गांधी और मानवाधिकार
- चन्दन कुमार, एसआर एफ (यूजीसी)
पी -एच. डी. ,अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा.

मानवाधिकार दो शब्दों के मेल
से बना शब्द है, मानव और अधिकार। गांधी
का मानना है कि मानव शरीर, बुद्धि और आत्मा का सामंजस्यपूर्ण
संयोग होते हुए सत्य या ईश्वर का एक छोटा-सा रूप है, जिसमें
आत्मा और शरीर के सभी गुण पाये जाते हैं। आत्मा के कारण ही मानव में चैतन्य, बुद्धि, संकल्प, भाव और संवेग
पाये जाते हैं। शरीर धारण से मानव प्राकृतिक नियमों का पालन करता है अर्थात
पूर्वजों के कारण शरीर धारण होता है एवं उसमें आनुवंशिकता के गुण आते हैं तथा
विकास के लिए वातावरण से प्रभावित होते हैं। गांधी मानव के विकासात्मक स्वरूप को
स्वीकारते हैं। शुरू में मानव पशु रूप में था, जिसके कारण पशुओं
की भांति ही आहार, निंद्रा, भय, मैथुन आदि प्रवृतियाँ मौजूद थीं। अपने विकास के कारण ही पशुओं से भिन्न
हुए हैं। पशुओं में नैतिक चेतना, धार्मिक चेतना एवं
इंद्रिय-नियमन का अभाव है। मनुष्य शुभ-अशुभ का भेद करता है,
अपने इंद्रियों को नियंत्रित करता है। गांधी मानते हैं कि मनुष्य इस हाड़-मांस के
शरीर में आबद्ध रह कर न तो ज्ञान और न सदगुणों की ही पूर्णता को प्राप्त कर सकता
है और न ही स्वार्थ को जीत सकता है, फिर भी पूर्णता की
प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहता है। गांधी मानव को आत्म-प्रधान जीव मानते हैं जो
शरीर से जुड़ा होता है। आत्मा के कारण ईश्वर से संबंधित होता है। अत: उसमें
शरीरजन्य, बुराइयाँ, आत्मा से संबंधित
सद्गुण और ईश्वर की अनंत संभावनाएँ अवियोज्य रूप से एक दूसरे से जुड़ी रहती हैं।
इसीलिए मनुष्य शुभ-अशुभ दोनों का सम्मिश्रण है। गांधी के शब्दों में “हममें से प्रत्येक व्यक्ति शुभ और अशुभ का सम्मिश्रण है। क्या हममें
पर्याप्त मात्रा में बुराई नहीं हैं? अवश्य हैं।” (हरिजन, 10.6.39, पृ. 185)
गांधी को मनुष्य के स्वभाव में अशुभ की अपेक्षा शुभ विशेष शक्तिशाली नजर आता है।
मनुष्य में प्रेम, सहयोग, उपकारिता आदि
की तुलना में हिंसा, स्वार्थ और लोभ की शक्ति बहुत ही क्षीण
जान प्रतीत होता है तथा प्रेम की शक्ति के बिना दुनिया टिक ही नहीं सकती है। इसी
प्रेम की शक्ति से अनेक युद्धों के बाद भी दुनिया एवं विश्व में जीवन कायम है।
संपूर्ण मानवता की तुलना में बुराइयाँ समुद्र की विशाल जल राशि में चंद बूंदों के
समान है। गांधी यह भी कहते हैं कि कोई भी मानव ऐसा नहीं है जिसकी बुराई का सुधार
नहीं हो सके। गांधी के अनुसार मनुष्य का उद्देश्य अधिक-से-अधिक ईश्वरीय शक्ति को
प्राप्त करना है। ईश्वर सभी जीवों का समूह है अत: ईश्वर या मोक्ष की प्राप्ति का
सर्वोत्तम मार्ग समाज की गरीबी, बेरोजगारी, विषमता, शोषण और दु:खों को मिटाना ही हो सकता है।
गांधी के अनुसार अधिकारों की
प्राप्ति समाजोपयोगी कर्त्तव्यों की पूर्ति के द्वारा ही संभव है। अधिकारों की
गांधीय अवधारणा मूल प्राकृतिक एवं नैतिक अधिकारों का उद्घोष माना जा सकता है।
गांधी ने कर्त्तव्यों एवं अधिकारों के पारस्परिक संबंध के आधार पर नैतिक न्याय की
प्रकृति की अवधारणा प्रस्तुत की है। कर्त्तव्यों के बिना कोई वास्तविक अधिकार की
प्राप्ति नहीं हो सकती है। उनके अनुसार कर्त्तव्यों का सही पालन ही अधिकारों का
सही स्त्रोत है। कर्त्तव्यों के सही निर्वाह के बिना कोई वास्तविक अधिकार नहीं
प्राप्त किया जा सकता है, इसीलिए
अधिकारों के साथ-साथ कर्त्तव्यों की पूर्ति मानव समाज में रामराज्य बनाए रखने के
लिए आवश्यक है। कर्त्तव्य को गांधी ‘स्वधर्म’ की श्रेणी में रखते हैं। वहीं अधिकार का उद्देश्य स्वार्थ सिद्धि न मानकर
मनुष्य सेवा या समाज सेवा को मानते हैं। इस तरह गांधी ने तिलक के वो शब्द जिसमें
तिलक कहते हैं कि स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार हैं में गांधी कहते है कि इसे
बनाए रखना हमारा पवित्र कर्त्तव्य है। गांधी मनुष्य की प्रवृत्ति से परिचित दिखाई
पड़ते हैं इसीलिए उन्होंने कर्त्तव्यों के पालन हेतु व्रत के पालन पर जोर देते हैं, क्योंकि पहले मानव को मानव रूप में पहचान की आवश्यकता है, जिस दिन मनुष्य अपने आप को पहचान लेगा, तब
कर्त्तव्य का निर्वाह भी सही से हो पाएगा।
इसीलिए गांधी एकादश जैसे व्रत
समाज के सामने देते प्रतीत होते हैं। जिसमें सत्य, अहिंसा, अस्तेय,
अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, अस्वाद, अभय, शरीरश्रम, स्वदेशी, अस्पृश्यता निवारण, सर्वधर्म समभाव सम्मिलित है। इस
एकादश व्रत के पालन से मानव को मानव के अधिकार मिलते प्रतीत होते हैं। सत्य को
गांधी ईश्वर मानते हैं। अहिंसा का पालन मन, वचन और कर्म से
पालन की बात करते है। अस्तेय में किसी भी प्रकार की चोरी को निषेध करने की बात
करते हैं। अपरिग्रह में आवश्यकता से अधिक संपत्ति को वर्जित मानते हैं। ब्रह्मचर्य
को समाजसेवा के लिए उपयोगी मानते हैं। अस्वाद को ब्रह्मचर्य पालन एवं शरीर की
दृष्टि से उपयोगी मानते हैं। अभय में सत्य के आग्रही को निडर बनने की बात कहते
हैं। शरीरश्रम में रोटी के लिए श्रम की बात कहते हैं, यानि
सभी के लिए शरीरश्रम अनिवार्य की बात कहते है और यह भी कहते हैं कि जो शरीरश्रम
किए बिना खाता है चोरी का अन्न खाता है। स्वदेशी व्रत में गांधी का विचार है कि
सभी लोग स्वदेशी को अपनाए और आवश्यकता की वस्तुएँ यहीं पैदा हो और उसे उपयोग में
लाया जाय तो नया भारत रोज उपस्थित होगा, एक तरह से यह पड़ोसी
से प्रेम का व्रत है। अस्पृश्यता निवारण को गांधी व्रत के रूप में अपनाने की बात
करते है। यानि सामाजिक सौहार्द की बात करते दिखते हैं। सर्वधर्म समभाव में सभी
धर्म की अच्छी बातों को ग्रहण करने की बात करते हैं एवं सभी धर्मों को समान मानने
से है, यानि आज जो धर्म से उत्पन्न समस्या दिखती है उसके
निवारण की बात है। इस तरह एकादश व्रत का पालन मानवाधिकार की प्राप्ति है।
गांधी सामाजिक समस्या से
चिंतित नजर आते हैं। सामाजिक समस्या मानवाधिकार का हनन करती है। गांधी रचनात्मक
कार्यक्रमों यानि कर्त्तव्य के पालन द्वारा मानवाधिकार की प्राप्ति करते दिखते
हैं। गांधी के रचनात्मक कार्यक्रम में अठारह प्रकार के रचनात्मक कार्यक्रम शामिल
है। कौमी एकता, अस्पृश्यता निवारण, शराबबंदी, खादी, ग्रामोद्योग, गांवों की सफाई, नई या बुनियादी तालिम, बड़ों की तालिम, स्त्रियाँ,
आरोग्य के नियम, प्रांतीय भाषा,
राष्ट्रभाषा, आर्थिक समानता, किसान, मजदूर, आदिवासी, कोढ़ी और
विद्यार्थी। यहाँ हम देखते हैं कि, गांधी मानव के अधिकार
प्राप्ति के लिए कौमी एकता की बात करते हैं। कौमी एकता नहीं होने के कारण ही
सांप्रदायिक हिंसा जैसी मानवीय अत्याचार होते रहते हैं। अस्पृश्यता जैसी अमानवीय
व्यवहार सदियों से चली आ रही है, जो भेद भाव को जन्म देती
है। इसके निवारण की बात करते हैं। शराबबंदी में भी मानवाधिकार की बातें समाहित है
ज्यादातर पारिवारिक कलह शराबखोरी से होती है जिसमें ज़्यादातर महिलाओं के अधिकार का
हनन होता है। इसलिए गांधी शराबबंदी को अपने कर्त्ताव्यों में शामिल अधिकारों की
रक्षा के लिए करते हैं। इस तरह गांधी के सारे रचनात्मक कार्यक्रम भी अधिकारों की
प्राप्ति हेतु कर्त्तव्य दिखते हैं।
गांधी रस्किन की अनटु दिस
लास्ट पुस्तक को पढ़कर बहुत प्रभावित होते है और वे 1908 में सर्वोदय नाम से
गुजराती भाषा में उस पुस्तक को समाज के सामने रखते हैं एवं उस दिशा की ओर अग्रसर
दिखते हैं। मैं कहूँ कि गांधी का सर्वोदय दर्शन एवं कार्य मानवाधिकार की प्राप्ति
है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। सब का उदय, सब के द्वारा उदय एवं सब तरह से उदय सर्वोदय है। सब का उदय सर्वोदय का
लक्ष्य है, सब के द्वारा उदय सर्वोदय का साधन है, सब तरह से उदय इसकी विशेषता या अधिकार है। इस पुस्तक में मुख्य रूप से
तीन बातों पर गौर किया जाय तो गांधी के मानवाधिकार संबंधी बातें और भी स्पष्ट
होंगी। पहला, सबों की भलाई में ही अपनी भलाई है। दूसरा, श्रमिक, किसान एवं मजदूर का जीवन ही सच्चा जीवन है।
तीसरा, नाई और वकील के काम की कीमत एक जैसी है।
गांधी का ट्रस्टीशिप
सिद्धान्त मानवाधिकार की रक्षा करते नजर आता है। ट्रस्टीशिप (न्यासिता)
शब्द अंग्रेजी के ‘ट्रस्ट’ शब्द
से बना है। ट्रस्ट की अवधारणा जमीन और अन्य संपत्ति को सुरक्षित या संरक्षक के रूप
में लिया जाता है। पृथ्वी पर मनुष्यों के उपयोग में आने वाली सारी संपत्ति पर किसी
एक या सीमित व्यक्तियों का ही हक नहीं है, संपत्ति पर सबों का बराबर हक है, हम सिर्फ उस संपत्ति के न्यासी (रक्षक)
हैं। जिस तरह सूर्य कि
रोशनी और हवा पर अपना कोई अधिकार नहीं है, उसी तरह भूमि पर भी
अपना कोई अधिकार नहीं है। गांधीजी संपत्ति को समाज की धरोहर के रूप
में देखते थे। गांधी के अनुसार कोई भी व्यक्ति चाहे वह शाहजादा हो या व्यापारी
वंशगत या स्वअर्जित संपत्ति का स्वंय मालिक नहीं हो सकता और न ही इस संपत्ति के
मामले में उसका स्वैच्छिक अधिकार हो सकता है। वर्तमान असमानताएँ निश्चय ही लोगों
के अज्ञान के कारण हैं। लोगों का अपनी स्वाभाविक शक्ति का ज्ञान जैसे ही बढ़ेगा
असमानताओं का खात्मा होना लाजिमी है। हरिजन
सेवक में गांधी जी ने लिखा है कि, ट्रस्टीशिप का अंतिम मसविदा इस बात का प्रमाण है कि इसमें पूंजीवाद की
गुंजाइश ही नहीं है। बल्कि मौजूदा पूंजीवादी व्यवस्था को यह समतावादी व्यवस्था में
बदलना चाहता है, जहाँ
संपत्ति के व्यक्तिगत स्वामित्व का कोई अधिकार ही स्वीकार नहीं है। गांधीजी भारतीय
अर्थव्यवस्था के संकट से परिचित थे और साफ-साफ कहा था कि, अहिंसा कि सफलता के क्षेत्र में सबसे बड़े बाधक हमारे देश
में उपस्थित अमीर लोग,
सट्टेबाज, भूस्वामी, दस्तावेज़ बनानेवाले,
कारखानेदार, आदि
हैं। वे सब शायद नहीं समझते हैं कि, वे जनता के खून चूस कर ही जी रहे हैं। इस तरह गांधी का ट्रस्टीशिप
सिद्धान्त मानवाधिकार की प्राप्ति का माध्यम है।
गांधी विकेन्द्रीकरण के
समर्थक हैं, केन्द्रीकरण के कारण
ही ज़्यादातर आजादी छिनती है। गांधी राज्य को घनीभूत हिंसा की जड़ मानते हैं। सांसद
को भी वे बांझ एवं वेसवा मानते हैं। ये मनुष्य के अधिकार का हनन करती है।
गांधीजी का मानवाधिकार लड़ाई
दक्षिण अफ्रीका प्रवास के दौरान से ही दिखलाई पड़ता है, जहां वे गिरमिटिया मजदूर को अपने अधिकार की
प्राप्ति दिलाने हेतु लड़ाई छेड़ते हैं। बोअर युद्ध एवं जूलु विद्रोह में घायलों की
सेवा एवं दवाई की व्यवस्था करते नजर आते हैं। भारत में 1917 के चंपारन सत्याग्रह द्वारा
मानवाधिकार की रक्षा करते नजर आते हैं। जहां बहुत पहले से ही तीन-कठिया प्रथा लादी
गई थी। नील की खेती अनिवार्य कर दिया गया था। अंग्रेज अनेक प्रकार के कर वसूल किया
करते थे। कर अदा नहीं किए जाने पर अनेक प्रकार के जुल्म ढाये जाते थे। इनसे निजात
दिलाते है। 1918 में अहमदाबाद मिल मजदूर आंदोलन में मजदूरों के हक दिलाते नजर आते
हैं। 1918 में खेड़ा सत्याग्रह के दौरान किसानों को अपना हक दिलाते हैं।
भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम
में 1920 में असहयोग आंदोलन का छेड़ा जाना मानवाधिकार की लड़ाई थी। जो अहिंसक तरीके
से लड़ी गयी है उसमें गांधी कोई भी प्रकार की हिंसा नहीं चाहते थे। लेकिन चोरी चोरा
नामक स्थान पर थाने में 21 पुलिस कर्मियों को आंदोलनकारियों द्वारा जिंदा जला देने
से गांधी अपने असहयोग आंदोलन को वापस ले लेते हैं। इससे साफ जाहीर होता है गांधी
मानवाधिकार की रक्षार्थ भी खड़े होते हैं। 1930 का सविनय अवज्ञा आंदोलन मानवाधिकार
की ही लड़ाई थीं, जिसमें अपनी मांगों
के साथ-साथ नमक पर बढ़े कर को समाप्त कराया। 1931-32 में नौ महीने तक दलितोत्थान पर
कार्य करना एवं उसे अधिकार दिलाना मानवाधिकार की प्राप्ति की लड़ाई थी। 1942 में
करो या मारो का नारा देना अंग्रेजी दासत्व से मुक्ति का आंदोलन था। आजादी के समय
नौआखाली में सांप्रदायिक हिंसा को शांत एवं सामाजिक सौहार्द करते नजर आते हैं। नि:सस्त्रीकरण, शांतिसेना,
विश्वसरकार की बातें करना मानवाधिकार की रक्षा करना था।
इन सब से भिन्न गांधी
सत्याग्रह जैसे अहिंसक अस्त्र अपने अधिकार की प्राप्ति के लिए देते हैं। इसमें
किसी का कोई नुकसान नहीं होता,
प्रतिपक्षी का सिर्फ हृदय परिवर्तन किया जाता है। इस तरह हम देखते हैं कि गांधी
अपना सारा जीवन मानवाधिकार की प्राप्ति में अपने विचार और कार्य को रखते हैं एवं
अपने जीवन के अंतिम दिनों तक मानवाधिकार की रक्षार्थ खड़े रहते हैं।
संपर्क: अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी
विश्वविद्यालय, पंचटीला वर्धा, महाराष्ट्र- 442005, मो.- 9763710526, ई-मेल: chandankumarjrf@gmail.com