचना, काम करते समय सर पर टोपी या कुछ कपड़ा होना चाहिए।
·       सब निवासी, स्थायी व अस्थायी, अपना एक भी क्षण निकम्मा नहीं जाने देंगे। आश्रम की सब सामाजिक सेवा में हिस्सा लें और जब आश्रम का कुछ काम नहीं रहता है तब कातेंगे या रुई की किसी क्रिया में अपना समय देंगे। स्वाध्याय रात को 8 से 9 तक कर सकते हैं और दिन में, जब आश्रम का कुछ कार्य नहीं दिया गया है और कम-से-कम एक घंटा तक कात लिया हो। बीमारी या अनिवार्य कारण के लिए कातने से मुक्ति होगी।
·       सब खाना औषध समझ कर और शरीर को आरोग्यवान रखने के लिए खाया जाय और शरीर की रक्षा भी सेवाकार्य के लिए ही की जाय। उस दृष्टि से मनुष्य को मिताहारी अथवा अल्पाहारी होना चाहिए।
·       खाने में आवाज न की जाय। आहिस्ते-आहिस्ते मर्यादा और स्वच्छतापूर्वक ईश्वर का अनुग्रह मानते हुए खाना चाहिए।
·       कोई चीज जिस पर मक्खी बैठ सकती है ढकना आवश्यक है।
नौकर संबंधी बातें:
          कौन-कौन कितने वेतन पर काम करते है? उनका परिवार क्या है? बच्चे पढ़ते हैं क्या? घर के सब लोग क्या करते हैं? सभी घर स्वच्छ हैं क्या? इन परिवारों को हमने अपनाया है क्या? अगर हम यह सब नहीं करते हैं और उन्हें सिर्फ नौकर के तौर पर रखते है तो यह ठीक नहीं।

रचनात्मक कार्यक्रम:
          गांधीजी सेवाग्राम आश्रम से भारतीय जन-जीवन को क्रियात्मक संदेश देते हुए, नव समाज निर्माण हेतु रचनात्मक कार्यक्रम के साथ-साथ साधक, समाज सेवक तैयार किए थे। गांधी के अठारह रचनात्मक कार्यक्रम इस प्रकार से है: कौमी एकता, अस्पृश्यता-निवारण, शराबबंदी, खादी, अन्य ग्रामोद्योग, गांवों की सफाई, नई या बुनियादी तालीम, बड़ों की तालीम, स्त्रियाँ, आरोग्य के नियम, प्रांतीय भाषा, राष्ट्र भाषा, आर्थिक समानता, किसान, मजदूर, आदिवासी, कोढ़ी और विद्यार्थी।
सेवाग्राम आश्रम में गांधीजी की कई उक्ति लिखी हुई है, जो गांधीजी के विचारों से अवगत कराता है।
कुछ उक्ति का उल्लेख इस तरह से है:  
पागल दौड़:
          अपनी आवश्यकता बढ़ाते रहने की पागल दौड़ में जो लोग आज लगे हैं वे निरर्थक मान रहे कि इस तरह खुद अपने सत्व में वृद्धि कर रहे हैं। उन सबके किए हम यह क्या कर बैठे, ऐसा पुछने का समय एक दिन आए बगैर नहीं रहेगा।
          एक के बाद एक अनेक संस्कृतियाँ आई और गईं, लेकिन प्रगति की हमारी बड़ी उपलब्धियों के बावजूद भी मुझे बार-बार पुछने का मन होता है कि यह सब किसलिए? उसका प्रयोजन क्या? डार्विन के समकालीन वालेस ने कहा कि तरह-तरह की नयी-नयी खोजों के पचास वर्षों में मानवजाति की नैतिक ऊंचाई एक इंच भी बढ़ी नहीं। तालस्टाय ने यही बात कही, ईसा मसीह, बुद्ध और मोहम्मद पैगंबर सभी ने एक ही बात कही है।
मेरे सपनों का भारत:
          मैं ऐसे भारत के लिए कोशिश करूंगा, जिसमें उंच-नीच का कोई भेद न हो और सब जातियाँ मिल-जुलकर रहती हों। ऐसे भारत में अस्पृश्यता व शराब तथा नशीली चीजों के अनिष्टों के लिए कोई स्थान न होगा। उसमें स्त्रियों को पुरुषों जैसे समान अधिकार मिलेंगे। सारी दुनिया से हमारा संबंध शांति और भाई चारे का होगा। यह है मेरे सपनों का भारत।
सात सामाजिक पातक
          तत्वहीन – राजनीति
          सदविवेकहीन विकास
          श्रमहीन – संपत्ति
          मानवताहीन – विज्ञान
          नीतिहीन – व्यापार
          त्यागहीन – पूजा
          चारित्रहीन – शिक्षक
          इस तरह से सेवाग्राम आश्रम प्रत्येक व्यक्ति को जीवन जीने की कला सिखाता है। एक तरफ आधुनिक दौर में व्यक्ति अपने-आप को भी समय नहीं दे पा रहा है। वहीं दूसरी तरफ पर्यावरण का अधिकाधिक हानि से अनेक समस्याओं का ईजाद हुआ है। जिस स्वराज्य की कल्पना करते हुए अंग्रेज से अहिंसक आंदोलन किया व जेल गए। उसके फलीभूत आजादी का कोई मायने नहीं रखता है। गांधी ने अंतिम व्यक्ति को केंद्र में रखकर स्वराज्य की कल्पना की थी। आश्रम व्यवस्था का भी यही उद्देश्य था कि जन-जन तक स्वराज्य फैलाया जाय और सेवाग्राम आश्रम में ग्रामीण विकास एवं जागृति के कामों में अपने आप को घोल लिया था। आश्रम से निम्न बातें समझ में आयी:
Ø सेवाग्राम आश्रम को स्थापित एवं गांधीजी ने क्रियान्वित खास उद्देश्य एवं लक्ष्य के लिए किया था। जिसमें भारत की आजादी के साथ-साथ देश को आजादी के लायक बनाना था। क्योंकि सबसे जरूरी होता है किसी वस्तु को टिकाए रखना। इसके लिए गांधीजी ने किसी भी तरह की सामाजिक बुराई से निजात पाने एवं ग्रामीण स्तर की सुधार के लिए रचनात्मक कार्यक्रम को प्रारंभ किया था।
Ø कहीं भी आश्रम बनाने के लिए जमीन उतना ही चाहिए जीतने में आश्रम व्यवस्था सुचारु रूप से चल सके। अपनी आवश्यक सारी जरूरतों को शरीर श्रम द्वारा आश्रम से ही पूरा करने चाहिए। बाहर से वही वस्तु मंगाई जाय जो असंभव एवं कठिन हो।  
Ø आश्रम में बनाए गए मकान नजदीकी प्राकृतिक संसाधनों से निर्मित साधारण होने चाहिए। कम-से-कम जगह में मकान बनाए जाए। खिड़की-झरोखे पर्याप्त होने चाहिए। जिसके कारण रोशनी एवं ताजी हवा प्रयाप्त आ जा सके।
Ø आश्रम में पर्यावरण एवं छांव की व्यवस्था की दृष्टि से पर्याप्त वृक्ष लगाया जाना चाहिए।
Ø  आश्रम से पता चलता है कि सभी आश्रम वासी नियम से एवं काम का बटवारा कर कार्य करते थे तथा एक-दूसरे की मदद कर काम को पूरा करते थे।
Ø यह आश्रम प्रकृति से जुड़ाव को बताता है।     
 
संपर्क :  विकास एवं शांति अध्ययन विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, पंचटीला वर्धा,                         महाराष्ट्र (442005), मो. नं. 9763710526,-मेल: chandankumarjrf@gmail.com
           


Wednesday, 11 January 2017

भारत में राज्‍य निर्माण एवं जन-आंदोलन


- चन्दन कुमार, एस आर एफ(यूजीसी)
पी -एच. डी., विकास एवं शांति अध्ययन विभाग
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा.
ब्रिटिश काल में अंग्रेजों ने प्रान्तों के निर्धारण में किसी सिद्धान्त एवं पद्धति को नहीं अपनाया था, जैसे-जैसे अंग्रेज विजित प्रदेशों पर कब्जा करता गया, उक्त प्रदेशों को अपनी सुविधानुसार जोड़ता चला गया था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा भाषा और संस्कृति की समानता के आधार पर प्रान्तों की परोक्ष मांग 1905 से ही प्रारम्भ हो गया था, जब इस संस्था द्वारा बंग-विभाजन को भारतीय राष्ट्रीयता के प्रतिकूल घोषित किया और उसे शीघ्रताशीघ्र एक करने की मांग की थी। लेकिन भाषा के आधार पर सभी प्रान्तों के पुनर्गठन को अपना स्पष्ट उद्देश्य इस संस्था ने पंद्रह वर्ष बाद बनाया था, जब 1920 में नागपुर अधिवेशन में इसके लिए प्रस्ताव स्वीकृत किए गए थे। 
            1927 में जब साइमन कमीशन नियुक्त हुआ उसी समय कांग्रेस ने पुन: यह प्रस्ताव पास किया कि प्रान्तों के पुनर्गठन का समय आ गया है और आंध्र, उत्कल, सिंध तथा कर्नाटक प्रान्तों के निर्माण द्वारा इस क्रम का प्रारम्भ किया जाएगा। 1928 के सर्वदलीय अधिवेशन में नियुक्त नेहरू कमिटी ने भी इसपर जोर दिया था कि, भाषा के आधार पर विभिन्न प्रान्तों का पुनर्गठन होने के बाद ही उनमें शिक्षा तथा अन्य विषयक विकास संभव है। क्योंकि किसी भी प्रांत की सामान्य प्रगति, उसकी संस्कृति, साहित्य और प्रचलित प्रथाओं के सहयोग पर ही निर्भर है और भाषा से इन तीनों का विशिष्ट योग सुलभ[1] होंगे। सन् 1936 में उड़ीसा और सिंध प्रांत बन चुकने के बाद 1937 के कलकत्ता अधिवेशन में कांग्रेस ने भाषा के आधार पर प्रान्तों के पुनर्गठन की मांग को फिर से दुहराया और आंध्र तथा कर्नाटक प्रान्तों के बनाए जाने की सिफारिश की थी। सन् 1938 में संस्था की कार्यकारिणी समिति की बैठक वर्धा में हुई, जिसमें आंध्र, कर्नाटक और केरल के बनाए जाने की मांग करने के लिए संबन्धित क्षेत्रों से प्रतिनिधि-मण्डल आए थे। उन्हें यह आश्वासन दिया गया था कि, प्रान्तों के पुनर्गठन का अधिकार मिलते ही कांग्रेस इस कार्य को प्रारम्भ कर देगी। इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि, कांग्रेस संस्था भाषा के आधार पर प्रान्तों के पुनर्गठन का सिद्धान्त बहुत पहले से ही मानती रही थी और उसके लिए प्रयासरत भी थी। द्वितीय महायुद्ध के पश्चात 1945-46 में अन्तरिम सरकार बनाए जाने के लिए जो चुनाव हुआ उसमें कांग्रेस ने अपने घोषणा-पत्र के अंतर्गत इस सिद्धान्त को पुन: प्रतिपादित किया था कि भाषा और संस्कृति के आधार पर प्रान्तों के पुनर्गठन का प्रयास जहां तक संभव[2] हो सकेगा करने का प्रयास किया जाएगा। लेकिन इस घोषणा-पत्र से जनता को कुछ संदेह मालूम होने लगा था। देश के विभाजन और स्वतन्त्रता मिलने के पश्चात कांग्रेस नेताओं का दृष्टिकोण भी बादल गया था। राष्ट्र की आर्थिक और सामाजिक उन्नति की आवश्यकता और विभाजन के पश्चात उपस्थित हुई विकट समस्याओं के सम्मुख इस प्रश्न को गौन[3] कर दिया गया। आजादी के बाद भारत को राष्ट्रीय एकता अथवा राष्ट्र के सुदृढ़ीकरण के लिए भारतीय जनता को एक राजनीतिक समुदाय के रूप में एकीकृत करने की समस्या कठिन थी, जो जनता की ओर से आवाजें उठ रही थी। हालांकि 1950 में जिस तरह का संवैधानिक ढांचा खड़ा किया गया उसमें विभिन्नता में एकता की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए मजबूत केंद्र के साथ-साथ राज्यों को स्वायत्तता देकर संघीय रूप प्रदान किया था। लेकिन 1950 के दशक के आरंभिक दिनों से ही सामाजिक सुधार की गति धीमी पड़ गई थी। सामाजिक शोषण और सामाजिक भेदभाव तथा जाति, धर्म, भाषा और मूल पर आधारित उत्पीड़न एवं विशाल आर्थिक असमानता राष्ट्रीय एकता के कार्यक्रम का सबसे कमजोर पक्ष बन चुका था। ये बुराइयां संयुक्त राष्ट्रीय अस्मिता[4] के निर्माण में अवरोधक का काम करने लगा था।
            आजाद भारत के पहले बीस वर्षों में सबसे बड़ा विभाजनकारी मुद्दा भाषा समस्या थी। कई लोगों में यह डर समा गया था कि देश की राजनीतिक और सांस्कृतिक एकता खतरे में है। लोग अपनी भाषा से प्यार करते हैं और उनकी संस्कृति भी भाषा से बहुत जुड़ी हुई है। परिणामस्वरूप, भाषाई पहचान की एक मजबूत अपील होती है और हर समाज में यह एक मजबूत शक्ति साबित हुई है। यह भारत के बहुभाषाई समाज के विषय में और भी सच है। यह भी अनिवार्य था कि भाषाई विभिन्नताएँ भाषा के मुद्दे के इर्द-गिर्द सशक्त राजनीतिक धाराओं को जन्म दे रही थी, खास तौर पर इसलिए कि शैक्षणिक और आर्थिक विकास, रोजगार एवं अन्य आर्थिक अवसर तथा राजनीतिक सत्ता तक पहुँच के प्रश्न भाषा के सवाल[5] से गहराई से जुड़े थे। इस आधार पर भी भाषाई विभिन्नता के आधार पर उत्पन्न राष्ट्रीय एकता में भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन ने आंदोलन का रूप ग्रहण कर लिया था।
            आजादी मिलते ही देश के सामने भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन का सवाल आ खड़ा हुआ। अंग्रेजों ने भारतीय प्रदेशों की जो सीमाएं बनाई थीं वह अस्वाभाविक और अतार्किक थीं। अंग्रेजों ने प्रदेशों के सीमा निर्धारण में भाषा या संस्कृति की समरूपता का कोई ध्यान नहीं रखा था। इसलिए ज्यादातर राज्य बहुभाषी और बहुसंस्कृति युक्त थे। बीच-बीच में पड़ने वाले देशी रियासत और रजवाड़ों ने प्रादेशिक विभाजनों को और भी बेमेल[6] कर दिया था। 
            हालांकि राष्ट्रीय नेतृत्व ने राज्य पुनर्गठन के भाषाई मुद्दे पर नए सिरे से सोचना आरंभ किया लेकिन कई कारणों से वे अपने वायदे को तुरंत लागू करने से कतराने लगे। भारत विभाजन ने बहुत गंभीर प्रशासनिक, आर्थिक और राजनीतिक समस्याएं उत्पन्न कर दी थीं। चूंकि आजादी दूसरे महायुद्ध के बाद आई थी, इसलिए उसके साथ कठिन आर्थिक एवं कानून और व्यवस्था संबंधी समस्याएं भी जुड़ी हुई थीं। ऊपर से उलझी कश्मीर समस्या, पाकिस्तान के साथ युद्ध के मँडराते खतरे, हिन्दू-मुस्लिम सांप्रदायिकता, देशी रियासतों का विलय और शरणार्थियों की समस्या। नेतृत्व का विचार यह था कि अभी कुछ समय के लिए पहला काम राष्ट्रीय एकता को मजबूत करना होना चाहिए क्योंकि देश की आंतरिक सीमाओं के पुनर्निर्धारण के जटिल कार्य को अभी हाथ में लेने का कोई भी प्रयास, प्रशासनिक और आर्थिक विकास को ठप्प कर दे सकता था। साथ ही यह क्षेत्रीय एवं भाषाई दुश्मनी को हवा दे सकता था या विभाजनकारी शक्तियों को उभार सकता था, देश की एकता में दरार डाल सकता था और राष्ट्रीय एकीकरण का मार्ग अवरुद्ध[7] कर सकता था। अतएव आंध्र, तेलंगाना, बंबई, मैसूर आदि स्थानों पर भाषा के आधार पर राज्यों की मांग को देखते हुए संविधान सभा के सभापति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने उत्तर प्रदेश के वकील श्री धर की अध्यक्षता में भाषावार प्रान्तों के गठन पर विचार-विमर्श करने के लिए धर आयोग का गठन किया था। धर समिति ने 19 दिसंबर 1948 को अपनी रिपोर्ट में क्षेत्रीय भाषाओं के आधार पर प्रान्तों के गठन के विचार को स्वीकृति प्रदान नहीं की। समिति का मानना था कि, क्षेत्रीय भाषायी आधार पर राज्यों का गठन राष्ट्रीय एकता को खतरे में डाल सकता है। इस तरह कांग्रेस के जयपुर अधिवेशन में इस प्रतिवेदन पर विचार हुआ और जे. वी. पी. समिति (1948) बनाई गयी जिसके सदस्य जवाहरलाल नेहरू, वल्लभ भाई पटेल, पट्टाभि सीतारमैया थे। इन्होंने रिपोर्ट में यह सुझाव रखा था कि, आंध्र प्रांत का अविलंब गठन किया जाए, किन्तु मद्रास शहर तमिलों के पास ही रहे। श्री प्रकाशम सहित आंध्र के अनेक सदस्यों एवं नेताओं ने इस रिपोर्ट का विरोध किया। मद्रास राज्य के तेलगू भाषियों ने प्रमुखता से भाषा के आधार पर आंध्र राज्य की मांग की। 19 अक्तूबर 1952 को एक विख्यात स्वतन्त्रता सेनानी पोट्टी श्रीरामालु ने अलग आंध्र राज्य की मांग पर आमरण अनशन शुरू किया और 58 दिनों के अनशन से उनकी मृत्यु हो गयी। उनकी मृत्यु के बाद पूरे आंध्र क्षेत्र में तीन दिनों तक लगातार दंगे, प्रदर्शन, हिंसा और हड़तालें चलती रहीं। पुलिस फायरिंग में कई व्यक्तियों की मृत्यु हो गई। सरकार तुरंत झुक गई और आंध्र राज्य की मांग[8] को स्वीकृति प्रदान करनी पड़ गयी।
            तत्कालीन राजनीतिक परिदृश्य को समझते हुए सरकार ने आंध्र राज्य अधिनियम 1953 के द्वारा विद्यमान मद्रास राज्य के 16 उत्तरी तेलगू जिलों का क्षेत्र निकालकर 1 अक्टूबर 1953 को भाषायी आधार पर आंध्र प्रांत को गठित किया। अलग-अलग क्षेत्रों में आंध्र राज्य की स्वीकृति से भाषायी आधार पर राज्यों की मांग ने जोर पकड़ लिया, जिसको देखते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहारलाल नेहरू ने 22 दिसंबर 1953 को तीन सदस्यीय राज्य पुनर्गठन आयोग कि नियुक्ति की। इसमें न्यायाधीश फजल अली, हृदयनाथ कुंजरू व सरदार के. एम. पाणिक्कर थे। सितंबर 1955 में अपने प्रतिवेदन में राज्यों के गठन के लिए कुछ कारकों को तय किया जिसमें भारतीय राज्यों की एकता व अखंडता को सुनिश्चित करना, भाषायी व सांस्कृतिक समरसता, वित्तीय, आर्थिक और प्रशासनिक कारकों का ध्यान रखना तथा राष्ट्रीय योजना का सफल अनुपालन करना शामिल था। 1 नवंबर 1956 को राज्य पुनर्गठन अधिनियम 1957, लागू किया किया गया।
            जिसमें चौदह राज्य एवं छह केंद्र शासित प्रदेशों की व्यवस्था की गई। हैदराबाद रियासत का तेलंगाना क्षेत्र आंध्र प्रदेश को दे दिया गया। ट्रावणकोर-कोचीन में पुराने मद्रास प्रेसीडेंसी के मालाबार जिले को मिलाकर केरल बनाया गया। बंबई, मद्रास, हैदराबाद और कुर्ग के कुछ कन्नड़ भाषी इलाकों को मैसूर रियासत में जोड़ दिया गया। कच्छ और सौराष्ट्र रियासतों के अलावा हैदराबाद रियासत के मराठी भाषी इलाकों को बंबई राज्य में मिलाकर विस्तार[9] किया गया। अक्तूबर 1953 में आंध्र प्रदेश के अस्तित्व में आ  जाने के साथ ही साथ तमिल भाषी राज्य के रूप में तमिलनाडु बनाया गया।[10] पंजाब जहां भाषाई आधार को नहीं अपनाया गया था, 1956 में पेप्सू राज्यों को पंजाब में मिला दिया गया, जिनमें पहले से ही तीन भाषाई समूह- पंजाबी, हिन्दी और पहाड़ी रहते थे। राज्य के पंजाबी भाषा बहुल इलाके में अलग पंजाबी भाषी राज्य की मांग काफी जोरों पर थी। दुर्भाग्य से यह मांग सांप्रदायिकता के साथ मिल गई। अकाली दल के नेतृत्व में सिख संप्रदायवादियों और जनसंघ के नेतृत्व में हिन्दू संप्रदायवादियों ने भाषा के मुद्दे का उपयोग अपनी सांप्रदायिक राजनीति को फैलाने के लिए किया। जहां हिन्दू संप्रदायवादियों ने पंजाबी सूबा की मांग का विरोध यह कहकर किया कि पंजाबी उनकी मातृभाषा नहीं है, वहीं सिख संप्रदायवादियों ने इसे सिख राज्य के रूप में मांग की और कहा कि गुरुमुखी में लिखी पंजाबी एक सिख भाषा है। हालांकि कम्युनिस्ट पार्टी ने मांग का समर्थन किया और कुछ कांग्रेसी भी साथ थे, फिर भी इसे धर्म के साथ घोल मट्ठा हो जाने से कोई रोक नहीं पाया। नेहरू के साथ-साथ पंजाब के ज्यादातर कांग्रेसी यह समझ रहे थे कि पंजाबी राज्य कि मांग, मूलत: सिख बहुल राज्य के लिए एक सांप्रदायिक मांग को भाषा के आवरण में लपेटकर सामने रखा जा रहा है। नेहरू और कांग्रेस नेतृत्व के सामने यह बिलकुल साफ था कि वे धर्म या संप्रदाय के आधार पर राज्य के निर्माण की बात किसी कीमत पर स्वीकार नहीं करेंगे। राज्य पुनर्गठन आयोग ने भी एक अलग पंजाबी भाषी राज्य के निर्माण की मांग को इस आधार पर अस्वीकार कर दिया था कि इससे न तो पंजाब की भाषा समस्या का समाधान होगा, न ही सांप्रदायिक समस्या का।....अंतत: 1966 में इंदिरा गांधी पंजाबी और हिन्दी भाषी दो राज्यों में पंजाब के विभाजन के लिए तैयार हो गई। पंजाब और हरियाणा दो अलग-अलग राज्य बना दिए गए तथा कांगड़ा के पहाड़ी भाषी क्षेत्र और होशियारपुर जिले का कुछ हिस्सा हिमाचल प्रदेश में मिला दिया गया। संयुक्त पंजाब की राजधानी और नवनिर्मित शहर चंडीगढ़ को केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया। पंजाब और हरियाणा दोनों को साझा राजधानी[11] के रूप में रहने दिया गया।
            राज्य पुनर्गठन आयोग और विधेयक के खिलाफ सबसे ज्यादा विरोध महाराष्ट्र में हुआ। बड़े पैमाने पर दंगे भड़क उठे और जनवरी 1956 में पुलिस फायरिंग के दौरान अकेले बंबई शहर में 80 लोग मारे गए। छात्रों, किसानों, मजदूरों, कलाकारों, व्यापारियों आदि की व्यापक जनभावना के आधार पर विपक्षी दलों ने एक शक्तिशाली विरोध आंदोलन खड़ा कर दिया। महाराष्ट्र के लोगों का यह गुस्सा था कि इतनी विशाल आबादी की आवाज अनसुनी की जा रही है। आखिरकार दबाव के सामने झुककर भारत सरकार ने जून 1956 में यह निर्णय लिया कि बंबई राज्य को दो हिस्सों में बांटकर दो भाषाई राज्य महाराष्ट्र और गुजरात बनाए जाएंगे तथा बंबई शहर केंद्र शासित प्रदेश बनेगा। महाराष्ट्र द्वारा इस कदम का घोर विरोध किया गया। नेहरू डगमगा गए थे। महाराष्ट्र के लोगों को ठेस पहुंचाने का उन्हें दु:ख था। उन्होंने जुलाई में अपने निर्णय को बदलते हुए ग्रेटर बंबई नामक द्विभाषी राज्य फिर से बना दिया। फिर इस कदम का विरोध महाराष्ट्र और गुजरात दोनों ही जगह हुआ। व्यापक आधार वाली संयुक्त महाराष्ट्र समिति और महागुजरात जनता परिषद राज्य के दो हिस्सों में अलग-अलग आंदोलन का नेतृत्व कर रही थी। महाराष्ट्र में बड़े पैमाने पर कांग्रेसियों ने भी बंबई राजधानी वाली एकभाषी महाराष्ट्र की मांग का समर्थन किया। केंद्रीय मंत्रिमंडल में वित्तमंत्री सी. डी. देशमुख ने इस सवाल पर अपने पद से इस्तीफा दे दिया। दूसरी तरफ गुजरातियों को लग रहा था कि नए राज्य में वे एक अल्पसंख्यक बनकर रह जाएंगे। वे बंबई सिटी भी महाराष्ट्र को देने के लिए तैयार नहीं थे। अब हिंसा और आगजनी अहमदाबाद और गुजरात के अन्य हिस्सों में फैल गया। पुलिस फायरिंग में 16 आदमी मारे गए और 200 घायल[12] हुए। आखिरकार 1960 में सरकार बंबई राज्य को महाराष्ट्र और गुजरात में बांटने के लिए तैयार हो गई, जिसमें बंबई सिटी महाराष्ट्र को मिला तथा गुजरात कि राजधानी अहमदाबाद[13] की गई। 
            भारतीय संघीय राज्य के लिए यह विडंबना ही रही कि 1956 में राज्य पुनर्गठन अधिनियम लागू होने के पश्चात भी जातीय, भाषायी, क्षेत्रीयतावाद तथा पृथकतावाद जैसे तत्वों के आधार पर राज्यों की सीमाओं में परिवर्तन और नए राज्यों के गठन का सिलसिला जारी ही रहा। 
            असम में नागा जाति ने भारतीय संघ से पृथक होने का आंदोलन किया एवं फिजों के नेतृत्व में नागा राष्ट्रीय परिषद का गठन किया गया जिसने अपने आंदोलन को प्रभावी एवं तीव्र करने के लिए गैर संवैधानिक उपकरणों का सहारा लिया। फिजों के पीछे नागा जाति का विश्वास इस कदर केंद्रीय राजनीति पर हावी हुआ कि 1960 में केंद्रीय सरकार को नागाओं से समझौता करना पड़ा। जिसके परिणाम स्वरूप नागालैंड राज्य अधिनियम 1962 अस्तित्व में आया और इस तरह 1 फरवरी 1962 में नागालैंड राज्य की स्थापना हुई। फिर असम में ही जनजातीय आधार पर पृथककरण एवं क्षेत्रीयतावाद की मांग इतनी बढ़ गई कि असम राज्य के मिजो पहाड़ी जिलों के नेता भी भारतीय संघ से पृथक स्वाधीन मिजो राज्य की मांग करने लगे। इस राजनीतिक लड़ाई के लिए मिजो राष्ट्रीय फ्रंट की स्थापना की गई। 1962 में इस फ्रंट को गैर-संवैधानिकता के प्रश्न को लेकर केंद्रीय सरकार द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया। लेकिन भूमिगत होकर आंदोलन जारी रखा। 1971 में मिजो नेता एवं फ्रंट, राज्य की मांग के प्रश्न पर जनमत संग्रह कराने पर अड़ा रहा। केंद्रीय सरकार ने उत्तर-पूर्वी क्षेत्र (असम) में की जा रही मांग के निवारण के लिए सात राज्यों, जिन्हें उत्तर-पूर्व की सात बहनें भी कहा जाता है- अरुणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड और त्रिपुरा का गठन किया।
            इन सबके वावजूद भी आंध्र प्रदेश में तेलंगाना, महाराष्ट्र में विदर्भ, गुजरात में सौराष्ट्र, असम में बोडोलैंड, पश्चिम बंगाल में गोरखालैंड, उत्तरप्रदेश में पूर्वांचल, हरित प्रदेश, उत्तराखंड, बुंदेलखंड, बिहार में झारखंड और मध्यप्रदेश में छत्तीसगढ़ जैसे क्षेत्र भी अपने लिए अलग राज्य की मांग करने लगे थे।
            छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण मंच, उत्तराखंड क्रान्ति दल और झारखंड मुक्ति मोर्चा ने लगातार केंद्रीय सरकार पर दबाव बनाकर इन राज्यों की मांग को बरकरार रखा। वस्तुत: 1 नवंबर 2000 को छत्तीसगढ़ राज्य मध्यप्रदेश में से बनाया गया। 9 नवंबर 2000 को उत्तरांचल (उत्तराखंड) राज्य उत्तरप्रदेश में से 16 जिलों को निकालकर बनाया गया और 15 नवंबर 2000 को झारखंड क्षेत्रीय विकास परिषद का उल्लंघन करते हुए बिहार के दक्षिणी हिस्से को काट कर झारखंड राज्य बनाया गया।
            आंध्र प्रदेश की तेलंगाना राष्ट्र समिति के अध्यक्ष कल्वकंवल चंद्रशेखर राव ने अपने पूर्ववर्ती नेता श्री रामूलु की भांति तेलंगाना राज्य की मांग को व्यावहारिक स्तर पर तीव्रता देने के लिए आमरण अनशन कर दिया, जिसके दबाव में केंद्रीय सरकार के गृहमंत्री ने प्रधानमंत्री को आधी रात को ही कैबिनेट के अन्य वरिष्ठ सदस्यों के साथ बैठक के बाद तेलंगाना को पूर्ण अलग राज्य का दर्जा देने की घोषणा[14] करनी पड़ी। इस राज्य को लेकर पक्ष एवं विपक्ष में तीव्र आंदोलन होने से केंद्रीय सरकार को अपने कदम आगे बढ़ाकर पीछे खींचने पड़े। आखिरकार तेलंगाना में भारी विरोध और चुनावी दबाव के चलते 2 जून 2014 को तेलंगाना देश का 29वाँ राज्य बना।  
            आज भी विभिन्न राज्यों में से अलग-अलग राज्य निर्माण करने की मांग जनांदोलनों के माध्यम से जारी है, महाराष्ट्र में विदर्भ, गुजरात में सौराष्ट्र, बिहार में मिथिलांचल और भोजपुर, उड़ीसा में महाकौशल, असम में बोडोलैंड, पश्चिम बंगाल में गोरखालैंड और कर्नाटक में कोडागू राज्य को लेकर।
            इस प्रकार राज्यों के पुनर्गठन ने भारत की एकता को कमजोर नहीं किया बल्कि भारतीय संघ को मजबूत ही किया है। एक तरफ विभाजन वाली शक्ति साबित होने के बजाए दूसरी तरफ एकता और समन्वय की शक्ति साबित की है।

संपर्क: विकास एवं शांति अध्ययन विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, पंचटीला, वर्धा, महाराष्ट्र, मो. नं. 9763710526,-मेल: chandankumarjrf@gmail.com






संदर्भ-सूची



[1] मिश्र, बाबूराम; स्वतंत्र भारत की एक झलक, प्रकाशन शाखा सूचना विभाग, उत्तर प्रदेश, लखनऊ, जनवरी, 1959, पृ. 113-14, देखें; रिपोर्ट ऑफ नेहरू कमिटी, ऑल पार्टीज़ कॉन्फ्रेंस, 1928, पृ. 62
[2] मिश्र, बाबूराम; स्वतंत्र भारत की एक झलक, प्रकाशन शाखा सूचना विभाग, उत्तर प्रदेश, लखनऊ, जनवरी, 1959, पृ. 114  
[3] वही, पृ. 114-15  
[4] चंद्र बिपिन, मुखर्जी मृदुला और मुखर्जी आदित्य; आजादी के बाद का भारत, हिन्दी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय दिल्ली विश्वविद्यालय, पुनर्मुद्रण, जुलाई, 2011, पृ. 118  
[5] वही, पृ. 119
[6] वही, पृ. 133
[7] वही, पृ. 134
[8] वही, पृ. 136
[9] वही, पृ. 137
[10] वही, पृ. 136
[11] वही, पृ. 138
[12] वही, पृ. 137
[13] वही, पृ. 138
[14] इंडिया टुडे, 30 दिसंबर, 2009, पृ. 25